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पूजा करें भगवानकी इतना कहां अवकाश है, सत्कृत्यका प्रतिदिन यहांपर होरहा अतिहास है।
२६६ सर्वेश-पूजनके लिये मिलते पुजारी भी यहां,
वे शुद्ध पूजा बोल लें, है ज्ञान इतना भी कहाँ ? वे द्रव्य पा भरपूर भी कर्तव्यको कब पालते, अति सौख्यप्रद इस कार्यकी बेगारसी वे टालते।
२६७ जो जानते तक हैं नहीं पूजन प्रयोजनको जरा,
अन्त:करण जिनका सदा ही क्षुद्रभावों से भरा। तीर्थंकरों के नामतक पूरे जिन्हें आते नहीं, संसारमें जो दूसरा भी कार्य कर पाते नहीं।
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वे द्विज अपढ़ अब तो यहां बनते पुजारी सर्वथा, कैसे लिखे अब लेखनी इस दुर्दशाकी सब कथा? है और की तो बात क्या यह आरती आती नहीं, उनकी क्रियाओं को कहीं भी पूछने वाला नहीं।
२६६ सुन्दर प्रसूनों से प्रभूकी मूर्ति ढंक देते यहाँ, सर्वाङ्गमें भगवानके केशर चढ़ा देते यहाँ ।