SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनने प्रभू-पद-पंकजोंमें शीश अपना धर दिया, नर-भव मुदित पावनकिया पावनकिया! पावनकिया तप। होना न वशमें इन्द्रियोंके वश उन्हें करना अहा. तप कर्मक्षयकारण सदा ही शास्त्रकारोंने कहा । कर्तव्य अपना मानकर तपको हमीं तपते रहे, जिससे हमारे सर्वगुण जगमें प्रगट होते रहे । दान। देते रहे हम दान जगमें सर्वदा निज शक्तिसे, थोड़ा दिया आहार हमने पात्रको सद्भत्तिासे । कुछ दान देना प्रति दिवस प्रत्येकका कर्तव्य था, देतान था जो दान नर वह शव समान अवश्य था। थोड़ा दिया भी दान अनुपम सौख्य देता था कहीं. बोया गया वट बीज क्या सुविशाल तरुहोतानहीं । मिलता इसीसे मोक्षफल यह बात जगविख्यात है, पाता कृषकर जब धान्य तय भूसा कठिन क्या बात है १ पात्र दाने फलं मुख्यं मोक्ष. सस्यं कृपेरिव । पलालमिव भोगास्तु, फलं स्यादानुपङ्गिकं ॥२॥
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy