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Domaddy
हम आज अपने अङ्गको बेकार रखना चाहते,
आखों बिनाही लोकके सब दृश्य लखना चाहते । अवलोक उनकी मूर्खता मनको व्यथा होगी नहीं ? कर कष्टसे पीड़ित मनुज, सर्वाङ्ग क्या रोगी नहीं ?
यह प्राणदात्रि-समाज अब फिरसे बने विद्यावती,
सर्वत्र ही संसारमें इनकी कथा हो गूंजती । अकलङ्कसे धर्मिष्ट नर उनसे सतत उत्पन्न हों, वे वीर हो, गम्भीर हों, रणधीर और प्रसन्न हों।
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कर प्राप्त विदुषी पालिका प्रत्येक नर कृत्कृत्य हो, उन नारियोंसे भूमिमें भी स्वर्ग सुखका नृत्य हो । गृह स्वामिनीके साथही फिरसे यने मन-स्वामिनी, वे शील-तस्करके लिये होवें भयंकर दामिनी।
करने लगें वे मंत्रियों का काम पतिके काममें,
वे सौख्यकी सरिता बहा दें शीघू दोनों धाममें। हो एक मन केवल कथनकेही लिये दो गात्र हों, हृदयेश्वरीके प्रेमके सम्पूर्णतः नर पात्र हों।