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________________ GADEngs जिनसेन गुरु-पद-पंकजों में 'वर्ष१ मन अनुरक्त था भद्रेशको शिवकोटिने क्या पूज्यनिज माना नहीं? गुरुविन किसीने भी कभी सन्मार्गक्या जाना कहीं? यों जो न विधवा द्रव्य२ लेते थे कभी भंडारमें, जो सम्पदा करते रहे व्यय धर्म, कर्म प्रचारमें । दुर्व्यसन३ प्रायः सभी ही राज्यमेंसे दर थे. उनके बृहद साम्राज्यमें पापीन थे नहिं कर थे। उनने अहिंसा धर्मकी सर्वत्र फहरा दी ध्वजा, पापी दुराचारी नराधम हिंसकोंको दी सजा । संकट निवारणके लिये थीं दान शालायें४ खुली, शुभज्ञान वर्द्धन हेतु ही तो पाठशालायें खुली । १ श्रीअमोघवर्ण । २ कुमारपालने विधवाओंका द्रव्य लेना पाप समझा था । ३ दुर्व्यसन लगभग दूर ही हो गये थे। ४ गरीबोका दुख दूर करनेके लिये कुमारपालने एक बड़ी भारी दानशाला खुलवाई थी जिसका प्रबन्धक सेठ नेमिनाथका सुपुत्र अभयकुमार श्रीमाली" था। कुमारपाल बहुत ही स्वदारसन्तोषी था इसलिये इसे परदार-सहोदर, शरणागत वपंजर. जीव दावा आदि अनेक पदवियां प्राप्त हुई थीं।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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