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________________ POCOOR पाषाण ही पर्यक१ है आती न घरकी याद है। है चन्द्रमा दीपक मृदुल करुणा हृदयकी कामिनी, कल्याण वे करते रहैं सर्वत्रा ही संयम-धनी । मृदु-तूल शैयापर प्रथम जिनको विनोला था गड़ा, कर्कश घरापर हर्षसे उनको अहो ! सोना पड़ा। यह चंचला लक्ष्मी तजीपर ज्ञान लक्ष्मीको नहीं, बस, आत्म साधन इष्ट है मन-अन्य अभिलाषा नहीं मूर्तिपूजन। जवतक हमारे सामने प्रभु मूर्ति मृदु होगी नहीं, तबतक हृदयमें भक्ति भी उत्पन्न यों होगी नहीं। प्रभु तुल्य बननेके लिये करते मनुज आराधना, आदर्श बिन मनमें कहो उत्पन्न हो क्या भावना? हम भक्तजन प्रभु मूर्तिको नहिं मानते पाषाण हैं, हां, मानकर भगवान उनका नित्य करते ध्यान हैं। जैसे नृपतिको मूर्तिका करना अवज्ञा पाप है, प्रतिमा अनादरसे पुरुष पाता अधिक सन्ताप हैं । सन्तान आदिक मांगना उससे निरर्थक है सदा, देती नहीं निर्जीव प्रतिमा आपदा या सम्पदा । १ पलंग।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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