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दुखमें सहज ही छोड़ देते आज कल मुनि धैर्यको, यों चाहने लगते व्यथित संसारके ऐश्वर्यको।
२२३ चिन्ता उन्हें रहती विकट नित शिष्य गणके वृद्धिकी,
इच्छा नहीं परमार्थकी अभिलाष लौकिक सिद्धिकी अज्ञान रूपी व्याध दिन २ कर रहा हा! घात है. आदर्श सुन्दर साधुओं का हो रहा क्यों पात है ?
२२४ कोई मुनी निज नामसे चन्दे यहां कर वायंगे, निज नामकी कोई अहो! छतरी यहां बनवायंगे। वे गुप्त बातों को कहेंगे भक्तजनके कानमें, ने खिन्न प्रमुदित हों यहांपर मान या अपमानमें।
परिडत। जिन पण्डितों का एक दिन संसारमें सन्मान था,
निज धर्मके उत्थानका जिनको बड़ा ही ध्यान था। करते रहे जगमें प्रकाशित धर्मको निज ज्ञानसे, हा! आज उन विद्यार्णवोंका व्यासमन अभिमानसे र स्तूप वगैरह स्मारक चिह।
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