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अब नाम भहारक यहां सब कृत्य उनके नीच हैं, जो थे सरोवरके कमल वे हो गये अब कीच हैं । हा, जान कुछ पड़ता नहीं यह कालका ही दोष है, अथवा हमारे धर्मपर विधिने किया अति रोष है। २०५
अब धर्म रक्षक नामपर ये धर्म भक्षक बन रहे, संसारके आडम्बरों में यों अधिकतर सन रहे । हैं वस्त्र इनके देख लो रंगीन रेशमके बने, पीछी कमंडलु भी अहो, इनके सदा मन मोहते ।
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गद्द तथा तकिये भरे रहते सुकोमल तुलसे, सादा नहीं आहार करते हैं कभी भी भूल से । पस. पुष्ट, मिष्ट गरिष्टही इनका सदा आहार है, पड़ती भयंकर रातको इनपर मदनकी मार है ।
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प्रत्येक भहारक यहां पर धर्मका आचार्य है, पर धर्मके अनुरूप तो होता न कोई कार्य है । कितनी लिखी रहती घड़ी शुभ पदवियाँ चपरासमें, रखते परिग्रह सर्वदा संसार भरका पासमें ।