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लेखनी |
हे लेखनी निर्भीक लिख दे अब हमारी दुर्दशा,
कैसा फंसा !
प्रत्येक मानव रूढ़ियों के जालमें करना पड़ेगी बन्धु कृत्यों की तुझे आलोचना, प्रियवर ! हमारे क्या कहेंगे यह न मनमें सोचना ।
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प्रिय - सत्य लिखनेमें तुझे त्रैलोक्य पतिका डर नहीं, जो सत्यसे डरता जगतमें नर नहीं, वह नर नहीं । लज्जा-विवश यदि दोष हम कहते नहीं तो भूल है, भीषण तनिक सी भूल वह सर्वत्र अवनति मूल है ।
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जबतक न दोषोंकी कड़ी आलोचना की जायगी, तबतक न यह नर जाति अपने रूपको भी पायगी । कर्तव्य वश करना पड़े जो कार्य इस संसारमें, वह कार्य कर, आधार प्रभु कर्तव्य पारावारमें ।
प्रवेश ।
लिखती रही जो लेखनी निज पूर्वजोंकी गुण-कथा, वह लिख सके कैसे हमारे दुर्गुणोंकी अब कथा | जिसने लिखा था पूर्वमें हर्षित हृदय आनन्दको, लिखने चली है आज वह रोकर अहो ! दुख- द्वन्दको ।
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