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कर प्रेरणा अत्यन्त ही पूजा करायेंगे कभी, निःशंक तब निर्माल्य अपनाही बनायेंगे सभी। पूजा प्रतिष्ठा एक भी होती नहीं इनके विना, होती बड़ी ही ठाटसे इनकी मनोहर भावना१ ।
२१३ दश पांच नौकर तो गुरू, रखते सदा ही संगमें,
हा, हा, रंगे रहते अलौकिक ही निराले रंगमें। ये श्रावकों को दे सकेगे हाय कारागार भी, प्रभुने इन्हें क्या दे दिया है विश्वका अधिकार भी।
गिरते कुएं में तो स्वयं पर अन्यको लेके गिरें, जब हैं यहांपर भक्तगण तब क्यों अकेलेही मरें। अपने कुकर्मोंसे सहज पातालमें ये जायेंगे, सहने पड़ेंगी वेदना तब तो अधिक पछतायेंगे।
मुनिगण। जिनसाधुओंका आजकल हमको अधिकतर मान है,
१ये (भट्टारक) जिसके घर भावना (आहार ) करते हैं। उसका तो दिवालासा निकल जाता है। कभी कभी दो दो तीन तीन सौ रुपया खर्च पड़ जाता है।