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भक्ति। हैं दूर ही तो आज हम अपने सदाके कृत्यसे,
हम कौनसा सत्कर्म करते हैं जगतमें चित्तसे । प्रत्येक नरकी आजकल दुर्लक्ष्यमें अनुरक्ति है, निज ध्येयप्रति श्रद्धा नहींप्रभुमें कहाँ सद्भक्ति है?
३५६ पढ़ते सदा ही जोरसे हम तो प्रभुके संस्वतन,
फिर भी नहीं विध्वंस होता है हमारा भवविपिन । सिरके पटकनेसे कभी होता नहीं कल्याण है,
सद्भक्ति भावों से सदा होता प्रगट भगवान है । देखा जगत्पति मूर्तिको उपदेश भी बहुधा सुना,
क्या कार्यवह उपदेश करताभक्ति भावोंके विना। भावों बिना होती नहीं है फलवती जगमें क्रिया, प्रभुभक्ति भी तोबन रही है अब दिखाक्टकी क्रिया।
१ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि । नूनं न चेतसि मयाविधृतोसि भक्या ।। जातोऽस्मितेन जगवांधव । दुःखपात्र । यस्मानिन्याः पतिफलंति न भावशून्याः॥
-श्रीसूरिसिद्धसेन दिवाकर । ॐ वर्तमान खण्ड समास
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