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रख द्रव्यको आशा हृदय जाते मनुज परदेशमें , परक्या कमाते हैं कहो रहकर कठिनतर क्लेशमें । फिरते रहे सारे दिवस रख शीशपर वे खोमचा, जब शामको आये सदन कुछ भी नहीं उनकोवचा ।
इस भांति कुछ ही कालमें पंजी सकल स्वाहा हुई,
उसकाल उनकी दुर्दशामृत-तुल्यसीहा! हा! हुई। मिलती न कोई नौकरी मजदूरियां करने लगे, जैसे बना तैसे अहो। वे पेटको भरने लगे।
आते अनेकों पत्र गृहिणीके महादुखके भरे,
खर्चा न भेजा आपने जाते यहां भूखों मरे। हा ! सेजपर पाला पड़ी है घोर दैहिक तापसे, मिय पुत्र भी कितने दिनों से नहिं मिला है वापसे।
रना सुताकी औषधि पैसे बिना कैसे करें, हा! हा! क्षुधातुर लाल ये धीरज कहो कैसे धरें। रहती रही पाकिट सदा जिनकी मिठाईसे भरी, आहार अब उनको कठिन ये भाग्यकी महिमाहरी।