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कैसे बिताते दीन वे रजनी भयंकर फूसकी,
घस, एक चिथड़ा अङ्गपर नहिं झोपड़ी है पूसकी। सी-सी दुखित करते हुए वे रातभर हैं जागते, मिलता न रक्षण हेत फटा वे घरोघर मांगते ।
जब सूर्य तपता है प्रचुर निकलें न कोई धामसे,
होती व्यथा तब दीनजनको पेटसे भी घामसे । पगमें नहीं हैं चप्पलें, छत्ता नहीं हैं हाथमें, हा। फिर रहे भिक्षार्थ वे प्रस्वेद बूदें माथमें ।
पडता यहां पानी अधिक वे वृक्षके नीचे पड़े,
शीतल पवन आघातसे हैं रोंगटे उनके खड़े। असहाय वे नर सर्वदा धनहीन हैं तन क्षीण हैं, हा गिड़गिड़ाते ही गिराको बोलते वे दीन हैं ।
व्यभिचार । रोती रहे चाहे निरन्तर गेहमें निज सुन्दरी,
वाराङ्गनाकी प्रेमसे जाती यहाँ थैली भरी। जीवन मयी सुखदायिनी वेश्या हृदयकी वल्लभा, सहधर्मिणी पाती नहीं उसके नखोसम भी प्रभा।