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________________ १३३ २०४ अब नाम भहारक यहां सब कृत्य उनके नीच हैं, जो थे सरोवरके कमल वे हो गये अब कीच हैं । हा, जान कुछ पड़ता नहीं यह कालका ही दोष है, अथवा हमारे धर्मपर विधिने किया अति रोष है। २०५ अब धर्म रक्षक नामपर ये धर्म भक्षक बन रहे, संसारके आडम्बरों में यों अधिकतर सन रहे । हैं वस्त्र इनके देख लो रंगीन रेशमके बने, पीछी कमंडलु भी अहो, इनके सदा मन मोहते । २०६ गद्द तथा तकिये भरे रहते सुकोमल तुलसे, सादा नहीं आहार करते हैं कभी भी भूल से । पस. पुष्ट, मिष्ट गरिष्टही इनका सदा आहार है, पड़ती भयंकर रातको इनपर मदनकी मार है । २०७ प्रत्येक भहारक यहां पर धर्मका आचार्य है, पर धर्मके अनुरूप तो होता न कोई कार्य है । कितनी लिखी रहती घड़ी शुभ पदवियाँ चपरासमें, रखते परिग्रह सर्वदा संसार भरका पासमें ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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