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________________ १८४ 4 लिखते किसीको आप गाली वे तुम्हें लिख डालते, इस भांति दोनों ही अहो कर्तव्य कब निज पालते । यह वर्ण अवसर व्यर्थही देखो चला जो जायगा, तब हाय पछताना हमारे हाथमें रह जायगा । રહ नहिं नष्ट करना चाहिये भगवानके आदेशको. अपने करोंसे नहिं चढ़ाना चाहिये निज क्लेशको । जनक न काला मुख मरोगे दुःख ढ़ाई स्वार्थका, ततक न तुम उपदेश दोगे लेश वस्तु यथार्थका । ३८ जिन डालपर बैठे हुए उस टालको फाटो नहीं, तुम नीर जिसका पी रहे उस कृपको पाटो नहीं । क्या धर्म निन्दासे तुम्हारी उन्नती होगी कभी. इस चानको भी आपने मनमें विभाग देश भी । ३६ दुष्कर्म में देने मुदित हो आज शात्र प्रमाण तुम, हमसे जगना कर सकोगे ले ज्याकरण तुम । सापक, दिन रात यो मम पाप अपने ली ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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