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हम धर्मको तजने लगे वह होगया हमसे विदा,
अब धर्म है सत्कर्म है केवल हमारी सम्पदा । यों कर लिया करते कभी हम वंदना जिनराजकी, कैसे लिखे यह लेखनी धार्मिक अवस्था आजकी।
हा! घूमता है धर्म प्यारा कौनसे उद्यानमें,
जाता यहाँ जीवन हमारा भी किसीके ध्यान में । जिस धर्मकी उत्कृष्टतासे ज्ञात थे जगजन कभी, सिद्धान्त उसके उच्चतर अज्ञानसे सोये सभी।
२४४ जो जैनमत संसार धर्माका सुभगसिर मौर था, इस धर्मका धारक न हो ऐसा न कोई ठौर था। वह हो रहा है संकुचित विधिकी कृपासे ही यहां, थोड़े यहां हैं वैश्य ही इस धर्मके पालक यहां।
हमारी कायरता। रहना न चाहें हम कभी वंचित जगत आरामले,
तब क्या भलाई कर सकेंगे हम किसीकी कामसे। यो हाय, नस नसमें हमारे क्रूर कायरता भरी, ओजस्विनी वह पूर्वजोंकी शक्ति हा, किसने हरी ?