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यो कौनजन चाहे कहो संसारके दुख भोगना, पर भोगने पड़ते विवश त्रयतापनित धनके बिना। आभूषणोंसे जो मनुज दिखता यहांपर है बड़ा, उसके भवनमें भी विकट दारिद्रयका डेरा पड़ा।
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होती न पूरी आज आशा एक भी इस चित्तकी, होती नहीं जनपर कृपा हा ! हा ! कभी भी वित्तकी । भाती नहीं खादी कभी बारीक मलमल चाहिये, पैसा बिना उसके लिये मनमें सदा ललचाइये ।
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परिवार पोषण भी यहां पर हो रहा अतिभार है, धनके बिना निस्सार जीवन मृत्युमें ही सार है । करके कठिन दिनभर परिश्रम जो यहां पैदा किया, मिलकर उसे दोनों जनोंने प्रेम पूर्वक खा लिया ।
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निद्रा न आती रातमें कर याद प्रातःकालकी, हा ! स्वप्नमें दिखता उसे दारिद्र्य भीषण पातकी । अपनी दशापर सर्वदा रहते दुखित परिणाम हैं, उन दीन दुखियोंसे कभी होते न धार्मिक काम हैं।