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जो कोकिलासे भी मधुरवाणी सुखद नित बोलती, जो कर्ण पुटमें प्रेमसे पीयूष मानों घोलती । मृदु- फूलकी माला सदृश कोमल मनोहर देह है, सर्वाङ्ग सुन्दरता भरा लावण्यताका गेह है । पुरुषोंकी मान्यता ।
साधन समझते हैं स्त्रियोंको निज विषयकी पूर्तिका, अपमान करते इस तरह हम देवियों की मूर्तिका । अब तो समझते हम उन्हें अपनी पुरानी जूतिय, पर देव हमको मानती हैं आज भी वे देवियां । हमारी भूल ।
जो हैं अशिक्षित नारियां इसमें हमारी भूल है, परिवार ही सारा यहांका ज्ञानके प्रतिकूल है । हम दोष दें किसको अधिक नहिं दैवकी हमपर कृपा, निज वालिकाओंके पढ़ानेमें हमें आती नपा १ ।
जैन समाज |
हा, आज जैन समाज जगमें शव सहशही जी रहा, पीयूष तज करके सुखद अज्ञान धारा पी रहा।
१ कजा ।