SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ अकलंक युतनिकलंकने व्रत वाल्यजीवनमें लिया, रहते हुये निज प्राण उसका अंततक पालन किया। करने लगे उनके पिता तैयारियां उत्साहसे, बोले तभी वे वीर हमको काम क्या इस व्याहसे? देखो ! पिता सर्वत्रही अज्ञान तम अति छा रहा, प्राचीन अपना धर्म दिन २ हा । रसातल जारहा । जीवन बिताऊंगा पिता निज धर्मके उद्धार में, उन्नति न करते धर्मकी वे भार हैं संसारमें । अतएव अपने पुत्र ये धर्मार्थ अब अर्पण करो, होगा हमारा क्या अकेले यह न तुम चिंता करो। नकलंक तो हंसते हुये बलिदान सहसा होगये, अकलंक अपने ज्ञानसे अज्ञान तमको घो गये । पाठक ! यहां बलिदानकी कैसी भयंकर थी प्रथा, सब जान लीजे आप उसको पर पुराणोंसे तथा । श्रीवीर प्रभु होते न जो हिंसा कभी रुकती नहीं, अपने हिताहितको कभी भी यह मही लखती नहीं । आदेश पालक वीर थे संसार में मगधेश १ से, पाके पिता आज्ञा कठिन सविनय गये जो देशसे श्रीराम लक्ष्मणसा किसीमें प्रेम क्या होगा हरे ? १ श्रेणिक २
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy