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दुर्भिक्ष । सब गैरका दुर्भिक्ष आकरके यहांपर जम गया,
शम, दम, दयाके साथमें धन भी यहांका सब गया दुष्काल पीड़ित मानवोंकी ध्यानसे सुनिये कथा, हा । चीर डालेगी हृदयको वेगसे उनकी कथा।
है न सुन्दरता तनिक भी कृष्ण कर्कश गान है,
उनके वन्दनपर जीर्ण छोटीसी लंगोटी मात्र है। उनका पराई रोटियोंपर ही यहाँ गुजरान है, हम कौन हैं क्या कर सकें इसका न उनको ज्ञान है।
हा । अन्न हा, हा, अन्नका रव कान फोड़े टालता,
डर जायगा नर दूलरा उनकी विलख विकरालता। वे नर नहीं हैं किन्तु सच दुर्भिक्षके ही रूप है, रीले पड़े उनके उदर ज्यों नीर बिन हा। कूप हैं।
जगदीश ही जाने क्षुधातुर प्राण कितने खो रहे, निज धर्मसे या कर्मसे भी हाथ कितने धो रहे । नहिं देखता है नर पिपासाकुल रजकके घाटको, कब छोड़ सकता है क्षुधातुर हाय । जूठे भातको।