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हा ! आज इन पंचायतों की हो रही है दुर्दशा, इन पंचराजोंपर चढ़ा है पक्ष-मदिराका नशा । निष्पक्ष होके न्याय करना स्वप्न में आता नहीं, हा ! दीन मानव आज इनसे न्यायको पाता नहीं ।
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अन्याय रूपी चक्क हा ! हा ! यहाँ हम पिस रहे. होके व्यथित पंचायतों से बन्धु कितने खस रहे । बस, स्वार्थ साधनके लिये होती सकल पंचायतें, अन्याय और स्वपक्षसे पूरी अखिल पंचायतें । १३६ जो कुछ प्रथम मिलकर सदन दो चारने निश्चय किया, उनही विचारों को अहो ! पंचायतों में घर दिया । वे पुष्ट सहसा हो गये सम्बन्धियों की रायसे, कृत्कृत्य नितको हो गये पंचायतों के न्यायसे ।
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बच जायगा जन विश्वमें तलवारकी भी धारसे, हा ! बच न सकता किन्तु वह पंचायतों की मारसे । निष्पक्षता तो सर्वथाको हो चुकी उनसे बिदा,
जानें प्रभो ! पंचायतों के भाग्य मेंही क्या बदा ?