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जिन दीक्षा ले लेवे, अतएव अपने घर मुनियोंका आना भी बन्द कर दिया था। सुकुमाल बत्तीस स्त्रियोंके साथ वत्तीस खण्डवाले भवनमे अपने सुदिन विताने लगे। देव योगसे इनके महलके पीछे वाले मन्दिरमें कोई मुनि चातुर्मास करनेके लिये ठहरे। एक समय मुनिराज त्रिलोक प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे। और उसकी आवाज सुकुमालको प्रगट सुनाई पड़ रही थी। उसके सुननेसे सुकुमालको जाति स्मरण हुमा तथा तत्काल वैराग्य रसमें लीन हो गया। वाहर मानेका कोई उपाय न देखकर उसने खिड़की (गवाक्ष ) मेसे कपड़ों की रस्सी बनाकर लटकाई और उसके सहारे मुनिके पास आके दीक्षा ले ली । मुनिने कहा कि तुम्हारो आयुके तीन दिन अवशेष हैं। सुकुमार सुकुमाल मुनि तप करने वनमें जा रहे हो उस समय उनके पगोसे रक्तकी धारा वह निकली थी, सुमन सुकोमल गान सुकुमालको इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी। वे गहन वनमें शान्तमनसे तपस्या करने लगे। अशुभ कर्मोका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। इतनेमे ही एक शृगालनी रुधिर धाराको चाटती २ बचो सहित मुनिराजके निकट आ पहुंची। उनको देख करके गालनीको बहुत कोप उत्पन्न हुआ। उसने मुनिका हाथ खाना प्रारम्भ किया तथा पञ्चाने पग साना शुरु किया तीन दिनतक वह गीदड़ी उनके शरीरको बड़ी ही निर्दयताले खानी रही । इतनी आपदामे भी मुनिराज सुकुमाल पर्वतराजमम अकम्प गे, उन्होने इस दुखको दुलही नहीं माना,ज्यों ज्यों गीदड़ी उनको खाती गई त्योत्यो वे आत्म ध्यानमें अधिक लवलीन होते गये। अंतमे सर्वार्थसिद्धि विमानम महमिद हुए।