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________________ २८ प्राणेशको देना नहीं वे जानती हैं सान्त्वना, पूरी न कर सकती कभी उनके हृदयकी भावना। प्रत्येक बातों पर उन्हें आला बड़ा ही रूटना, अपराध करने पर सुत्तों को खूब ही तो पीटना। २६० छोड़ें न अपनी हठ प्रबल आजाय परमेश्वर कहीं, निज पूज्य पुरुषों का तनिक उनके हृदयमें डर नहीं। कर बैठती हैं रोषवश दो चार दिनकी लंघनें, आहार सुन्दर छोड़ करके वे चबायेंगी चनें । २६१ जाने वला उनकी सभी प्रिय पति मरे अथवा जिये, प्राणेशके भी कष्टमें रहते मुदित उनके हिये। पहिली सरीसी देवियों का अब न इनमें भाव है, हा, पड़ रहा है जन्नसे ही आज अन्य स्वभाव है। २६२ समुचित न कर सकतींकभी पालन निजी सन्तानका, अब ध्यान भी उनको नहीं है मान या अपमानका। आके जगतकी भीरुता उनके हृदय में उस गई, गृहदेवियोंसे रम्य भवनोंमें कलह ही बस गई।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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