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श्रीमान की सन्तान । अवलोक लीजे आपही दश बीस दुर्गण युत नहीं, ऐसे यहां श्रीमान सुत होंगे अहो! विरले कहीं। वे जान सकते हैं नहीं क्या वस्तु शिष्टाचार है ? अपने पिताके साथ भी उनका दुखित व्यवहार है।
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करना अवज्ञा पूज्य पुरुषोंकी उन्हें मंजूर है, विद्या, विनयके साथ ही उनसे हुई अति दूर है! पड़के कुसंगतिमें कभीवे स्वास्थ्य धन खोते अहो!
वे पूर्वके दुष्कृत्य पर, पर्यत पर रोते अहो! संसारमें यों तो सदा ही जन्म लेते हैं सभी,
उनसी शुश्रूषा क्या कराता विश्वमें कोई कमी! वे जन्मसे ही कष्ट देते हैं सकल परिवारको, होते बड़े ही भूल जाते मातृ-ऋणके भारको ।
१०६ सब खेलते है खेल अपने साथियों से मोदमें,
लेकिन रहे उदण्डता श्रीमान पुत्र विनोदमें। वे पालकों में जोर दिखलाते अधिक निज द्रव्यका, हा! भान कुछ भी है नहीं अपने परम कर्तव्यका।