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विद्यालयोंसे भी निकलकर जातिहितक्या कर सके,
अध्यापकी करके विवश यह पेट पापी भर सके। हा ! अन्यके आधीन ही सचमुच हमारा प्राण है, इस दासताके सामने रहता कहां अभिमान है।
१२० हा खेद व्यावहारिक उन्हें शिक्षानदीजातीकहीं, प्रिय स्वावलम्बनपर कभी दृष्टि दी जाती नहीं। सेवक धनाना चाहते माता पिता सन्तानको, भू में मिलाना चाहते क्यों पूर्वजोंके मानको ?
सय सद्गुणोंके साथमें यह शिल्प विद्या है जहां, जोड़े हुये कर-पल्लवों को प्राप्त हो लक्ष्मी यहाँ । अय लक्ष्मिसुत हम वैश्य ही करने लगे, नौकरी, तोसोचिये सेवक जनों को क्या दशा होगी हरी ?
१२२ हा! आधुनिक जीवन हमारा सर्वथा परतंत्र है, शिक्षा विना परतंत्रताका आ न सकता अन्त है। विद्यालयोंकी पद्धति जयतक न बदली जाएगी, तपतकपतितयह जाति भीउत्थानको नहिं पायगी।