________________
श्वेताम्बर जैन। उस एक ही सद्धर्ममें दो भेद दुर्दिनसे पड़े, फिर हो गये हैं भेद उनमें भी यहां कितने खड़े। देखो प्रभेदोंमें सहज ही भेद अब भी हो रहे, अवशेष जो कुछ एकता उसको सदाको खो रहे।
हीनाचार। सत्कार्यमें भी तो यहांपर फिर शिथिलता आ गई,
बस मानकी आंधी यहां सबके हृदयमें छा गई। यो मान वशमें आ तभी सग्रन्थ-गुरु बनने लगे,
हा। हंस भी विधि दोषसे मानों चने चुगने लगे। इन धर्म गुरुओं का यहां प्रतिरोध भी जिसने किया,
उनको गुरूके भक्त गणने नास्तिक बतला दिया । तब ही समाजोंमें मुदित बैठी अनेक कुरीतियां, कहने लगे उनको सहज ही पूर्वजोंकी रीतियां ।
जातियोंकी उत्पत्ति । अपने विभागों के अहो! ये नाम भी धरने लगे,
दो चार जन मिलकरप्रमुख नियमादि भीरचने लगे। होके नियमसे बद्ध सब व्यवहार टोलीमें किया, यों दूसरों की अवनति पर ध्यान नहिं हमने दिया।