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चरितार्थ उसको प्रेमसे सम्मति हमें करना पड़ा । है मोहका जबतक उदय चारित्र घर सकते नहीं, पांचों अघोंका पूर्ण जबतक त्यागकर सकते नहीं । तवतक सदा शुभकार्यमें जीवन बिताना चाहिये, माया तथा दुर्वासना से मन हटाना चाहिये । केवल विरक्तों से अकेले चल नहीं सकती मही, यह सोचकर सम्पूर्ण जगके काम करते हैं गृही । जिस वस्तुकी इच्छा हुई पुरुषार्थसे वह प्राप्तकी, आराधना करते रहे सुख दुःखमें वे आप्तकी । मर्मज्ञ थे, तत्त्वज्ञ थे, दानी तथा निष्पक्ष थे, वे दुर्व्यसन त्यागी मुद्रित निजकार्यमें अतिदक्ष थे। थे सत्यभाषी, वृद्धसेवी, धर्मसे अनुराग था,
मनसे वचनसे कायसे मिथ्यात्वका नित त्याग था । सागार१ उत्तम थे वही संसारके सद्गुण रहे,
अन्यार्थ २ उनने हर्षसे आये हुये सुख दुख सहे । निजगेहमें रहते हुए सुख था उन्हें दुख था नहीं,
सहधर्मिणी श्री शिक्षिता आज्ञाविमुख सुन था नहीं उत्पन्न नित करते रहे वे सद्गुणी सन्तानको, फिर प्राप्त वे होते रहे निज आत्महित उद्यानको । १ गृहस्य | २ दूसरोंके लिये ।