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________________ भागमोबारक-प्रथमालायाः पविशनम् / . णमोत्थु णं अमणम्स भगवो महावीरस्य / पू० भागमोद्धारक-भाचार्यप्रवर-श्रीमानम्वनागरसूरीश्वीभ्यो नमः प्रागमोद्वारक-कृतिसन्दोहः , (तस्यायं पष्ठो विभागः) संशोधकः'प० पू० गच्छाधिपति-प्राचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी-मुनिलाभसागरः .... बीर सं. 2461 वि.सं. 2021 भागमोडा ल्यम् 1-0-0 प्रतयः 250] ANA P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्वारक-अन्धमानायाः षडशि रत्नम्। णमोत्थु णं समणस्स भगवो महावीरस्स। U-3343 ................ .................... પરમપૂજ્ય ગચ્છાધિપતિ આચાર્યદેવશ્રીની નિશ્રામાં મુનિશ્રી અશેકસાગરજી મહારાજના : वर्षांतपनi पा२। निमित्त : . असंच मारापाने 52. २५था सा९२ सभा संशोधकः५० पू० गच्छाधिपति प्राचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी-मुनिलाभसागरः पीर से. 2461 वि.सं. 2021 भागमोडारक सं० 15 प्रतयः 250 ] [मूल्यम् 1-0-0. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ 02882 Serving JinShasan O 20282 विषयानुक्रम / 028282 gyanmandir@kobatirth.org अ.नं. विषयः 1 भमणदिनचर्या। 2 जिनमहिमा। 3 कर्मसाम्राज्यम् / 4 गर्भापहारसिद्धिषोडशिका / 5 नग्नाटशिक्षाशतकम्। -6 त्रिपदीपञ्चसप्ततिका। . गणधरसाधेशतकसमालोचना। 8 तीर्थपञ्चाशिंका। है सिद्धषट्तिशिंका। 10 सिद्धगिरिपञ्चविंशतिका। 11 गिरनारचतुर्विशतिका। 12 गणघरपट्टद्वात्रिंशिका। 13 अनेकान्तवाद विचारः / 14 अमृतसागरमुनिगुणवर्णनम् / " छततीर्थयात्रा। स्तवः। P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ शुद्धिपत्रम् पंक्ति प्रोच्छन যাৰ सागरि सनः प्रोन्छन करणाय सागारि सज्ञः पमिदम बध्नाति पभिदम बध्नाति सह क्रीत तात् सन परिणत पान / षट तादू दनं ची सज्ञ परिणत पानेष a कैती सज्ज सम्मा करोमी श्चै त्रे नाधो करामी स्त्रे नेवाधो शी त्यया स्वयं चेद्धृदि विवुधै स्वया स्त्वियं चेहदि विबुधै P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ पंक्ति . 1 अशुद्ध कद्रमा कद्र मा श्चेत्त 13 सवा गोचरे केवत्वे विविस्तैिषा समश्नुते हो ष स्थिति -सदृशौ सर्वा गोचरं केबलत्वे विविक्तेषा समश्नुते ह्येष स्थिति सदृशे कुये सङ्ख्य वाच्यार्थी तम्य सङख्य वाच्यार्थी तस्य स्यान्ने श्रद्धः सङ्खये जावः स्यान्ते कूर्च श्राद्धः सङख्ये जीवः गिरा गिरी वय मोक्ष सुतार्थे मोक्ष र सुतीर्थे P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध उत्सर्गा कमे स्तार्थ सौख्यै चत्वापि पंसाम् जैनो तसाध्यमाप द्वाग कशा 104 106 शुद्ध उत्सर्गा कर्म स्तीर्थ सौख्ये चत्वार्यपि पुसाम् जैनो साध्यमापत् द्रागा... कशो ऐन्द्रया युक्ता श्त्य नियतं उत्की ऋषभा विनीता श्वकार शीघ्र बोधे ऐन्द्रया युवता 106 " 111 107 नियत उत्की ऋषभा विनाताः श्वकार शंघ्र वाघे 114 सत्प " 11 प्रबाधः तीथं कश्वि 12016 कृता " 20 समाप्ताः 113 सत्प प्रबोधः 115 तीर्थ कश्चि .. कृत समाप्तः P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ पृष्ठ पंक्ति शुद्ध चीकरन सञ्ज चीकृतन् साझं स्तप्रति ममेष पाहतो मतरं मनाक वाचयमी वैभव व्याख्या सङग भाक देवर्द्धि लास्तु निसरयेत् चयो हमत्या स्तत्प्रति मशेष पाहतो मतरां मनाग वाचंयमी वैभवं वाप्या सङगः भाक देवर्षि लॉस्तु निरसयेत् चयो हनृत्या - स्वल्पो मम्याद्य न्मिता मावनां बालकः दषत् स्वलोभो मन्च्या म्मितां भावनां बालके दधद् 58 P.P.AC.Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ * णमोत्थु णं समणस्स भगवत्रो महावीरस्स* श्रमण -दिनचर्या / श्रीवीरः श्रेयसे यस्य, चित्रं स्नेहदशात्यये / ____ सद्ध्यानदीपोऽदीपिष्ट, जलसङ्गमविप्लवात् // 1 // साधूनां दिनकृत्यं, षड्विधमावश्यकं च यतिगृहिणाम् / ___ अभिधास्ये सङ क्षेपात्, तत्रादौ दिवसकृत्यमिदम् / / 2 / / सर्वोऽपि साधुवर्गः, पश्चिमयामे निशोऽवबुद्धयत / समाष्टनमस्कारानुचरमाणोऽप्रमत्तमनाः // 3 // कायोत्सर्ग कुर्यादीर्यापथिकाप्रतिक्रमणपूर्वम् / कुस्वप्नदुःस्वप्नोद्भवजीववधादेविशुद्धयर्थम् // 4 // तत्रोद्योताँचतुरः, स्मरेनमस्कृतियुजोऽङ्गनाभोगे / शक्रस्तवं भणित्वा, वन्देत ज्येष्ठमुनिवर्गम् // 5 // कुर्वन्ति स्वाध्यायं, मन्दध्वनिनाऽथवा शुभध्यानम् / चिन्तयति वा तपोऽभिग्रहादि किमकारि कि नेति / / 6 / / प्राभातिके च काले, विधिनोपात्ते गुरौ प्रबुद्धे च / .. ग्लानादिके च कुर्यात् , सम्भूय तथा प्रतिक्रमणम् // 7 // पर्यन्ते तस्य यथा, प्रतिलिखिते चोपधौ रविरुदेति / ___न यथा च पापनीवा, जाग्रति गृहकोकिलप्रमुखाः // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारक कृति सन्दोहे अत्र क्रमात्प्रतिलिखेन् मुखपटधर्मध्वजो निषद्यावे / ___ पट्टः कल्पत्रितयं, संस्तरकोत्तरपटौ च दश / / 9 / / तत्र प्रमाणतः षोडशाङ गुला वदनवत्रिका कार्या / ___ निजनिजमुखमाना वा, ज्ञेयाऽऽदेशो द्वितीयोऽयम् // 10 // सम्पातिमसत्वरजोरेणूनां रक्षणाय मुखवस्त्रम् / वसतेः प्रमार्जनायां, मुखनासं तेन बध्नन्ति // 11 // द्वात्रिंशदङ गुलमितं, रजोहरणमस्य करमितिर्दण्डः / अष्टाङ गुला दशा अथ, निशीथसमये विशेषोऽयम् // 12 // मानं विंशतिरथवा, षड्विंशतिरङ गुलानि दण्डस्य / दशिकानां तु क्रमतो, द्वादश षट् चाङ गुलानि स्युः / / आदानत्वग्वर्त्तननिक्षेपस्थाननिषदनादिकृते / पूर्वप्रमार्जनार्थ, मुनिलिङ्गायेदमानेयम् / / 14 / / कम्बलमयी निषद्या, दशिकसमेता च सा रजोहरणम् / उपरि च तत्पडमाने, अधिक वा द्वे निषद्य स्तः // 15 // तत्रैका क्षौमीया, दशोज्झिता हस्तमानका प्रथमा / अपराऽपि हस्तमाना, पादप्रोच्छनमयी ज्ञेया // 16 // द्विगुणश्चतुर्गुणो वा, चतुरस्रः पट्टकः करप्रमितः / __स्थविरयुवश्रमणकृते, सूक्ष्मे स्थूलेऽपि च विभाषा // 17 // कल्पत्रयं निजाणायाम, सार्धकरयुग्मविस्तारि / तत्र द्वौ सूत्रमयावेकस्तूर्णामयो ज्ञेयः // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ अमय-दिनचर्या कल्पेन येन मिधा, चैत्यगमनं च ततस्तदन्यानि / __अर्याणि नैव कुर्याद् द्वो स्त्रमयो ततो मणितो / / 19 / / ध्यानार्थमनलसेवा-तृणग्रहणवारणार्थमुपकारि / / __ ग्लानाय कल्पग्रहणं, मृतस्य परिधापनार्थं च // 20 // ऊर्मामये च कल्पे, बहिष्कृते शीतरक्षणं भवति / यूका-पनकावश्यायरक्षणं भूषणत्यागः // 21 // साधों करोतु दैर्येऽष्टाविंशत्य गुलानि विस्तारे / , उत्तरपटसंस्तरको, विनोत्तरपटं तु दोषः स्यात् / / 22 / / साळ्याः पुनरुपकरणान्यवग्रहानन्तकं तथा पट्टः / अर्घोरुम्वरणिका, तदुपरि चान्तर्निवसनी स्यात् / / 23 / / पष्ठं बहिर्निवसनी, कञ्चुक उपकक्षिकाऽष्टमं कथितम् / __ वैकश्चिका च नवम, संघाटी स्कन्धकरणी च // 24 // तत्रावग्रहवसनं, नौसंस्थानं वराङ्गरक्षार्थम् / एकं प्रमाणतस्तद् , घनमसृणं देहमाश्रित्य / 25 / / पट्टोऽपि भवेदेको, भजनीयो निजशरीरमानेन / ' छादयति गुह्यवसनं, प्रतिबद्धो मल्लकक्षेव // 26 // अद्धारुकोऽपि ते द्वे, गृह्णानश्छादयेत्कटीदेशम् / .... जानुप्रमाण चरणिकाऽपि लसिकाया इवास्यूता // 27 // निजजवाद्वयसी लीनेतरान्तर्गता निवसनी स्यात् / .. बाया त्वात्मप्रमाणा, दवरकबद्धा कटीदेशे // 28 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारक कृति सन्दोहे अस्यूतः कञ्चुककः, स्तनौ यथाऽनुद्धत्तौ समावृणुते / - उपकक्षिका तु समचतुरस्रा सार्धकरमानैव // 29 / / वक्षोदेश पृष्ठ दक्षिणपाच स्थिता समावृत्य / वामस्कन्धे बीटकप्रतिबद्धा वामपाच // 30 // तद्विपरीता वैकक्षिकाऽपि वा कञ्चुकं च पिदधाति / संवाट्यस्तु चतस्रस्तत्र द्विकरा भवेद्वसतौ / / 31 / / हस्तत्रयायते द्वे एका भिक्षाकृतेऽपरोचारे / तुर्या तु निषण्णाऽऽच्छादनी सभायां चतुर्हस्ता / 32 // स्कन्धकरणी चतुष्करविस्तरदैर्ध्या चतुष्पुटीकृत्य / स्कन्धे ध्रियते प्रावरणस्यानिलघुवनरक्षार्थम् // 33 // कुडभोर्ध्वस्कन्धाधः पृष्ठ संवर्तिता वसनबद्धा / क्रियते कुब्जकरिण्यप्येषैव सुरूपसाध्वीनाम् // 34 // अर्धारुकाश्च कयोः पट्टऽपि च दरिकाश्चरणिकायाम् / पट चोपकक्षिकायां, सर्वेऽष्टाविंशतिर्दवरकाः स्युः / एतद्वन्धविशेषाश्चतुर्दशग्रन्थयोऽभिहिताः // 36 // आवश्यके व तुर्ये, विहिते तिमिरे रविप्रभोपहते / उत्कटिकासनसंस्थो, मौनी प्रेक्षेत मुखवसनम् // 37 // आभ्यन्तरिकी पूर्व प्रेक्ष्य निषद्यां प्रगे ततो वाद्याम् / अपराहणे विपरीत, प्रेक्षत रजोहरणदशिकाः // 38 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ जमण- निर्या दषा लघुपन्दनयुगमनमतिलेखना पसन्देश्य / / मनिनाक्षायो प्रतिलिख्यः परको नान्यत् // 39 / / सान्या तु यथासम्भवमवग्रहानन्तकादिकं प्रेक्ष्यम् / .. स्थाप्योऽथ नमस्कृत्य प्रतिलिख्य स्थापनाचार्यः // 40 // तदनु प्रेक्ष्य मुखपट दया लघुवन्दनद्वयं विधिना / सन्देश्यैन तयोरपरेण प्रतिलिखेदुपधिम् // 41 // उदिते सवितरि वसति, प्रमृज्य यत्नेन रेणु"पुजमथ / संशोध्य कीटकादिकमृतजन्तूंस्तत्र सङ ख्याय / / 42 / / सह गृह्य च षट्पदिकाश्च्छायायां पुञ्जकं परिष्ठाप्य / खेलादिकते कार्या, मलकभृतिन चोद्धृत्य // 43 // निक्षिप्त पुजादावीर्यापथिका यतिः प्रतिकामेत् / / यः संसक्ता वसति, प्रमार्जयेत् सोऽपि च तथैव // 44 // प्रातः प्रेक्षाद्वितये विहिते वसतिः प्रमृज्यते प्रकटम् / अङ्गप्रेक्षानन्तरमपराहणे मृज्यते वसतिः // 45 // दृष्टिप्रेक्षणपूर्व प्रमाजयेद्दण्डकाँश्च कुब्य'च। भूमिं च रजोहरणेनाभिग्रहिकस्तदितरो वा // 46 / प्रतिलेखनाऽत्र कथिता यत्किल दृष्टया निरीक्षण क्रियते / वसनरजोहरणाभ्यां, प्रमार्जनामाहुरहन्तः // 47 // * पटल। नबोभृत्य / P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ प्रागमोद्धारक कृति सन्दोहे संशोध्य च हस्तशतं, ज्ञात्वा प्रसवं च योषिदादीनाम् / अस्थ्यादि बहिः क्षिप्त्वा, वसतिं शुद्धां प्रवेदयति // 4aa कालग्राही तु मुनिः, प्रेक्ष्य मुखानन्तकं विनयकर्म / कृत्वा वसतिं शुद्धां, कालं च गुरोः प्रवेदयति // 49 // उपयुक्तः स्वाध्यायं, प्रस्थापयतेत्र वाचनाचार्यः। सिद्धान्तोदितविधिना, तदनुज्ञातस्ततः शिष्यः // 50 // शीततु चतुर्मास्यां, प्रेक्ष्य मुखानन्तकं गुरोः पुरतः / . सन्देश्य च कल्पं ह्रस्ववन्दनाभ्यां परिदधीत // 51 // दवाऽध्यापकपुरतो, वन्दनकं ह्रस्ववन्दनयुगेन / सन्देश्य वाचनामथ, सूत्रमधीयीत मण्डल्याम् // 52 // मण्डल्यः सप्त ताः, सप्वर्थे च भोजने काले / . आवश्यक तथैव, स्वाध्याये संस्तरेऽभिहिताः / / 531 साधुम्य उपाध्यायो, दत्ते सूत्रस्य वाचनां निपुणः / सिंहगिरेः शिष्येभ्यो, वज्रस्वामीव गणनाथः // 54 // कुर्वन्ति स्वाध्याय, गीतार्था यदुपयोगवेलायाम् / स हि दर्शितोऽधुना तैराचारः सूत्रपौरुष्याः // 55 // उपयोगः किल भक्तादिलब्ध्यनुज्ञा ततश्च भङ्गोऽस्य / .. पतितरजोहरणादावन्यजल्पति च किमपि सुनौ // 56 // गुरवे निवेदिते बहुप्रतिपूर्णा पौरुषीति लघुमुनिना। पादोनप्रहरे सति, पर्यन्तः स्त्रपौरुप्याः // 57 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ प्रमण-दिनचर्या स्त्रेऽनधीतिनां त्रगोचरः पौरुषी द्वितीयाऽपि / ___अपवादेऽर्थस्यैव, प्रथमाऽपि गृहीतस्त्राणाम् // 58 // अथ पादप्रोञ्छनकाऽऽसीना दवा क्षमाश्रमणमेकम् / / सर्वेऽपि साधवो मुखवसनमनुगुरु प्रतिलिखेयुः // 59 / प्रतिलेखनाक्षणोऽयं, साध्यो यत्नेन लग्नसमय इव / अस्मिन्काले स्फिटिते, प्रायश्चित्तं हि कल्याणं // 60 // आगन्तुकसम्मर्छजजन्तुपरिज्ञानहेतवे प्रथमम् / दृकर्णनासिकेनोपयोगमनुपात्रकं कुर्यात् / / 61 / / तिष्ठति किमिह भुजङ्गो, यत्प्रेक्ष्यत एवमिति विवदमानः / __अब किल कोऽपि शैक्षो, देवतया शिक्षयाच // 62 / / पूर्वभवविहितसम्यग्भावप्रतिलेखनामनुस्मृत्य / वल्कलचीरिकुमारो, जडोऽपि जातिस्मृति लेभे // 63 / / आज्ञा जैनीयमिति ज्ञात्वा सप्तविधपात्रनिर्योगम् / / मुखवमनवत्प्रतिलिखेत् पञ्चाधिकविंशतिस्थानः // 64 // पात्रे तानि द्वादश, बहिरन्तश्चककः करस्पर्शः।। पात्रकनियोगोऽयं, यतिसाव्योरेक एव स्यात् // 65 / / पात्रं पात्रकान्धः पात्रस्थापनकपात्रकेसरिके। पटलानि रजस्खाणं च, गोच्छकः पात्र निर्योगः // 66 // चत्वारिंशत्तलपरिधिनाडगुलानि प्रमाणमिह मध्यम् / पात्रंऽस्मादपि हीन, जपन्यमुत्कष्टमधिकं तु // 67 // P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारक कृति सन्दोहे यस्माद्भवन्ति जीवाः, केषुचिदन्नेषु पानकषु ततः। तेषां रक्षाहेतोः, पात्रग्रहणं जिनैरिष्टम् // 68 / पात्रकबन्धे मान, पात्रकमानेन भवति कर्तव्यम् / ग्रन्थौ यथाकते सति, भवन्ति चतुरङ गुलाः कोणाः / 69 पात्रप्रतिलेखिन्या, विज्ञेया षोडषाङ गुलानि मितिः / इदमेव मानमुक्तं, पात्रस्थापनकगोच्छकयोः // 7 // पट्विंशद्विस्तारे, पटलानामङ गुलानि दैर्ये तु / पष्टिरथवा प्रमाणं, स्वशरीरात् पात्रतो वाऽपि // 71 / / तानि कदलीदलाभान्यत्तममध्यमजघन्यतस्त्रीणि / प्राणिगणकरक्षार्थ, निदाघहेमन्तवर्षासुः // 72 // ग्रीष्मे स्युस्त्रिचतुष्पश्चस ख्यया तानि शीतकाले तु / चत्वारि पञ्च षट् चाथ, पञ्च षट् सप्त वर्षासु // 73 / / कामति मध्ये चतुरङ गुलं यथा पात्रकं प्रदक्षिणयत् / नावत् प्रमाणमुक्त', जिनै रजवाणमनुपात्रम् // 74 / / क्रोशयगाऽऽगतसाधोः, स्पादिभृतेन यावता तृप्तिः / तावन्मानं मात्रकमस्य च वर्षासु परिभोगः // 75 // पात्रकनियोगोऽयं, मात्रककल्पनये रजोहरणम् / मुखवसनपट्टकाविति, चतुर्दशोपकरणानि सुनेः // 76 / / एतानि विना पट्टकमवग्रहानन्तकादि इस्सङ ख्यम् / एक व कमठकमिति, तिनीनो पञ्चविंशतिया // 77|| P.P. Ac. Gunratnasuri MS in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण -दिनचर्या यष्टिर्षियष्टिदण्डौ, विदण्डको नालिका कटित्रं च / संस्तारकोत्तरपट्टावित्याद्यौपग्रहिक उपधिः // 78. / यष्टिर्निजदेहमितिस्तया यवनिका निबध्यते वसतौ। अङ गुलचतुष्टयेन, न्यूना यष्टवियष्टिः स्यात् / / 79 / / क्वाप्यज्ञातजलाश्रयमानादेः कारणाय घट्यत / ऋतुबद्धकालयोग्यो, दण्डः स्कन्धप्रमाणेन // 8 // वर्षासु वृष्टिसमये, कक्षामात्रो विदण्डको ग्राह्यः / स हि नीयते लघुत्वात् , कल्पान्तरितो जलमयेन // 81 / / ' अडगुलचतुष्टयेनाधिकप्रमाणा स्वदेहतो नाली / नद्यादिजलोत्तारे, तया तलं ज्ञायते पयसः / / 8 / / पर्वैकमत्र भव्यं, कलहाय व धनाय च त्रीणि / ___ मरणाय चतुष्पर्वी च पञ्चपर्वाऽध्यकुशलाय // 83 / / रोगकृते षट्पा, मान्योच्छेदाय सप्तपर्वा सा। अष्टचतुरङ गुला त्वन्तमूलयोर्मत्तगजजयिनी // 84 // सम्पच्छिदेऽष्टपर्वा यांसि यष्टिर्ददाति नवपर्वा / ऋद्धिकरी दशपर्वा, प्रवृद्धपर्वा विशेषेण // 85 // कुटिला कीटकनग्धा, दग्धा शुषिरा विचित्रवर्णा या। / सा यष्टिरूशुष्का च, वर्जनीया प्रयत्नेन // 86 // धनवर्धमानपर्वा, वर्णे स्निग्धा तथैकवर्णा या। . सा मसृणवृत्तपर्वा, यष्टियोंग्या यतिजनस्य / / 87 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे हस्तप्रमिति कटिन, चतुरस्र तत्पुनः प्रदीपनके / वृत्याद्य परि क्षिप्त्वा, सुखेन निष्क्रम्यते स्थानाद Ital तदनन्तरं प्रमृज्य, स्थानं न्यस्येन्निषद्ययोतियम् / / ___ एका योग्या सूरेरपराऽक्षाणां निवेशाय / 89 // सविधे विधाय मात्रकयुगं गुरोः खेलकायिकायोग्यम्। ___ वन्दनकं च विधायोत्सर्गः कार्योऽनुयोगार्थम् / / 90 // अनुयोगे प्रारब्धे प्रत्याख्यानं न दीयते यत्र / तवान्यस्य मुनीनां, वार्ताप्रमुखस्य का वार्ता ? 91 // आचार्याः सूत्रार्थ, प्रपश्चयन्ति द्वितीयपौरुष्याम् / _ विधिनाऽऽर्यरक्षिता इव, दुर्बलिकापुष्पमित्राय / / 92 // अनुयोगश्च चतुर्धा, तत्राद्यश्चरणकरणविषयः स्यात् / धर्मकथाया अपरो, द्वौ गणितद्रव्यविषयौ स्तः // 93 / स्युस्ते च कालिकश्रुतमृषिभाषितमूत्रमृषिभिरुपदिष्टम् / - सूर्यप्रज्ञप्तिश्रुतमनुक्रमाद् दृष्टिवादश्च // 94 // वाचयति यत्र सूत्रं, पाठयिता यत्र चार्थमाचार्यः / कथयति तत्र विदधते, कायोत्सर्ग रहो धीराः // 15 // वन्दनकदानपूर्वमनुयोगविसर्जनार्थमुत्सर्गम् / उच्छ्वासाष्टकमानं, कुर्यादन्तेऽर्थपौरुष्याः / / 96 // गत्वाऽथ जिनायतने, देवान् वन्देत जिनपतेः पुरतः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या गोचरचर्याकालो, यो यस्मिन् भवति तत्र साध्यः सः / कुर्यात् सूत्रार्थगते, पौरुप्यौ तदनुसारेण / / 98 // यामद्वयपर्यन्ते, देशाधनुरोधतोऽन्यदा वाऽपि / मुखवत्रिका प्रतिलिखेद्दद्यालघुवन्दनं चैकम् / / 99 / / गुरुमापृच्छय विहत्तुं, यामीति प्रेक्ष्य पात्रमादेयम् / ___उपयोगस्तु प्रातर्विहितो बालाघनुग्रहतः // 10 // आवश्यकी भणित्वा, भवोपयुक्त इति गुरुषवः श्रुत्वा / इच्छामीत्युक्त्वाऽथ, स्मर्तव्यो गौतममुनीन्द्रः / / 101 // वामा च दक्षिणा वा, नाडी यत्रानिलो वहति पूर्णः / पवनग्रहणं कुर्वन्, पुरतो विदधीत तत्पादम् // 102 / / वसतेर्निर्यन् भूमेरुत्क्षिप्य व्योम्नि दण्डकः कार्यः / ___ लन्धे प्रथमे पिण्डे, मुश्च दवनि ततो नार्वाक् / / 103 / / इत्येवं समिताऽऽत्माऽऽत्मना द्वितीयोऽशनादिकनिमित्तम् / गोचरचयां प्रविशेद् ऋजुगत्याद्यष्टवीथिभिः // 104 // ऋज्जी१ गत्वा प्रत्यागतिकार गोमूत्रिका३ पतङ्गाख्या४ / पेटा५ तथापेटा६ शम्बूकाअन्तर्बहिर्द्विविधा८ // 105 / / तत्राद्यायां वसते ऋजुगत्या याति भिक्षमाणः सन् / समपङक्तिचरमगेहाद्वलति तु भिक्षामगृणानः // 106 // यस्यां तु मिक्षयित्वा, गृहपङ क्तौ तनिवर्तमानः सन् / अटति द्वितीयपङ क्ती, गत्वा प्रत्यागतिः सा स्यात् 107 P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्वारककृतिसन्दोहे हस्तप्रमिति कटित्रं, चतुरस्त्रं तत्पुनः प्रदीपनके। __ वृत्त्याद्य परि क्षिप्त्वा, सुखेन निष्क्रम्यते स्थानात / / तदनन्तरं प्रमृज्य, स्थानं न्यस्येनिषद्ययोतियम् / . एका योग्या मरेरपराऽक्षाणां निवेशाय / 89|| सविधे विधाय मात्रकयुगं गुरोः खेलकायिकायोग्यम् / म वन्दनकं च विधायोत्सर्गः कार्योऽनुयोगार्थम् // 9 // अनुयोगे प्रारब्धे प्रत्याख्यानं न दीयते यत्र / तत्रान्यस्य मुनीनां, वार्ताप्रमुखस्य का वार्ता ? 191 / / आचार्याः सूत्रार्थ, प्रपञ्चयन्ति द्वितीयपौरुष्याम् / विधिनाऽऽर्यरक्षिता इव, दुर्बलिकापुष्पमित्राय // 12 // अनुयोगश्च चतुर्धा, तत्राद्यश्चरणकरणविषयः स्यात् / धर्मकथाया अपरो, द्वौ गणितद्रव्यविषयौ स्तः // 93 / स्युस्ते च कालिकश्रुतमृषिमाषितम्नमृषिभिरुपदिष्टम् / / सूर्यप्रज्ञप्तिश्रुतमनुक्रमाद् दृष्टिवादश्च // 94 // वाचयति यत्र सूत्रं, पाठयिता यत्र चार्थमाचार्यः। कथयति तत्र विदधते, कायोत्सर्ग रहो धीराः // 15 // वन्दनकदानपूर्वमनुयोगविसर्जनार्थमुत्सर्गम् / उच्छवासाष्टकमान, कुर्यादन्तेऽर्थपौरुष्याः / / 96 // गत्वाऽथ जिनायतने, देवान् वन्देत जिनपतेः पुरतः / / भूतेष्टाष्टम्योस्तु, स्तुत्याः सर्वे जिना मुनयः / / 97 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या गोचरचर्याकालो, यो यस्मिन् भवति तत्र साध्यः सः / कुर्यात् सूत्रार्थगते, पौरुष्यौ तदनुसारेण / / 98 // यामद्वयपर्यन्ते, देशाधनुरोधतोऽन्यदा वाऽपि / मुखवत्रिका प्रतिलिखेद्दद्यालघुवन्दनं चैकम् / / 99 / / गुरुमापृच्छय विहत्त, यामीति प्रेक्ष्य पात्रमादेयम् / ___ उपयोगस्तु प्रातर्विहितो बालाधनुग्रहतः // 10 // आवश्यकी भणित्वा, भवोपयुक्त इति गुरुवचः श्रुत्वा / इच्छामीत्युक्त्वाऽथ, स्मर्त्तव्यो गौतममुनीन्द्रः // 101 // वामा च दक्षिणा वा, नाडी यत्रानिलो वहति पूर्णः / - पवनग्रहणं कुर्वन्, पुरतो विदधीत तत्पादम् // 102 / / वसतेर्निर्यन् भूमेरुत्क्षिप्य व्योम्नि दण्डकः कार्यः। लन्धे प्रथमे पिण्डे, मुश्च दवनि ततो नार्वाक् / / 103 // इत्येवं समिताऽऽत्माऽऽत्मना द्वितीयोऽशनादिकनिमित्तम् / गोचरचर्या प्रविशेद् ऋजुगत्याद्यष्टवीथिभिः // 104 / / ऋज्वी१ गत्वा प्रत्यागतिकार गोमूत्रिका३ पतङ्गाख्या४ / पेटा५ तथार्षपेटा६ शम्बूकाअन्तर्बहिर्द्विविधा८ // 105 / / तत्राद्यायां वसते ऋजुगत्या याति भिक्षमाणः सन् / समपङक्तिचरमगेहावलति तु भिक्षामगृह्णानः // 106 // यस्यां तु मिक्षयित्वा, गृहपङक्तौ तनिवर्तमानः सन् / - अटति द्वितीयपङ क्ती, गत्वा प्रत्यागतिः सा स्यात् 107 P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ 12 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे वामादक्षिणगेहे, दक्षिणगेहाच भिक्षते वामम् / गोमूत्रिका मता सा, पतङ्गवीथिस्त्वनियता स्यात् // 1 मध्यं विना चतुर्दिक्षु भिक्षते यत्र सा भवेत् पेटा / द्विद्वयसम्बन्धिश्रेणिभिक्षणे त्वधेपेटा स्यात् // 109 / / अभ्यन्तरशम्बूका, यस्यां क्षेत्रस्य मध्यतो भिक्षाम् / भ्राम्यन् बहिर्विनिसरति, शङ्खवृत्तत्वगमनेन / / 110 // सा तु बहिः शम्बूका, यस्यां भिक्षा भ्रमन् बहिर्देशात् / क्षेत्रस्यान्तः प्रविशत्येवं वीथ्यो मता अष्टौ // 111 / / पिण्डः शय्या वस्त्र पात्र तुम्मादिकं चतुथं तु / __ नैवाकल्प्यं गृणीत, कल्पनीयं सदा ग्राह्यम् / 112 / / पिण्डषणां च पानकशय्यापात्र षणां न योऽधिजगे। तेनाऽऽनीतं मुनिना, न कल्पते भक्तपानादि // 113 // देशोनपूर्वकोटिं, विहरनिश्चितमुपोषितः साधुः / निर्दोषपिण्ड भोजी, ततो गवेष्यो विशुद्धोऽन्धः // 114|| नूनमचारित्री मुनिरशोधयन् पिण्ड-वसति-वस्त्रादि / .. चारित्रे पुनासति, प्रवज्या निष्फला भवति / / 115 / / पिण्डः शरीरमुक्तं, तस्योपष्टम्भहेतरिति पिण्डः। द्रव्यमपि समयरूढैरेकोऽनेकश्च स द्वधा / / 116 / / अशनाद्याश्चत्वारो, वस्त्र पात्रच कम्बलं सूची। क्षुरपादोञ्छनके, नखरदनी कर्णशोधनकम् // 117 // P.P.AC.GunratnasuriM.S LGUN Aagadhak Trust ed by CamScanner
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________________ श्रमण-विनचर्या शय्यातरपिण्डोऽयं, लिङ्गस्थस्योज्यतस्तददतो वा। चारित्रिणोऽप्पचारित्रिणोऽपि वज्या रसापणवत् / 118 प्राभातिकमावश्यकमन्यत्र विधीयते यदि सुविहितः / यदि जाग्रियते च तदा ग्राह्योऽयं द्वादशविधोऽपि / 119 / श्रीकृषभवीरवज्यं, जिनैर्विदेहोश्च लेशेन / अपि कर्म वरिमतं, पिण्डः सागरिकस्यायम् // 120 // * अशिवे रोगे च भये, निमन्त्रणे दुर्लभे तथा द्रव्ये / प्रद्वषे दुर्मिक्षेऽनुज्ञातं ग्रहणमप्यस्य // 121 // अस्थापि ग्राह्यमिदं, डगलकमलकतणानि रक्षादि / सोपधिशैक्षः शय्यासंस्तरको पीठलेपादि // 122 / / पादप्रोञ्छनमशनादिचतुष्कं वस्त्र कम्बलौ पात्रम् / __ इति नृपपिण्डोऽष्टविधो, वर्णः प्रथमान्त्यजिनसमये / / तस्य हि पिण्डो वयॊ यो राज्यं पञ्चभिः सह करोति / नृपतिकुमारामात्याः, सेनाधिपतिः पुराध्यक्षः // 124 // अत्र हि गवेषणायां, ग्रहणे ग्रासे विधैषणा भवति / द्वात्रिंशद्दश पञ्च च, दोषा आसां क्रमेण स्युः // 125 / / आधार्मिकमौशिकंर तथा पूतिकर्म३ मिश्र४ च। स्यात् स्थापना५ तथा प्राभृतिका६ प्रादुष्करणसज्ञः७ / / कीतमपमित्यसङ ज्ञः परिवर्तित१० ममिहत११ तथोद्भिवम्१२ मालापहत 13 च भवेदाच्छेद्याख्यो१४ ऽनिसृष्टश्च१५॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे स्वरूपमिदम् // 128 अध्यवपूरक१६ इत्युद्गगमाभिधाना भवन्त्यमी दोषाः / / षोडश गृहस्थविहिता एषां क्रमतः स्वरूपभिनय आधाऽशनादिकणिधान साधवे तया क्रियते। यत्पाकादि तदाधा-कर्माहारोऽपि तद्योगात् // 129 // आधाय मुनि प्रणिधाय क्रियते यत् सचेतनमवित्तम् / ____पाको यदचित्तस्य च, निरुक्तिवशतस्तथा तदपि // 130 / यद्वाऽधः कर्म मुनि नरकेऽधः संयमाञ्च कुरुते यत् / आत्मघ्नं वा तद् यत्, कर्मभुजो हन्ति चरणं स्वम् / 131 // स्पृष्टादिना प्रकृत्यादिना च साधुर्यदप्रशस्तानि / आत्मा कर्माण्यष्टौ, बध्नाति तदात्मकर्म स्यात् / 132 // विष्ठावमथुगवामिषसममिदमिति पात्रमपि युतं तेन / पूर्व करीपवृष्टं, कृतत्रि कल्पं च करप्यं स्याद् // 133 / / चरणोपघातकत्वादस्यास्ति मुनेन चौघतो ग्रहणम् / अपवादपदे त्वस्ति, द्रव्याचाश्रित्य यत उक्तम् // 134 // "संथरणमि असुद्धदहावि गिण्हंतर्दितयाणहियं / आउरविरतणं, तं व हियं असंथरणे" // 135 // उद्देशः साध्यादिप्रणिधान सत्प्रयोजनं तेन / मित कौशिकमोवेन विभागतो द्वधा / / 136 / कथिदनुभूतदुर्भिक्षानुभुक्षा प्राप्तकालसौख्यः सन् / साधारब्धे पाके, प्रचुरतस्तन्दलान क्षिप्ता 12 P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ / श्रमण-दिनचर्या कन्यपि मिक्षा दत्ते, पुण्यार्थ यावथिकेभ्यो यत् / - ओपेन स्वपस्पृथक् प्रविभवना भावरूपेण // 138 // ओधेन तदौदेशिकमथ वीवाहादिषद्धरितमन्नम् / पत् कल्पितं पृथग दातुमाभिहितं तद्विभागेन / / 139 / / उदिष्टं च कृतं कर्म, तत्रिधा तत्र कथितमुद्दिष्टम् / ___यत् स्वार्थसिद्धमशन, शेष दातु पृथगकल्पि / / 140 // तदभिदधे कृतसङ ज्ञकमुद्धरितं यत् सदोदनप्रमुखम् / भिक्षार्थिभ्यो दातु, कृतं करम्भादिरूपतया // 141 // मोदकचूर्णिप्रमुखं, शेषं यन्मोदकादिरूपतया / क्रियते पुनरपि गुडपाकदानमुख्येन तत्कर्म // 142 / / त्रिविधमपि प्रत्येकमिह विभागौद्द शिकं चतुर्भेदम् / ' उद्देशसमुद्दे शावादेशोऽपि च समादेशः // 143 / / क्रमतोऽपि यावदर्थिकपाखण्डिश्रमणवर्गनिम्रन्थान् / सङकल्प्य दानविषयानुद्देशाद्या अमी भेदाः // 144 // अस्मिन् द्वादशमेदेऽष्टासु स्वार्थकतमेव संस्क्रियते / पूर्वत्र तु साध्वर्थ, कृतमित्यनयोविशेषोऽयम् / 145 / अविशोधिकोटिभक्तायक्यवसम्पर्कतो विशुद्ध यत् / / पूतीभूतं भक्तं, क्रियते तत्सूतिकर्म स्याद् // 146 // प्रथमदिवसे तदाधाकर्म स्यात् साधवेऽध यत् क्रियते / कर्माशयुतं पात्रं, त्याज्यं दिवसत्रयं पूतः // 147 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust I by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे अशचिलवेनेवाधाकांशेनापि युक्तमशनादि / शुद्धमपि भवति पूति, त्याज्यं तस्मादिनत्रितयम् / 148 तद्द्व धैर्क सूक्ष्मं, या क्तं कर्म गन्धधूमाद्यः। . तददुष्ट स्थूलं स्यात्, द्विधोपकरणेऽशनादौ च // 149 / / तत्राधाकर्मवत्पात्राघु पकरणसंस्थितं प्रथमम् / तत्कल्प्यं यदि तेभ्यः, पृथककृतं स्वार्थतो गृहिणा / 150, पात्रान्तरे विनिहितं, कर्माशनपानलेशलिप्त यत् / तत्पूत्यशुद्धमथ पिठरकादिकल्पत्रये शुद्धम् // 15 // स्वार्थाय यावदर्थिकपाखण्डिकयतिकृते च मिश्रतया। यत्प्रथममुपस्क्रियते, त्रिविधं तन्मिश्रजातं स्यात् / 152 / स्थापना त्रिविधाऽऽधारकालद्रव्यविमेदतः। द्वौ द्वौ भेदौ मतौ तस्यास्त्रिविधाया अपि क्रमात् / 153 // साध्वर्थ स्वस्थाने, चुल्लीस्थाल्यादिकेऽपरे स्थाने / सुस्थितकपटलकादौ, यद् देयं स्थाप्यते वस्तु // 154 // साधारतोऽथकालात, यावद् द्रव्यस्थिति चिराद् ज्ञेया। अपरा स्वित्वरकालं, गृहत्रितयमन्तरा कल्प्या // 155 / / द्रव्यतया तु द्विविधा, क्षीरादिपरम्परा भवेदेका। अपरा वनन्तरस्थापना यदाऽल्पादिकं ध्रियते // 15 // स्वल्पारम्भा सूक्ष्मा, प्राभृतिका बादरा महारम्भा।। प्रत्येक चोपकणावष्णतया तथा दुधा॥१५७।। P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या अत्र मुनिदानसमये, परतो गर्भकादि भोजयति / कुरुते परतोऽर्धाग्या, लग्नं गुर्वागमनसमये // 158 / / प्रादुष्करणं द्विविधं, प्रकाशनं प्रकटनं यदशनादेः। साध्वयं छिद्रगवाक्षदीपमण्यादिभिः प्रथमम् // 159 / / प्रकटीकरणं त्वपरं, चुल्लयादेर्यस्य वा बहिष्करणम् / संतमसि गृहे यतीनां, चक्षुर्विषयं भवति येन / 160 // क्रीतं चतुर्विधं तत्रात्मधनक्रीतमिह परस्माद्यत् / - आवयं तीर्थशेषाद्यर्पणतो गृह्यते वस्तु // 161 / / आरं तदात्मभावक्रीतं परिगृह्यते यदाक्षिप्य / स्वयमेव धर्मकथनादिरूपभावेन भक्तादि // 162 / यद् गृहिणा साध्वर्थ, सचेतनाचित्तमिश्रभावेन / क्रीतं भक्तादि परद्रव्यकीत तृतीयं तत् / 163 / / तत्परभावक्रीतं, यन्मङ्खादिः परो मुनिनिमित्तम् / . आवयं जनं गृहणाति, निजकलारूपभावेन // 164 // आदाय यत्परस्मादुद्यतकं दीयते यतिजनाय, . - अपमित्यं तत्प्रामित्यं वा दोषस्त्वयं ज्ञेयः // 165 / स्थानद्विगुणिकया किल, कस्याश्चित्तैलकर्षमुद्यतकम् / / आनीय काऽपि मुनये, दवा निःस्वाऽऽप दासत्वम् / / परिवर्तितं यदाज्यादि द्रव्यं साधवे परावर्त्य / " तद्व्यान्यद्रव्यैर्दत्त दोषोत्र कलहादि // 167 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ed by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे स्वपरग्रामानीतं, यतयेऽभिहतं द्विधेह तत्रैकम् / अज्ञातमभिहृततया, प्रच्छन्नं प्रकटमितरस्तु / / 168 / / आचीणं त्वानीतं, हस्तशतान्तहत्रितयमध्ये / ___ तत्रैकस्मिन् भिक्षाग्राह्य पयुक्तो द्वयोरपरः / / 169 / / उद्भिन द्वधा स्यात्तव जतुच्छगणकादिपिहितं सत् / __उद्घाट्यते मुनिकृते, तत्पिहितोभिन्नमतिदुष्टम् / 170 तत्तु कपाटोनिन, यद्दत्तकपाटकेऽपवरकादौ / मुनिदानाय कपाटावुद्घाट्य गुडादिकं दत्ते // 171 // ऊर्ध्वाध उभयतिर्यग्देशे विषमे स्थितं तु भक्तादि। करदुर्ग्राह्य दत्ते, मालापहृतं चतुर्भेदम् // 172 / तत्रोचं शिक्यकगृहमालायधस्तु भूमिगृहमुख्यम् / ___ उभयं मञ्जूषा-कोष्ठकादि तिर्यग्गवाक्षादि // 173 // आच्छेद्य भृत्य१ कुटुम्ब२ सहचरेभ्य३ स्त्रिधा यदाच्छिद्य / ___दत्ते स्वामी राजा, प्रभुगृहेशश्च दस्युश्च // 174 // दिशति बहुस्वाधीनं, यदेक एवानिसृष्ठमाहुस्तत् / ___ तत्साधारणकोल्लगजभिदाभिस्त्रिधा तत्र // 17 // आनीय हङ्गेहादिस्थं साधारणं ददात्येकः / तिलकुट्टितेलवसनाशनादिकं तद्भवेदेकम् // 176 / / गोष्ठिकभक्तं चोल्लकमेकस्य प्रविशतो द्वितीयं तत् / जास्तु गनस्तभक्तमिभनृपादत्तमपरं स्यात् / / 1 P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या स्वार्थारब्धे पाकेऽधिकतरतन्दुलादि यत् क्षिपति / आश्रित्य यावदर्थिकयनिपाखण्डिकसमागमनम् / / 178 / / सोऽध्वपूरकदोषोऽमी दोषाः षोडशोद्गमाभिख्याः / पिण्डोत्पत्तिमिहोद्गममाहुस्तद्गोचरा एते // 179 // भेदैर्धात्रीत्वादिभिरुपार्जनं मूलशुद्धपिण्डस्य / ___ उत्पादनोच्यते तद्विषया दोषा यतिकृताः स्युः // 180' / धात्रीदतीनिमित्ता३ऽऽजीव ध्वनीपका५श्चिकित्सा६च / क्रोधोअथ मानविषयोटमायापिण्डश्च नवमः स्यात् / / लोभश्व१० पूर्वपश्चात्संस्तव 11 विद्य १२च मन्त्रचूर्णौ च१३-१४ / योगो १५ऽथ मूलकर्म च, षोडश दोषा इमे तत्र // 182 धात्रीपिण्डोऽसौ यल्लभते साधुविधाप्य कत्वा वा / बालस्य पयोमजनमण्डनरमणाङ्कधात्रीत्वम् / / 183 // यस्तु मिथः सन्देशं, कथयित्वा प्राप्यते निजे ग्रामे / मुनिनाऽन्य ग्रामे वा, दृतीपिण्डः स विज्ञेयः // 184 / दती त्वेका प्रकटा, प्रच्छन्नाऽन्या द्विधा द्वितीया स्यात् / लोकोत्तरविषयाऽऽद्या, द्वितीयसाधोरपि च्छन्ना // 185 / / या तु द्वितीयसांघाटिकसाधोरपि जनस्य च च्छमा / द्वतीयिका भवति सा लोकलोकोत्तरच्छन्ना // 186 // सुखदुःखादिकविषयेऽतीतादिनिमिचकथनतः साधुः। आवर्जितात् जनाद् यल्लभते स निमित्तपिण्डः स्यात् / / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे तत्तद्गुणमात्मानं, वदतो जातिकुलकर्मशिल्पतया / याऽऽजीविका मुनेत्र, पञ्चधाऽऽजीवपिण्डोऽसौ // 188 / श्रमणादिभक्तगृहिणां, पुरतस्तद्वर्णनादिना मुनिना / यो याच्यते स पिण्डोऽप्युक्तोऽत्र वनीपकत्वेन // 189 / / भैषज्यवैद्यसूचा, सूक्ष्मैकाऽन्या स्वयं भिषग्वचनम् / एतद्विधचिकित्सालन्धेः पिण्डोऽपि तद्र पः // 19 // शापादिक्रोधफलं, ज्ञात्वा यो दीयते भयाद् गृहिणा / मुनये तद्ध तुतया, क्रोधाभिख्यः स पिण्डोऽपि / 191 // एवं स मानपिण्डो, यस्मिन् गृहिणं तथा चटापयति / मुनिरभिमानेन यथा, दत्तेऽनिच्छत्यपि सुतादौ // 192 / / यत्परवञ्चनहेतोः, कत्वा रूपान्तरादिकं साधुः। / अर्जयति मोदकाद्य, मायाहेतुः स पिण्डः स्यात् / 193 / स तु भवति लोभपिण्डः गृद्धया यल्लभ्यते रसोपेतम् / यद्वा खण्डादिपयःप्रभृतिकसंयोजनाहेतोः // 194 // एषु च घृतपूरक्षपकसेविकाक्षुल्लको कषायेषु / ज्ञातान्यार्याषाढश्च सिंहकेसरमुनिः क्रमतः // 195 // द्वेधा संस्तव उक्तो, वचनात् सम्बन्धतश्च तत्रायः / गुणवर्णनरूपोऽन्यो, जननीस्वस्त्रादिकल्पनया // 196 / / एकैकोऽपि द्विविधः, पूर्व पश्चाच तत्र पूर्व सः। यत्पूर्वमेव देयेऽलब्धे गुणकीर्तनं क्रियते // 197 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या एतद्विपरीतोऽन्योऽथ पूर्वसमन्धिसंस्तवस्त्वेवम् / यन्मात्रादेः कल्पनमितरः श्वश्वादिकल्पनया // 198 / / विद्या जपादिसाध्या, प्रज्ञप्तिप्रमुखदेव्यधिष्ठाना / अक्षररूपा तस्याः, प्रयोगतो भवति तत्पिण्डः // 199 / / एवंभूतो मन्त्रोऽप्यधिष्ठितः पुरुषरूपदेवतया / सिद्धश्च पठनमात्रात्तदर्जितो मन्त्रपिण्डः स्यात् // 200 / / * नयनाञ्जनादिरन्तर्धानादिफलो निगद्यते चूर्णः / __ सौभाग्यादिविधायी, योगः पादप्रलेपादिः // 201 / / एतद्व्यापारणतः, सम्प्राप्तौ योगचूर्णपिण्डौ स्तः / बहिरुपयोगी चूर्णो, योगो बहिरन्तरुपयोगी // 202 / / मूलमित्र संसृतितरोः, कर्म तु सावद्ययोगकरणं चे / गोधानस्तम्भनपाताधमूलकम स्यात् // 203 // तत्करणेन प्राप्तः, पिण्डोऽप्येवमिति दोषषोडशकम् / इत्थं गवेषणायां, द्वात्रिंशन्मीलिताः सर्वे // 204 // अथ शङ्किताख्यदोषो, मेक्षित-निक्षिप्त-पिहितदीपाश्च / संहृत-दायकदोषावुन्मिश्रोऽपरिणतो लिप्तः // 205 / / छदित इति दश दोषास्तत्राहारादि दीयमानं यत् / ___दृष्ट्वा प्रचुरं शङ्कितमाधाकर्मादिदुष्टतया // 206 // . ग्रहणेऽपि शङ्कितो भोजनेऽपि चेत्यादिभङ्गकचतुष्कम् / . यच्छङ्कते तमाप्नोति त्रिषु चरमस्तु शुद्धः स्यात् / / 207 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे द्वधा मेक्षितमुक्तं, सचित्ततोऽचित्ततः तत्राद्यम् / मात्रकारादि भूजलवनस्पतिम्रक्षितं त्रिविधम् // 20 // द्वधाऽचित्तम्रक्षितमेकं कल्प्यं घृतादिसंसक्तम् / अपरं तु लोकनिन्दितवसादिना प्रक्षितमकरप्यम् / 200 चिद्र पकायपट्कान्यतरोपरि संस्थितं तु निक्षिप्तम् / . षड्विधमपि तदनन्तरपरम्पराभ्यां द्विमेदं स्यात् / / 210 तत्र सचित्ताद्य(व्य)वधानस्थितमशनाद्यनन्तरं ज्ञेयम् / ___यत्तु सचित्तोपरि पिठरकादिनिक्षिप्तमितरस्तत् // 211 // यदनन्तरनिक्षिप्तं, यतिनां तत्वल्पनीयमेव(न) स्यात् / यी संघट्टादि त्यजतां, यतनया ग्राह्यमप्यपरम् / / 212 / एवं पिहितमपि सचित्त-कायषटकेन षडविधं स्थगितम् / नवरमचित्तस्थगिते मङ्गचतुष्कं त्रिदं ज्ञेयम् / / 213|| गुरुकं पिहितं गुरुकेण. गुरु लघुफेन लघु च गुरुकेण / लघुकं लघुकेनेषु, द्वितीयतुर्यों न दुष्टौ स्तः // 214 / / क्षिप्त्वाऽन्यत्रायोग्य, मात्रादेयं ददाति तेन यदि। तसंहृतं सचित्त, क्षिपति सचित्तं चतुर्भङ्गो // 215 // तुर्यो मङ्गः शुद्धः, सचित्तसट्टनादिरहितत्वात् / इह पूर्वत्रानन्तरपरम्परविकल्पना कार्या // 216 // दायकदोषयुत तद्, यहाता भवति वालको युद्धः।। वरितो नपुंसकोऽन्धः, प्रकम्प्यमानालको मत्तः।२१७॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M. GUR Aagadhak Trust ed by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या उन्मत्तश्छिन्नकरो, बद्धश्छिन्नांहिपादुकारूढौ / विगलत्कुष्ठो व्यालोडकश्च षट्कायवधकारी / / 218 / / कर्तक-लोढक-वींषक-विरोलका मर्जकश्च भुजानः / कण्डक-पेषक-दलकाः, षटकायविघट्टकचापि / / 219 / / सापाया शिशुवत्सा, परकीयपदार्थदायिका गु: / इत्यादिदायकानां, ददतामोघेन न ग्राह्यम् / / 220 // करमन्दकादिनाऽचेतनेन (सचित्तेन) यत्पूरणादिकमवित्तम् / मिलितं ददाति भक्त्याऽनुपयोगेन च तदुन्मिश्रम् / 221 // अपरिणतं तु द्रव्यं, भावो वा तत्र तद् द्विधा द्रव्यम् / दाग्राहकसत्तास्थितं यदप्रासुकीभूतम् / / 222 / / भावोऽप्येवं द्वधा, देये साधारणे यदेकस्य / दित्सा नैवान्येषां, दायकभावापरिणतं तत् / 224 / / शुद्धमिदमिति यदेकस्य, न द्वितीयस्य परिणतं भवति / भिक्षामटतोः साध्वोहिकमावापरिणतं तत् // 225 / / अत्र च शुद्धा विषमा, भङ्गाश्चत्वार एव यत्तत्र / पश्चात्कर्म न सम्भवति, सावशेषाशनग्रहणात् / / 226 / / छर्दितमुक्तं त्यक्त, तत्र च मधुपिन्दुपतनदृष्टान्तात् / परिशाटिसम्भवे सम्पतन्ति काकादयो जीवाः // 227||. इत्यभयकृता एते, दशापि दोषाः समासतो भणिताः। एवं स्थिते द्विचत्वारिंशद्रोषा मताः सर्वे / 228 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. GUR Aagadhak Trust led by CamScanner
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________________ 24 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे आधाकर्म विभागोदे शिककर्मान्तिमास्त्रया भेदाः / अथ पूतिकर्ममिश्र, प्राभृतिका बादरा या च // 229 / / अध्वपूरक एतेऽष्टावप्यविशोधिकोटिरस्यार्थः / एतत्कोटिरवयवस्तन्मित्रं शुद्धमपि पूति // 230 // न क्रोणाति न पचति च, न हन्ति न च कारणादनुमतेश्व। पिण्डैषणात्र सर्वा, नवकोटिष्याशु समवैति // 231 / कोणगबेलिचतुष्कं, द्वे गुरुवेल्यौ च पृष्टवंशश्च / सप्तभिरेभिः स्वार्थकतेर्वमतिमूलगुणशुद्धा // 232 // उत्तरगुग द्विभेदास्तत्रैके सप्तमूलपूर्वपदाः। __ अपरे विशोधिकोटी, स्युरुत्तरोत्तरगुणा अष्टौ // 233 // बेल्योस्तिर्यगुपरिगतवंशा आच्छादनं च पाश्र्वाणाम् / बन्धश्च कम्बिकानां दर्भाद्याच्छादन चोर्धम् / / 234 / / कुड्यानां लेपो द्वारविधानं भूमिकासमीकरणम्। सप्तभिरात्मार्थकृतैः, शुद्धा मूलोत्तरगुणैः स्यात् / / 235 / / उद्योतिता धवलिता, सम्मृष्टा वासिता कृतवलिश्च / ___सिक्ता लिसा धूपायितेति सा शुद्ध कोटी स्यात् / / 236 / एवं च दोषरहिता, स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसतिम्। ___ सेवेत सर्वकालं, विपर्यये दोषसम्भूतिः // 237 / / संस्थाप्य ग्रामादिषु, वृषभ दीधींकवानिमैकपदम् / अधिनामकटिनिविष्टं, पूर्वपखं वसतिरादेया // 238 // P.P.AC.GunratnasuriM.S Gun Aaradhak. Trust by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या 1530 श्रृङ्गस्थाने कलहः, स्थानं चरणेषु न भवति यतीनाम् / उदररुजाऽधिष्ठाने, पुच्छे तु स्फेटनं विद्धि // 239 / / मौलो ककुदे पूजासत्कारावानने प्रभूतान्नम् / | उदरे धाणिः स्कन्धे, पृष्ठे च भरः क्षमो भवति // 240 / यत्र मुनिकृते क्रीतं, न वायितं यत्परस्य न गृहीतम् / प्रामित्यमभिहृतं च, त्यक्त्वा वस्त्रं मुनेरहम् / / 241 // वस्त्रे च खञ्जनाञ्जनकर्दमलिप्त विकुट्टिते जीर्णे / मूषकजग्धे दग्धे, जानीहि शुभाशुभं भागैः // 242 / / कृतनवभागे वस्त्रे, चत्वारः कोणकास्तदन्तौ द्वौ / __ तत्कर्णपट्टिके द्वे, मध्ये वनं (वस्त्रं) भवेदेकः / 243 // चत्वारः सुरभागास्तेषु भवेदुत्तमो मुनेर्लाभः / द्वौ भागौ मानुष्यो, भवति तयोर्मध्यमा लब्धिः // 244 / द्वावसुरौ च भागौ, ग्लानत्वं स्याद्यतस्तदुपभोगे। | मध्यो राक्षससङ ज्ञस्तस्मिन्मृत्यु विजानीहि // 245 / / मूल्यमनगारवस्त्रस्याष्टादश रूपका जघन्येन / / उत्कर्षेण तु रूपकलक्षं स्यान्मध्यमं शेषम् // 246 // तुम्ममयं दारुमयं, पात्रं मृत्स्नामयं च गृहणीयात् / यदकल्प्यं कांस्यमयं, ताम्रादिमयं च तत्याज्यम् // 247), वर्णाढ्य ज्ञानं सुप्रतिष्ठिते पात्रके प्रतिष्ठा स्यात् / व्रणरहिते कीर्तिःकल्यता मता संस्थिते लाभः / 248 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे हुण्डे चरित्रभेदः, शबले मतिविभ्रमो भवेत्पात्रे / ____ अन्तर्बहिश्च दग्धे, मृत्यु तस्मिन् विजानीहि // 249 // पयोत्पले त्वकुशलं, व्रणं पुनः सव्रणे विनिर्देश्यम् / __ स्थानं न गणे चरणे, चतुष्पदे स्थाणुसंस्थाने // 250 // सौवीरमम्लकणधावने तथोष्णोदकं च गृहणीयात् / वर्णादिभिः परिणत, प्रासुकनीरं च तदभावे // 251 / / उष्णोदकं त्रिदण्डोत्कलितं पानाय कल्पते यतिनाम् / ग्लानादिकारणमृते, यामत्रितयोपरि न धार्यम् // 252 // तद्धि प्रहरत्रितयाचं वर्षासु चेतनीभवति / शिशिरे यामचतुष्कात्पश्चप्रहरोपरि ग्रीष्मे / / 253 // संसृष्टाऽसंसृष्टोद्धृताऽल्पलेपा तथोद्गृहीता च / प्रगृहीतोज्झितधर्मा चैताः पिण्डैषणाः सप्त // 254 // तत्र खरण्टितमात्रकहस्ताभ्यां भवति भङ्गकचतष्कम् / तस्मिन् भङ्गषु त्रिषु, संसृष्टाऽन्या त्वसंसृष्टा // 255 / / भोजनजाते गृहिणोद्धृते स्वयोगेन तूद्धृता भिक्षा / निर्लेपवल्लचणकादिकदानादल्पलेपा स्यात् // 256 / / भोजनकाले निहिता, शरावमुख्येषु सोद्गृहीता स्यात् / प्रगृहीता यदशितु प्रदातुमथवा करे कुरुते // 257 / / यन द्विपदप्रमुखाः, काउ क्षन्त्यथवा भवेत् परित्याज्यम् / अर्धत्यक्तं यदि वा, सोज्ज्ञितधर्मा भवेद् भिक्षा // 258 // भवति भजन भोजन मन भङ्ग P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या निचयो. पिण्डेषणावदेवं, या पानपणाऽपि सप्तविधा / केवलमिहाल्पलेया, सौवीराचाम्लकप्रमुखा // 259 / / आदाय मधुपवृत्त्या, पिण्डं वसतो प्रविश्य गुरुपुरतः / नपेधिकीति जल्पनीयोपथिकी प्रतिक्रामेत् // 260 // कायोत्मर्गे मिक्षाऽतिवारजातं विभाव्य निश्शेषम् / गमनागमने आलोचयेत्तथा भक्तपानादि // 261 // तदनु दुरालोचितभक्तपानशोषननिमित्तमुच्चार्य / गोचरचर्यादण्डकमुत्सर्गे चिन्तयेदेवम् / / 262 // 'अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया / मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा / / 263 / / (द.अ.५) उद्योतपठनपूर्व, प्रत्याख्यानस्य पारणं कुर्यात् / तदनु रजोहरणेन, प्रमाजयेन् मोलिभालतलम् // 264 // मुस्ते पात्रेऽपरथा स्वेदः संपातिमादि वा पति / प्रेक्ष्य भुवं मण्डल्या, पात्रं मुक्त्वा स्तुयाद्देवम् / / 265 // कुर्याजघन्यतोऽपि, स्वाध्यायं श्लोकषोडशकमानम् / विश्राम्येत क्षणमथ, देहे तप्तेऽन्यथा रोगः // 266 // बाहुमुनिमलदेवक्षत्रियघृतवस्त्रमित्राणाम् / चरिवानि मनसि कृत्वा, विदधीत च्छन्दना यतिनाम् / / बालग्लानादीनां, कुर्वीत च्छन्दनां विशेषेण / प्रतिलिख्य वदनमाननपटेन लघुवन्दनं दद्यात् // 268 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ 28 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे पात्रं प्रतिगृह्णामीत्येवं मुनिकुञ्जरं समापृच्छय / उच्चार्य नमस्कारं, प्रकाशदेशस्थितोऽश्नाति // 269|| संयोजनाप्रमाणाङ्गारा धूमश्च हेतवः षट् षट् / / इति पञ्चविधा ग्रासैषणा मता भोजने तत्र / 270 // संयोजनोपकरणेऽन्नपानयोगश्च क्रमेण पहिरन्तः / द्वात्रिंशत् कवलाधिकभुक्तावधिक प्रमाणं स्यात् / 271 / कवलानां मानमिदं, यो द्वात्रिंशत्तमो भवेद्भागः / निजकाहारस्य तथा, यो वाऽविकृते मुखे विशति / 272 / रागेण सरसमास्वादयतश्चारित्रमत्र साङ्गारम् / भुञानस्यानिष्टं, द्वषेण सधूमकं भवति // 273 / संयमवृद्धये वैयावृत्त्यर्थ वेदनाधिसहनाय / ईर्याशुद्धयर्थं प्राणवृत्तये धर्मचिन्तायै / / 274|| इति हेतुषटकतोऽद्यान्न चापि भुञ्जीत हेतुभिः पड्मिः / - रोगोपशमनिमित्तं, राजाद्य पसर्गरक्षार्थम् / / 275 / / तुर्यव्रतरक्षायै वर्षासु जन्तुपालनकृते च। तपसे सन्न्यासादौ, तनुव्यवच्छेदनार्थ च // 276 / / प्रथमप्रहरातीतं, यतिनामशनादि कल्पते भोक्तुम् / आयामत्रयमुपरि तु कालातिक्रान्तता नस्य // 277|| तापक्षेत्राभावे, यदात्तमशनाद्यनुद्गते तरणौ।' तद्धि क्षेत्रातीतं, न युज्यते जेमितु यतिनाम् / / 278 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या कोशद्वितयादर्वागानेतु कल्पतेऽशनप्रभृति / / ____तत्परतोऽप्यानीतं, मार्गातीतमिति परिहार्यम् // 279 / / द्वात्रिंशवाष्टाविंशतिश्च कवलाः प्रमाणमाहारः / __ तदतिक्रमे प्रमाणातीतं साधोतिन्याश्च / 280 // भक्तमशुद्ध कारणजातेनात्तमपि भोजनावसरे / त्यजति यदि तदा शुद्धो, भुञ्जानो लिप्यते नियतम् / 281 अर्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य देहे जलस्य चांशी द्वौ / न्यूनं षष्ठं भागं कुर्यादनिलानिरोधार्थम् // 282 / / भुङ क्ते स्वादमगृह्णन्न लम्बितमद्रुतं विशब्दं च / केसरिभक्षितदृष्टान्ततः कटप्रतरगत्या वा // 283 // जम्बुककाकोपमया यो भुक्त्वा भक्तमविधिनाऽन्यस्मै / दत्ते यो गृह्णाति वमनादि स्यात्तयोर्दोषः // 284 / / आवश्यकेऽपि भणितं द्वावप्येतौ गणाद् बहिः कार्यो / अपुनःकरणतयाऽभ्युत्थिते तपः पञ्चकल्याणम् / / 285 / / भुक्ते द्विदले निर्लेप्य, मुखं कर पात्रकं च दध्यादि / पात्रान्तरेण वाऽश्नाति भोज्यमादौ सदा मधुरम् / 286 / / परिशाटिरहितमभ्यवहरेत्तथा सर्वमन्त्रमरसमपि / ' न ज्ञायते यथा भोजनप्रदेशस्तदितरो वा // 287 / / पात्राणां प्रक्षालनसलिलं प्रथमं पिबति नियमेन / - संशोध्याऽऽस्यं प्रक्षालयन्ति पात्राणि बहिरेत्य // 288 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner Trust
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे सूरेः पात्रं प्रथमं भिन्न प्रक्षाल्य शेषपात्रेषु / पूर्वं यथा विशुद्ध कल्पो देयस्ततोऽन्येषाम् / 289 // उद्धरितं यदि कथमपि, तत्तु परिष्ठापयन्ति विधिनैव / - निपुणाः शैक्षा अतथाकरणे चोड्डाहमुखदोषाः // 290 / / निर्जन्तुस्थण्डिलगमनपूर्वकं रक्षया समाक्रम्य / ___ व्युत्सृष्टं त्रिविधेनेत्येवं विश्रावणं कार्यम् / / 291 / व्रणलेपाक्षोपाङ्गम्रक्षणवत् प्राणधारणामात्रम् / . भुक्त्वा देयं लघुवन्दनं ततः कल्पतेपादि / / 292 / / कुर्वीतेर्यापथिकीप्रतिक्रमण-चैत्यवन्दने तदनु / म चितिकर्मदानपूर्व, प्रत्याख्यानं विधातव्यम् / / 293 // संशोध्य पात्रबन्धनं, पात्रं निर्माज्य तेन बद्ध्वा च / ___ संस्थाप्येच्च विधिना यावत्प्रतिलेखनासमयः // 294 // पटलानि पात्रवन्धोऽथवापि कल्पः प्रमादयोगेन / कथमपि खरण्टितः स्याद्विधिना प्रक्षालयेत्तानि // 295|| प्रथमं निर्माज्यन्ते चीवरखण्डेन सर्वपात्राणि / तन्नित्यं प्रक्षाल्यं कुत्सादिदोषघातार्थम् / / 296 / / उच्चाराय यतिजनो जिगमिपुरेकं मुनि विसुश्चेत / वसतौ परं युवैको बालो वृद्धश्च न विमोच्यः / 297 // आवश्यकी भणित्वाऽत्वरमाणो युगलितो रहितविकथः / - जलमात्रकं गृहीत्वा स बहि वि याति समितात्मा / 298 P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ श्रमण-दिनचर्या पूज्ये उत्तरपूर्वे निशाचरेभ्यो भयं च याम्यायाम् / सुक्त्वा दिशा त्रयमिदं स्थाण्डलभूप्रेक्षणं कुर्यात् / / 299 / / अनापातमसंलोकं परस्यानोपघातिकम् / समं चाझुषिरं चैवाचिरकालकृतं च यत् // 30 // विस्तीर्ण दरावगाढमनासन बिलोज्झितम् / प्राणवीजत्रसत्यक्तं स्थाण्डिलं दशधा मतम् // 301 / / स्थण्डिलभुवां चतुर्विंशतिः सहस्राणि भङ्गका एषाम् / ते त्वेकशुद्धभङ्गकसहिताः परिपूर्णतां यान्ति // 302 // उभयमुखे दू राशी तत्रायो यः स आद्यसंयोगः। 5. स च संयोगो भक्तोऽधस्त्याकानन्तरेण ततः // 303 / / लब्धे भागहाराकोर्ध्वगताङ्कहते भवेदिहाङ्को यः / (स पुन द्वतीयी कः संयोगः) दशसंयुक्ता द्विशती शतद्वयी सद्विपञ्चाशत् / 304 / द्विशती दशभियुक्ताऽष्टकसंयोगे शतं सविंशतिकम् / (1) चत्वारिंशत्पश्चाधिका दशैकश्व संयोगः // 305 // एको दशपदशुद्धो द्वितीयको भङ्गः (1) / 10 45 120 210 252 210 120 45 10 1 1023 देशविशुद्धाः शेषा, भङ्गसहस्रश्चतुर्विशः // 306 // स्थण्डिलमुवामभावे कुर्वीतोचारकायिकादीनि / स्मृत्याऽऽधारद्रव्यं, धर्माधर्मास्तिकायादि // 307 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust led by CamScanner
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________________ आगमोद्वारककृतिसन्दोहे नत्रोपविश्य निलेपनाय गृहणाति लेष्टुशकलानि / प्रस्फोटयन्ति च यत्नान जायते येन जन्तुवधः // 308 तत्र स्थाने पश्येवं सागारिकं द्रुमादिस्थम् / गत्वा दरीगतमथो, गमनादि विधायिनं तिर्यक // 30 // कृत्वा स्थण्डिलभूमेः संदंशकयोश्च यत्नतः प्रेक्षाम् / तहवतामनुब्रापयेदितरथा छलादि स्यात् / / 310 // उत्तरमुखो यदि दिवा, भृत्वा दक्षिणमुखो निशायां तु / लघुवन्दनेन निगदति, तनुसङनां व्युत्सृजामीति 311 दक्षिणहस्ते मात्रकमुपकरणं वामजानुनि न्यस्य / वामगर्लेष्टुमिरुचारं व्यत्सृजेत् साधुः // 312 / / सूर्यपुरयोन देयं, पृष्ठं यस्मादवर्णवादः स्यात् / पवने पृष्ठगतेऽशासि म्यर्घाणस्य बिडगन्धात् // 313 // वर्धिष्णुच्छायायां, संसक्तपुरीपमुन्मृजेत्साधुः / तदभावे तूष्णेऽपि, व्युत्सृज्य मुहूर्तकं तिष्ठेत् // 314 / / नस्मिन्नन्यम्मिन्वा, देशे पुतमनं विधायाथ / लघुवन्दनेन निगदति, कुर्वे निर्लेपनादीनि // 315 // निर्लेपनां प्रकुर्यादुड्डाहमयाददूरदेशस्थः / प्रासुकपयसस्तिमृभिः प्रसूतिभिरथ लेपकृत्यं च।३१६।। यदि पश्यन्ति गृहस्याः प्रत्येकं मात्रकाण्युपादाय / आचामेयुमुनयस्तदा सशब्दं प्रचुरपयमा 1.317 / / दाक्षिणादनेन निगदति, दक्षिणमुखी निश P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ - श्रमण -दिनचर्या त्रिविधेन कायसञ्जा, व्युत्सृष्टेति त्रिवेलमुच्चार्य / ___भिक्षामटन्ति ये तैर्दण्डप्रक्षालनं कार्यम् // 318 // मार्गमपि श्रमणीनां, परिहरमाणोऽप्रमद्वरो मौनी / समितात्मा मुनिवर्गः, प्रतिश्रयं प्रतिनिवर्तेत // 319 // तदनु प्रविशन् वसतो, कुरुते नैषेधिकीं बृहच्छन्दम् / वदति च 'नमो खमासमणाण' मिति विनीतविनयः सन् / / लघुरादाय यतीनां, दण्डान्मुञ्चेत प्रमृज्य भिच्यादि / / कमयोः प्रमार्जनीय, रजोहरणस्य दशिकाभिः / / 321 / अनुगुर्वीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकं गुरोः पुरतः। गमनागमने आलोच्य, स्वाध्यायं च प्रकुर्वन्ति / / 322 / / संयमयोगे निहिते, यावद्योगान्तरस्य समयो न / तावत्सर्वत्र मुनिः कुर्यात्स्वाध्यायविधिमेव // 323 / / पूर्ण तृतीययामं, ज्ञात्वा छायानुमानतः साधुः / गुरवे कथयति यदनुप्रेक्षासमयोऽधुना पूज्याः ! // 324 // प्रथमं पूरिः पश्चात्साधुर्दत्वा क्षमाश्रमणमेकम् / प्रतिलेखनां करोमीति, बदति दचा द्वितीयं तु // 325 // वसति प्रमार्जयामीति, भाषतेऽथाऽऽस्यवस्त्रिका प्रेक्ष्य / / / त्यक्तक्रियान्तरः सन् , लघुवन्दनकद्वयं दद्यात् // 326 // तत्रैकेन शरीरप्रेक्षा लघुवन्दनेन सन्दिश्य / अन्येनाङ्गप्रतिलेखनां करामीति भाषेत / 327 // P.P. Ac. Gunratnasuri Aaradhak Trust amScanner
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________________ भागमोबारककृतिसन्दोहे उपवासिनाखिलोपधिपर्यन्ते चोलपट्टकः प्रेक्ष्यः / अन्यैस्तु स प्रथममेव सर्वे पश्चादरजोहरणम् // 328 // वसतिं प्रमृज्य तदनु, प्रतिलिख्य स्थापनागुरुः स्थाप्यः / एक लघुवन्दनकं, दत्चा प्रेक्षेत मुखवसनम् / / 329 // तदनु लघुवन्दनेन, स्वाध्यायं मुनिजनः प्रकुर्वीत / यः सूत्रार्थग्राही, स्वाध्यायस्तस्य तु स एव // 330 // तत उपधिस्थण्डिलयोः, प्रेक्षार्थं स्यात् क्षमाश्रमणयुगलम् / तत्रैकं मन्देशेऽन्यस्तु प्रतिलेखनायां स्यात् // 331 // प्रातःसमये प्रेक्ष्यो, दशधोपधिरेव नैव पात्राणि / . यस्मात्प्रेक्षाऽवसरस्तेषामुद्घाटपौरुष्याम् // 332 // पश्चिमयामे तूपधि पात्राद्य प्रतिलिखेत्समस्तमपि / अथ पात्रकनिर्योग, सप्तविधं प्रेक्ष्य निक्षिपति // 333 / / प्रेक्षां कुर्वन् प्रत्याख्यानं, दत्ते यदि प्रमत्तो वा। वाचयति पठति च तथा, पटकायविराधको भवति // 334 औधिकमौपग्रहिकं विधिना प्रतिलिख्य सर्वमुपकरणम् / . अथ पुनरपि स्वार्थग्रहणं विदधाति मुनिवर्गः // 335 / / पश्चिमपटिकाद्वितये, कालं प्राभातिकं प्रतिक्रम्य / / ___ अथ सप्तविंशतिविधान्, प्रेक्षेत स्थण्डिलोद शान् // 336 / अधिसहमानस्यासन-मध्य-रे त्रयः स्परन्तस्ते / एवमनधिसहमानस्याप्येवं षट् बहिः षट् च // 337|| P.P.AC.Gunratnasuri M.S un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ * श्रमण-दिना इत्यच्चारे द्वादश भवन्ति ते द्वादशैव नृजलेऽपि (प्रश्रवणे)। __स्यादेव चतुर्विंशतिस्त्रयः पुनः कालमाश्रित्य / / 338 / / स्थण्डिलदेशप्रेक्षा, कृत्वाऽशनपानके परिष्ठाप्य / विस्मृतमम्बरवसतिप्रमुखं प्रतिलेखयेत्किञ्चित् // 339 / / एक लघुवन्दनकं गोचरचर्याप्रतिक्रमण वेषयम् / दत्त्वा ततो द्वितीयेन, तेन कुर्यादिहोत्सर्गम् / / 340 // अर्धनिमग्ने बिम्बे, भानोः सूत्रं भणन्ति गीतार्थाः / इतिवचनप्रामाण्यावसिकावश्यके कालः // 341 / / अथवाऽप्येतन्निाघाते मुनयस्तथा प्रकुवीरन् / - आवश्यके कृते सति, यथा प्रदर्येत तारकात्रितयम् / 342 धर्मकथादिव्यग्रे, गुरौ तु मुनयः स्थिता यथास्थानम् / सूत्रार्थस्मरणपराश्चापृच्छय गुरु प्रतीक्षन्ते // 343 // आवश्यकं विदधते, पूर्वमुखास्तेऽथवोत्तराभिमुखाः / श्रीवत्साकारस्थापनां समाश्रित्य तिष्ठन्तः // 344 // आचार्या इह पुरतो, द्वौ पश्चात्तदनु त्रयस्तस्मात् / द्वौ तत्पश्चादेको, रचनेयं नवकगणमानात् // 345 / / मुनियगलकेन विधिना, कालो ब्याघातिकस्तथा ग्राह्यः / / तस्मिन् यथा समाप्ते, सन्ध्याया अप्यपगमः स्यात् / 346 कुर्वीत स्वाध्यायं, मुनिवर्गों यावदादिमाहाम् / विश्रामणां च कुर्यात्. सुबाहुमुनिरिव यतिजनस्य / 347 P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे कालिकसिद्धान्ताध्ययन-वाचना-गुणनगोचरः कालः / दिवसस्य निशश्च प्रथमपश्चिमी द्वौ मतौ प्रहरौ / / 348 // अङ्गान्येकादश कालिकं श्रुतं तचवेदिभिर्भणितम् / सर्वोऽपि दृष्टिवादः, कालिकरूपं श्रुतं च स्यात् / / 349 // प्रतिलिख्य वदनवसन, लघुवन्दनकेन रात्रिसंस्तरकम् / / सन्देश्यान्येन वदति, 'राई संथारए ठामि' / 350 // शकस्तवं भणित्वा, कृतमिथ्यादुष्कृतो यथाज्येष्ठम् / / कृतसाकारानशनो, निर्जितनिद्राप्रमादः स्यात् / / 351 / यतिनो यतिनः प्रत्येकं कुड्यस्य च यतेश्च रचनायाम् / यतिनां च पात्रकाणां, हस्तो हस्तोऽन्तरे कार्यः 352 / / उचिते देशे गत्वा, संस्तरकोत्तरपटावथ प्रेक्ष्य / संयोज्य च जानूपरि, संस्थाप्य भुवं प्रमार्जयति / 353 // तत्रास्तीर्य मुनिः, करयगलं न्यस्य शिरसि भणतीदम् / / 'अणुजाणह निस्सीहि णमो खमासमणाण पुजाण // 354, अथ संस्तरके स्थित्वा, प्रेक्ष्याऽऽस्यपट त्रिवेलमुच्चार्य। सनमस्कारं सामायिकं ततो वामपार्थे च / 355 / / उपधानीकृतबाहुः, पादौ द्वौ कु टीवदाकुच्य / असमर्थो भूमितलं, प्रमृज्य विधिना प्रसारयति / 356 / / किल कुकुटी प्रसुताऽपत्यत्राणाय पादयग्ममपि / आकुञ्ज्य स्वपिति सदा, यदा तु पादौ परिक्लान्तौ / 357 P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या गगने तदा पुनरपि, प्रमाणे संस्थापयेत् प्रयत्नेन / कुकुट्या दृष्टान्तं, तथाऽनगारान्मनसि कृत्य / 358 / परितान्तौ निजचरणावुत्पाट्य स्थापयेद् गगनभागे / प्रतिलिख्य पदस्थानं, तत्र स्थापयति यत्नेन // 359 / / | सुप्तो यावजागर्ति, तावदाध्यात्मिकः शुभध्यायी। ___निद्रामोक्षं कुरुते, मुहूर्तमेकं विशुद्धया च // 360 // स्थविरा द्वितीययाम, सूत्रार्थविभावनेन निश्शेषम् / अतिवाह्य स्थिरहृदयाः, प्राप्ते यामे तृतीयेऽथ // 361 / / गृह्णन्ति चार्धरात्रिकालं गुरवस्ततो विबुध्यन्ते / _ पूर्वोदितेन विधिना, स्थविरा निद्रां प्रकुर्वन्ति // 362 // उद्वर्त्तनाऽपवर्त्तनमुख्यं यदि कुर्वते तदा मुनयः / प्रथमं शरीरकं प्रतिलिखन्ति पश्चाच संस्तारकम् // 363 / / कृत्वा शरीरचिन्तामीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वम् / / कुर्वन्ति स्वाध्यायं, गाथात्रयमानमधिकं वा // 364 // निद्राऽपगमे गुरवस्तचं ध्यायन्ति चिन्तयन्त्यथवा / ____अभ्युद्यतं विहार, तृतीययामे जनोद्धारम् // 365 / / सरि-स्थविर-ग्लानप्रमुखा निजसमय एव कृतनिद्राः। भावेनाप्यपनिद्रा, विचिन्तयन्तीदृशं हृदये // 366 / / 'धण्णाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सया धण्णा / ___ विहिबहुमाणी धण्णा, विहिपक्ख असगा धण्णा'॥३६७। - P.P.AC.GunratnasuriM.S Gun Aaradhak Trust by CamScanner
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________________ भागमोद्धारकंकृतिसन्दोहे तिष्ठन्ति पञ्च पुरुषाः, यत्र ज्ञानादिरत्नसेवधयः / तद्गच्छनिश्रयाह, कदा विधास्यामि विधिपक्षम् // 36 पृथ्वीपतिः कुमारो, मन्त्री सेनापतिः पुराऽऽरक्षः / __ पञ्चभिस्ते राज्यं, यथा प्रधानर्भवति मुदितम् / 369 // तद्वत् प्रवराचार्यो-पाध्याय-प्रवर्तिनस्तथा स्थविरः / यत्र गणावच्छेदी, पञ्चैते सन्ति स हि गच्छः // 370 विश्राम्यन्ति गणधराश्चतुर्थयामे तु जागृयः सर्वे / वैरात्रिककालाऽऽदानपूर्वकं कुर्वतेऽध्यायम् / / 371 // ग्राह्योऽर्धरात्रिकस्यासनः प्राभातिकस्य चासनः / सरकार मुनिना कालो वैरात्रिक इतिसिद्धान्तपरिभाषा // 372|| साधु चैत्रे शुत्रयोदशीप्रभृतिके दिनत्रितये / कायोत्सर्ग कुर्यादचित्तरजसोऽवनमनार्थम् / / 373 / / स्वाभाविक पतत्यपि, रजसि स वाते समीररहितेऽपि / नं प्रमादरहितो, यावद्वत्सरमधीयीत // 374 / / शुचिकार्तिकयोर्मासे, सितभूतेष्टाप्रभृत्यहस्त्रियम् / प्रतिपदवसानमध्येतव्यं, न यतोऽत्र जीववधः // 375 // एवं प्रतिपदन्तमाश्विने चैत्रिके च नाध्येयम् / / द्वादशदिनानि यावत्, त्रं सितपश्चमीप्रभृति // 376 / / ऋतुबद्धकालमपास्य जीवघातादिदोषसम्भवतः।। बहुवर्षासमये क्षालयन्त्युपधिमखिलमपि यत्नात् / 377 P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या 36 सलिलाभावे तु जघन्यतोऽपि नियमेन पात्रनिर्योगः / आचार्यग्लानानामुपधिर्मलिनः सदा क्षाल्यः // 378 // आचार्याणां मलिनोपधिपरिभोगे ह्यवर्णवादः स्यात् / ग्लानानां तद्वसनप्रावरणेऽजीर्णतापत्तिः // 379 // सामाचारीमनिशं, संवेत यथाऽऽगमं यथास्थानम् / सा त्रिविधा स्यादोघे च, पदविभागे च दशधा च / 380| आया तत्रौघे स्यादिहोपनियक्तिजल्पितं सर्वम् / ओषोऽत्र हि सामान्य, तद्विषया माऽपि तद्र पा // 381 // प्रायश्चित्तविधिगता, या कथिता जीतकल्पसमयादौ / - सा पदविभागरूपा, सामाचारी जिनरुक्ता // 382 / / या चक्रवालसामावारी सा कालगोचरा दशधा / इच्छाकारो मिथ्याकारश्च तथा तथाकारः // 383 // आवश्यकी च नषेधिकी तथाऽऽपृच्छना भवेत् षष्ठी। प्रतिपृच्छाऽपि च तथा, छन्दनापि च निमन्त्रणा नवमी // उपसम्पच्चति दशविधा तत्राद्या यदिच्छया करणम् / न बलाभियोगपूर्वकमिच्छाकारप्रयोगोऽतः / 385 / संयमयोगे वितथाऽऽचरणे 'मिथ्येद मिति विधानं यत् / मिथ्यादुष्कृतदानं, मिथ्याकारः स विज्ञयः // 386 / / सरिबहुश्रतो नैष्टिकश्च यद्वाचनादिकं दत्तं / शिष्याय तथैव तदिति निश्चयकरणं तथाकारः / 387 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे आवश्यकी विधेया, गमने नैषेधिकी पुनर्विशता / कार्य प्रविधातुमभीप्सितमापृच्छा गुरोः कार्या / / 388 // पूर्वनिरूपितेन च, पूर्वनिषिद्धन वा सतोत्पन्न / ____ कार्ये पुनगुरोः पृच्छा प्रतिपृच्छा जिनरुक्ता // 389 // सा छन्दना यदशनादिके गृहीतेऽर्थ्यते मुनिर्भोक्तुम् / अगृहीत एव तस्मिनिमन्त्रणामाहुरहेन्तः // 390 // यद्गम्यते बहुश्रुतमूरिसमीपे विमुच्य निजगच्छम् / सम्यग्ज्ञानादित्रयलाभार्थ सोपसम्पदिति / / 391 / / सामाचारी दशधाऽपि चक्रवालेति सज्ञया गदिता। चक्रमिव येन वलते भ्रमति प्रतिपदमहोरात्रम् // 392 / / सामाचारी दशधाऽन्यापि प्रेक्षा प्रमार्जना चैव / भिक्षेर्यापथिकी लोचनानि भोजनविधिः षष्ठी // 393 // मात्र विचारौ स्थण्डिलमावश्यक (मार्जनादिक) विधानम् / एषापि यथास्थानं, विवृता दशधाऽपि पूर्वत्र / 394 / / इति दिनकृत्यं कुर्वन्नवभिः कल्पैः सदाऽपि विहरेत / तत्राष्टमासकल्पास्तेषु न पीठादिपरिभोगः // 395 // विजिहीर्षवस्तु वार्षिकमासिककल्यावसानदिवसेषु / पीठादिकं समर्योपग्रहिकं सर्वमुपकरणम् // 396 // शय्यातरमापृच्छय, प्रमृज्य वसतिं तृतीयपौरुष्याम् / विहरन्ति पथि तु दरे, प्रथमे प्रहरे द्वितीयेऽपि // यम्मम्।। P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्रमण-दिनचर्या गीतार्थश्च विहारोऽपरस्तु गीतार्थमिश्रितो भवति / गीतं तु सूत्रमुक्त, जघन्यतोऽप्यादिमाङ्ग तत् // 398 // तद् द्वादशाङ्गमुत्कृष्टतोऽनयोर्मध्यगं तु मध्यमतः / ___ अर्थः सूत्रव्याख्या, गीतेनार्थेन युक्तो यः // 399 // तनिश्रया विहारो, युक्तो गच्छस्य बालवृद्धयुजः / __ अप्रतिबद्धस्य सदा, द्रव्यादिचतुष्कमाश्रित्य ।४००।युग्मम् नवभिः कल्पो मासैर्भवति चतुर्भिर्नभोनभस्यायः। तत्र च संस्तरकपदप्रोञ्छनकादेर्न परिभोगः // 40 // पङ्कापनयनहेतोः, पादप्रतिलेखनी घना मसृणा / . प्रतिसंयतं निषद्या, बद्धा ध्रियते रजोहरणेन // 402 / / अभितो नखसंस्थाना, प्लक्षोदुम्बरवटादिकाष्ठमयी। एकाङ गुल-विस्तारा, वितस्तिमाना प्रमाणे सा॥४०३।। यतिनां फलकं शय्याऽऽसनं तु वर्षासु पीठफलकादि। शेषसमये हि संस्तरपादप्रोञ्छनकपरिभोपः // 404 // अस्मिन् वर्षाकल्पे, विधि (विविध) तपोऽभिग्रहेषु यतितव्यम् / ___ पञ्चकहान्या जाते, पर्युषणामहे विशेषोऽयम् // 405 // आगमोद्धारक-आचार्य-प्रवर-श्रीआनन्दसागरमरि पुङ्गवगुम्फिता श्रमण-दिनचर्या समाप्ता. LOPMENTONINAKAWADKUDEARTEDEX P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ जिन-महिमा 卐 संयोगा विप्रयोगान्ताः-समग्रेणात्मनाऽनन्ता अन्वंशं वृद्धिहानितः सिद्धः सदाऽसि संयुक्तस्तद्योगो न वियोगभाक // 1 // सर्वाणि स्थानान्यशाश्वतानि-सिद्धः स्थानं त्वया प्राप्त-मचलं न चलिष्यसि / त्वमीश ! न च तजातु कथमेतदशाश्वतम् / / 2 / / यथा लाभस्तथा लोमो, लाभाल्लोमः प्रवर्धते कैवल्यं युगलं लब्ध-मप्राप्त भववारिधौ / विवर्धयिषुः किन्न तद् यदि लोभोऽस्ति लाभतः // 3 // जातः सिद्धिगतौ नैव च्योष्टाऽस्यास्त्वं कथं पुनः / ___ पुनर्जन्म पुनमृत्युरिति सत्यं वचस्तव // 4 // ध्र वा जनिमृतस्या-सोस्त्वमृतो न भवे जनुः / तवेति कि. महर्षीणां स्वोक्तं स्वस्य न बाधकम् ।५।युग्मम आशक-चक्रिणं नित्यो विभवो नेति वचस्तव / ___ लाभः कथं तवेशाऽयं कैवल्यस्य सनातनः // 6 // दुःखरूपो दुःखफलस्तथा दुःखानुबन्धवान् / भवो विद्वत्प्रवादोऽयं सदानन्दाद् मृषा कृतः // 7 // कुलद्रोही प्रभुद्रोही मित्रद्रोही नरोऽधमः / / त्वं तु धर्मफल सर्व लब्ध्वा निर्णासितं ननु // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ जिन - महिमा स्वामि स्तुभ्यं नरत्वेनाभयस्थान समर्पितम् / तदैव तवया दग्धं, कैर नीतिवान् कथम् // 9 // यावज्जीवमदा धर्म-मग्लान्या भाषयाऽऽर्यया / न चेत् सोऽणुः शिवे किं न यथा दानं तथा फलं // 10 // एका ते निष्फला नाथ ! देशनाऽऽश्चर्यमन्तिमम् / निष्फलं त्वां शिवे दृष्ट्वा वच्म्यशेषास्तथाविधाः // 11 // केवलज्योतिषा लब्धा अर्था नाथ ! प्ररूपिताः / तर्कावेशो न नोऽस्त्यत्रान्धानां यद्वत् परेक्षिते // 12 // तथापि ते समादेशो विनियोगविधौ परः। तसरेषां प्रसिद्धयर्थ तोवेशात् प्ररूपणा // 13 // अदृष्टपरपारत्वादनन्तं सर्ववादिनाम् / आकाशं लोकमाहात्म्यं तजीवाणुसमागमः // 14 // ऊर्ध्वलोके शुभोऽणूनां प्रमावोऽधस्त्वशोमनः / पुण्यप्रकर्षमाजस्तद्देवा नैवाधोभुवस्तले // 15 // अनल्पजीविता-नित्यजीवनाश्च समे त्विमे / पुण्यपापप्रकर्षात्त-भवास्तद्भस्ततस्तताः // 16 // नरा मध्यमकर्माणस्तियश्ची जीवितप्रियाः। तत्तेषां धाम तैरश्चमेकाक्षा लध्वशोभनाः // 17 // कर्माणुतारतम्येन भविनां विविधा गतिः / लोके समस्तकर्माणून् , (मुक्त्वा) मुक्ता लोकाग्रगामिनः // 18 P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ 44 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे लोकायं सिद्धानां स्थानं तनियमतः समे सिद्धाः / ____तल्लोकायमुपेताः सिद्धा नम्यन्त इह सर्वे // 19 // संसारोऽयमनादिः परम्परं निश्चितास्ततः सिद्धाः। तत्ते परम्परगतास्तान् नमस्कुवते धीराः // 20 // पीयूषं सममूहते विषलवैः साम्यामृते ते रता / यद्भावेऽविषमं परं समतया नैवोहते संवतिम् / तुल्यामाश्रवसञ्चयेन विषम संसारपातं नयन् / मोक्षत्वेन बुधः समेति मनसा पीनो वचस्ते पिवन // 21 समः स्त्रैणे ताणे कनक-उपले दुःखसुखयोः, समाधौ लीनात्मा भवति न खलु मिथ्यात्वसुदृशोः / यदेतत्साम्यं स्याद् भवजलधिपातप्रतिभयं, ततो ये त्वामाहुः परसुरसमं ते न महिताः // 22 // सर्वागुतो धाम महाद्भुताना, त्वत्तोऽपरो नास्ति जगद्विमो! भुवि गतक्रियः सर्वगतिक्रियः सदा, विदर्शनश्वासि समस्ती // 23 // परैचिदानन्दरसेन मुक्ता, मुक्तिस्तदीयाप्तजनेषु घुष्टा / परं त्वदीयैस्तु विदां समक्षं, घुष्टः क्रियामात्रविहीन ईशः // 24 // विधेनिषेधस्य च ये त्वयोक्ताः, पुरो मुनीनां नियमा विचित्राः। परं पदं प्राप्य जिन ! त्वया ते, दूरीकृतास्ते किम इन्द्रजालम् / / 25 जीवः स्वकीयाप्तयुजि क्रियायाः, प्रामाण्यतो वीर्यवलं युनक्ति / भवास्त्वयोगोऽमितवीर्ययुक्तः कथं परेषां गमनीय ईशः // 26 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ जिन - महिमा विधेऽत्र कोऽपोश! न जीवभावो, विहत्य प्राणान् श्रतिमुख्यसारान् भवास्तुपाणैईशभिर्वियुक्तः सदासि धर्ता विविधांस्तु तान् कृती // चैतन्यशक्तेर्जिन ! जन्तुजाते मानं त्वयोक्तं निजयोगमानात् / व्यवहारमार्गागतपार्थिवादा-वत्यन्तचैतन्ययतोऽस्ययोगी॥२८॥ तेषां हि पापप्रचयस्य भीन, ये स्युस्सदा संवरयोगनिष्ठाः / असंवास्त्वं कथमाप्त ! हीनः, पापाणुभिः सर्वमनेहसं शमी // 29 समस्तकावलितो न तस्य, भयं जिनेन्द्रोदितमार्गगो यः। विमुक्तमार्गोऽसि विलीनकर्मा, जिन ! त्वदन्यो नहि कोपि मह्यां। जिन ! त्वदाज्ञाविमुखोऽङ्गवारी, यज्येत पापप्रचयेन नित्यम् / चिन्तोक्तिकायैरपि नो प्रवृत्तो, विभो ! अनाज्ञोऽसि कथं निरंहाः त्वया समक्षं विदुषां निवेदितं, परस्परं जीवगणः समस्तः / सम्बद्ध (र्वी निखिलैनियोगै व थैतदेषो हि जिनेन्द्रदेवः // 32 // वित्तोऽसि विश्वज्ञतया विभो ! त्वं, सत्यं नु चेदाऽऽसमहं त्वदीशः। दीनत्वपूर्ण न हि वीक्षसे मां, भवाङ गणे यन्न समुद्दिधीर्षा // 33 सार्वज्यबन्धोऽवितथोक्तिभावे,त्ययाऽऽस्थिता मे व्यसनोद्ध तिः पुरा वारानमेयानधुना भवाब्धौ व इन्तमहन्न हि पासि दीनम् // 34 // विभोऽसि साझ्यपदेऽमले यदि, मां दावदग्धं किम नेक्षसे त्वम् चेद्वोत्सि मां तद्विधमात्मशक्तितो नरक्षसि त्यक्तदयोऽसि किं विभो! वज्राभाः शरणं श्रिते कृतधियो नीतिस्त्वयं साविकी, त्वं मेऽमेयभवान् श्रितोऽसि शरणार्थित्वैकमत्योत्तमः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner Trust
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________________ 46 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे अद्यापीश ! भवाधिसन्धिहरणे मे किं न ते जायते, बुद्धिर्धिग्न यदर्थितोऽपि फलितः कारुण्यपूर्णोऽपि हा // ज्योत्कार मित्राण्यपि पीडितासु, प्राणापणेनाप्युपकुर्वते सदा / त्वं सेवितोऽमेयभवेषु भक्तितस्तथापि किं नो कुरुषे मयीक्षणम् वाचः सौख्यै कहेतवो मुनिगणे ख्याता मताश्चोत्तमैः, - सत्यं तन्मानसंहतिगुणगणापातैकरम्या श्रिता / शेषाः सर्वेऽपि जन्तवोऽयमगुणास्ता दुःखहेतू दधु यदुःखं सदृशामसुमतां मिथ्याधरेम्योऽधिकम् // 38 कृष्टा भूमिः साम्यभावेन शून्या, तीक्ष्णस्पर्श रूपसौन्दर्यहीना शस्ता शास्त्र योक्ष्यते या फलेन, तद्वद्वाचो भवभयमतये मोक्षसारेण दृश्याः // 39 // नादा न चैव ददासि न दास्यसि त्वं, मह्य सदा सुगुणपूर्णजिनेश्वर ! त्वम् / त्वत्पादयुग्ममहनं कथमीश ! वाञ्छे, स्थानव चेद् धृदि विभोगुणराशिभारः // 40 // अन्तर्व्याप्तियतं मनन्ति मनीषामन्तो नराः सिद्धये, .. ज्ञातं यन्मतिरश्चति प्रमिततां नैवान्तरा तादृशम् / नित्यं ज्ञानमुखा समं गुणगणं कोऽप्यस्ति नान्यो दधत, सिद्ध साधनमेवमत्र विदुषां तत्ते भवद्भ्यो नताः // 41 सत्यं मातोऽसि सिद्धवपगतमितिषु प्राणपूर्णेषु तत्वा दशैः सर्वात्मना चापरमहितभाग्मावलेशे न मातः।। P.P.AC.GunratnasuriM.S GUN Aagadhak Trust by CamScanner
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________________ जिन - महिमा रिक्तोऽसौ यच्चदीयानणुगुणसुधया तेन भ्रान्ता भवाब्धौ, रिक्तानां यन्न धामाव्ययपदमखिलदृश्यते चेदमहन् // 42 // ध्यान्ध्यं ध्यान्ध्यं हि ध्यान्ध्यं जगति च निखिले ध्यानध्यमेतद्विचित्रं __ शान्ति दान्ति मुमुक्षामनुगदमुदितां धारयन् मार्गगामी। न्यायोऽयं सार्वतन्त्रस्तदपि कुमतगास्त्वां न सत्कत्त मुत्काः सत्योऽयं किं न तानभिप्रैति (निच्छति ) च, निखिलो न्यायनाशः स पाशः // 43 // लजानम्रमुखो भवेन्ननु जनश्चक्षुय गं धारयन्, चेत् स स्याच्छरणागताङ्गिधरणे सामर्थ्य य क्तोऽक्षमः / स्वां शरणं निखिलार्तिनाशनिपुणं श्रित्वाङ्गिनोऽनन्तकाः, पीड्यन्ते भवशत्रणा ननु विभो ! लजा नतेऽदर्शन ! (1) // नरेन्द्राः सुरेन्द्रा गणेन्द्रा जगत्यां, भवन्ति प्रपूज्याः कृताप्ताभिषेकाः / / प्राकपूज्यतामाप्य गतोऽभिषेकं यल्लोकं भावस्तव पक्षपाती // 45 (जिनत्वं दधानोऽवतीर्णः प्रभुस्त्वद्गृह्योऽस्ति यल्लोकभावो समानः) पूज्यास्ते परमेष्ठिनो जिनमुखा भव्येषु मार्गादिमैः, ___काय मोक्षविधायिता कृतिकरास्तन्नाद्भुतं मे हृदि / त्वं भगवन् ! गतसाधनस्तनुमनोवाग्भिः कृताधु न्मुखः, किं पूज्यत्वमुपेयिवान् ननु गुणाः पूज्याः स्वभावाप्तितः // काव्यस्यैकफलं वदन्ति विबुधाः स्वानन्दमेवोत्तम, तच्च स्वानुभवैकवेद्यमखिलं नार्थादिवृन्दाश्रितम् / P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे तन्मिथ्या न यदस्ति सुज्ञजनता श्रुत्या विहीनं सतां, ___ बाध्यं नैव परं पुरोक्तमनयो नोत्सर्गमार्गो मतः // 47/ जिन ! त्वदाज्ञासुधयोक्षितोऽस्मि, जातो महामोहविषोर्मिपूर्णः / पक्वा न मेऽन्तयदि सा तदा त्वं विधेहि वैधेयविधि मयीष्टम् / / घुष्टा जिनेन्द्र ! जगतीह परा तवासीत् सिद्धत्वबुद्धत्वकृतार्थताश्रिति परं न तां सत्तमभावशालिनः सभा जयन्तीह परा प्रदानात् / / 49/ ज्ञाता समर्थो यदि दीनहीनं, जनं समुद्धमलं न भूयात् / लिप्येत पापप्रचयेन सत्यं, यदीदमाप्तश ! कथं स्थितिस्ते // 50 // भक्त्याश्रितेन यदसमंजसमाप्त ! लप्त, तन्मे न पापपदमाश्रितवत्सले यत् / सिद्ध विधायि वचनं ह्यु पलम्भसारं, मिष्टं तथा ननु नहीति सुनिश्चितं नः // 51 // ध्यानाजिनेश ! तव पारमगुर्भवस्या३ नन्ता भवेऽत्र भवधारणकार्य सक्ताः। सत्या श्रुतिस्त्वियमभिप्रभुमाश्रिते मे योगत्रिकेण परमां (यदि चेद्) विदधासि सिद्धिम् // 52 चित्रं जिनेश ! तव भक्तिभृतोऽपि जीवा, नापुः परं पदमतीतकुमार्गचित्ताः / स्थाद्वादशुद्धवचनां तव वाचमाताः, सत्यं यदत्र वचनं वदित प्रमाणम् // 53 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ जिन - महिमा जानानः समुपेक्षकोऽक्षतबलो दोषेकपात्रं ननु, ____साधुत्वं निरघं दधन् मुनिजनो देवैकनिश्रं धनम् / इत्थम्भूतवचस्तव श्रुतिपथे सत्यं च चेत्तद् ध्र वं, ____ मां देवं समुपाश्रितं न च यदा पासि ध्रुवा ते क्षितिः / / भक्त्या नने मयि महेश ! दधासि चेन्न, सार्दो दृशं हतसमस्तचिदादिसारे / नागे तथा कमठदैत्यगुरौ कथं त्वं, दुःखाङ कुरोद्दलनतत्परतां व्यधा हा ! // 55 / / वां तारयाम्यहमुदारहृदम्बुवाहे शुद्धां तनु सुवचनान्तरमादधानः मां दुःखवारिधिगत न समुद्धरंस्त्वं, ___ प्राप्ता पदं कथमधीश ! विशुद्धसाम्नाम् // 56 // नीतः साक्षात् प्रतिपदमिहानाहनीनां निकायं, सर्वज्ञं त्वां सकलशरणं चेतसा जानतापि / नम्रो वृक्षः फलभरयुतो ग्रावघातात् फलेद्यद्, यद्वा स्निग्धो जन इह विमतः कल्पनातीतशर्मा // 57 // त्वं सर्वज्ञपदान्वितो यदि तदा मां कि ननु ज्ञातवान्, / मूर्धस्थं कृतलोपिनां भवभृतं त्वामेव कृत्वा पुरः / | यद्धित्वा तव वन्दनामपि प्रभो ! गन्ता पदं त्वत्सम, . सत्यं भो ! बहुरत्निका प्रभुसमैभूमिः परार्थोद्यतैः // 58 इयं समक्षं विदुषां निवेदिता, मया प्रतिज्ञा यदुताऽऽप्य धाम / सदागमैनित्यसमेतमायें हास्यामि पश्चाद् भविताऽस्म्यवाप्तः // P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोकारककतिसम्मोहे मया समाहतो जिनेश ! वृजिनकृन्दवर्जनात, तनमनोय चखिकेण सेवनादिभिः पुनः / तथापि मां भवाम्बुधेः चमोऽपि नैव रक्षमि, कथं नु मे भवेत् प्रतीतिमवतारवयाऽत्रमाः // 6 // जागर्ति ते यशो जिनेश ! जानता गणे नृणां, प्रवरबोधिलम्मनाद् भवान् भवान्तिमा दशाम् / परार्थकारितोद्रवं कताघसञ्चये जने, न मेऽअनं कथं करोषि भक्तिमावितात्मनः // 61 // विदुषां संसदि तेऽस्ति मतं ननु, विदुषा नैव विधेयो बन्धः त्वं बद्धा किमु जिनभव प्राप्त ! जिननाम्नोऽङ्ग श्रेणेर्यावत् / गतरागविड जिन ! ते रूपं, किमुपास्या क्रियते विबुधैस्ते / सत्यं विबुधा निजशुभलाभ, दत्तंऽन्यस्मै तत्वं तायी // 63 // जिनेश ! जायते जने फलोदयः प्रसन्नाः, ____ भयं भयान्त प्राप्यते द्विपजना चोतिगम् / त्वयि विभो ! न युग्मकं भवापवर्गदोऽसि कि, निमित्तमावभावतो बुधैस्तथा सदा (पर) मतः // 6 // भवाम्भोधिनिस्तारणायेदमह-स्त्वया स्थापितं शासनं वित्तमेतत् कथं सर्वदा तत्पन्न न मां तत्प्रदत्तेऽव्ययं तत् किमु भक्तिमान्धर अनन्तचिद्र पधरं महान्त, मोहादतीतं सुरसङ्घसेव्यम् / नित्येतरात्मार्थ निदेशकं जिनं, चतुगुणं देवपदाश्रितं परम्।।६६ P.P.AC. Gunratnasuri M.S Scan Gun Aaradhak Trust 1 by CamScanner
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________________ जिन - महिमा मायाविनो यद्यपि जाग्रतीहा-शोकद्रमाद्यष्टकधारिणोऽन्ये / तथाप्यविच्छिन्नमनन्यरूपं, जिन ! त्वदीयाष्टकमीहनीयम् / 67 जगति विदितमेतत् सत्यसद्भावसिद्धि रनुकृतिकरणाद्धि नान्यथा यत्समूला / सुरविसरनभोगादित्वमाप्त यतन्ते, परमतनिपुणा यत् सिद्धये किं न हि ते // 6 // त्वं गम्यः कथमार्यमार्गनिपुणश्वेत्ते विलोक्यं तकः, सार्वश्यं गतरागताश्चितमलं तन्मानता किंकता / चेदाप्तागमसन्ततिर्गतमलाजास्ति प्रमाणं जिन !, किं प्रामाण्यपदं भवेत् प्रथमतश्च नार्थनिष्ठा सका // 69 // कथं ते जिन ! प्रेक्षणादङ्गमारो, हृदो मे प्रसत्तिं गताघां तनोति / मौतौ न तद्वान् न भवत्स्वरूपं, सा नैव मेऽभूत् कथमात्मबोधात्। रागाद्या रिपवो मताः परमतैः कि सेव्यते देवता, रागाढ्यः परमेश्वरश्च किमु तेराग्यभाग निन्द्यते / आरम्भादियुतश्च कि गुरुतया नित्यं समोपास्यते, निर्ग्रन्थान निरघान् विनिन्द्य सततार्हद्धर्मशून्या यतः // 71 पूर्णकपाधरमाईतवृन्द, भविनः पूर्णकृपायाः पात्रम् / . फलमपि भुवनेऽक्षुभ्यन्मानं, को नु विलम्बो जिन! भविसिद्धौ // यूयं शरण्याः कथमागमा भवे, कथं च भव्याः शरणं प्रयान्ति वः शिवं धधीनं नच वो न चैषां, फलेद्विचित्रा भवितव्यताङ्गिनाम् / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे सत्यं सर्वमुमुक्षवः शिवादं लब्धार इद्धां परां, लब्ध्वा सद्भवितव्यतां यत इह कर्ज न तामन्तरा। नैवाकारणमेति सिद्धिपदवों दाहो न वहि विना, तत्तत्कारणतां सदागम दधद्द(दिशन्जिनपतेद,त्से पदं त्वं शिवम् / बाढं जीवोऽयमज्ञो जिनप ! भवगतोऽनादितो नैव वेत्ति, रूपं स्वीयं कथञ्चिजिनपरिगतः पौद्गले लुब्धिमाप्तः। सौख्ये दुःखं जिहीर्षरशुभतर कृतौ याऽऽश्रिता पापबन्धं, ___ रक्तोऽस्यां सर्वमेतजिन! तव शरणाचोरनाशं प्रनष्टम् / / 75 आढ्यो जीवो विविधधनवान् रत्नहीरादिराशेः, स्वामी शुद्वनिजवरगुणातिजैराश्रितोऽपि / मिथ्याशीधुस्वदनरसिकः सर्वमेतद्विधत्ते, कर्मायत्तं जिन ! तब वचनात् शुद्धराज्याधिकारी // 76 // अज्ञानिना पीतमदेन वा यत्, प्रदीयते स्वं द्रविणं परं वा / सज्ज्ञानमेतः शुचिमानसो वा, मिथ्या करोतीह तथा जिनादयम् // मलिम्लुचो रक्षकमेष्यमाणं, दृष्ट्वा पलायन्तः उदित्वरान्ध्याः। श्रद्धापथं तद्वदिहागतं त्वां, दृष्ट्वा जिनाऽदृष्टचयः पलायते // विविधं द्रविणं निखिले स्वगृहे स्थापितपूर्व ह्यविदन् मनुष्यः, काकिण्यर्थ भ्राम्यति भुवने तद्वदिहाङ्गी ज्ञानधनोऽपि / इन्द्रियबोधायाटति सुचिरं भवभवने प्रतिभवमुझरतं, श्रित्वा त्वां जिन ! पूर्वविदाढ्यः पदमभ्येति सनातनशुद्धम् / / P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ जिन - महिमा नव्यो नब्यो जिनेशः स्वचरणकमलेन्दीपराभान् सुसाधून, देष्टा यस्त्याज्य एषोऽङ्गानिचयसुखदो देहगेहाङ्गनादिः / माता सतप्तृतनुजैविविधसुखकरैः संयुतो ज्ञातिवर्गों व्याचाधं स्थानमाप्यं लभत इह जनः स्वात्मसौख्यैकचेताः॥८० या चेष्टा विकलेषु तां समुदितां भव्यैः सदा कारयंस्त्यागोऽर्थस्य जनस्य सौख्यनिचितेरन्धोऽपि नेष्टं मतं (वदेत्) कन्छोटं विजहातु लुञ्चतु शिरो नोपानहोर्धारण [शय्या भूमितले सदा विचरणं ] मोचाध्यप्रगुणं तदेव जिनपाव्याबाधगामी चरेत् // 8 // अव्यादव्यान् विभो ! मां भवभयमिताज शुद्धमार्ग समाख्यन्, ___ सर्वेषामेष हेयोऽमितभवचरितो याश्रवो बन्धबन्धुः। श्रेयोऽसौ संवरो द्राक सुकृतिततियुतो निजगमोक्षमूल, इत्थं नान्यो लपेद्धा विषयकृमिसमस्त्यागमूर्तिर्जिनेशः॥ न नाट्यकर्तृत्वरसेन नम्यो, गोपाङ्गनाहावरसेन नैव / / न चाङ्गनापुत्रधनादिदानान् मोक्षस्य देष्टे ति जिनः प्रणम्यः॥ मायावार्षिर्दवाग्निर्विपिनमसुगम पाश इन्द्रस्य मौर्वी, ___ स्वप्नो मम्बुभास इति विविधरौ रूपमुक्त भवस्य / तीय शास्त्र स्वकीये शिवपदविमुखैर्देवमेतत्प्रदाने, निष्णं मत्वेति नौति न तु जिनप इवात्मैकरामं विचिन्त्य // संसारे सर्वजीषा नियतमनुमताः सर्वदाऽशेषपोषा स्तेजः यस्य दीसि शशिन इस पर मेषवत् कर्म मूर्त / - P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोडारककृतिसन्दोहे रुन्धे तं तत्क्षयस्तु पवन इव तपश्चद् भवेत् स्फूर्तिधारि, मार्ग वक्ताऽमुमेषोऽनघजिनपविभोने व कश्चित् परोऽस्ति / कर्ता हर्ता तनुभुवनभवेष्वेक एवानुमेयः, ____ कश्चिद् बुद्ध रननुभवगमो हृदचाकायशून्यः / जप्यः सेव्योऽनुदिनमनुगतैः स्वर्गमोक्षप्रदाता, तीय एवं सुमतिरहितास्त्वां जिनं न प्रपन्नाः // न कर्ता न हर्ता न वै पालको यः, सुराणां नराणां तथा नारकाणाम् / पशूनां तथापीड्यते पुष्टयोधै-जिनेशो जगत्यां गुणैः पूर्णरूपः / / द्रव्यं गुणा नैव दशा प्रभिन्ना, मते जिनेशास्ति तवाप्तमान्ये / कथं गुणानामुदयं करोषि, दशायुतानां स्थिरवस्तुभावे // 8 // जिन ! त्वया ख्यातमशेषमर्थमुत्पत्तिनाशाचलतास्वभावम् / मागं त्वदीयमिममाश्रिता जना, भवन्ति मुक्त्यै चरणेषु रक्ताः॥ स्वीये स्वीये च शास्त्रे निखिलमतधर्मङ्गलमाद्यमुक्त, स्वेष्टानां देवतानां नमनकृतिपरं तत्प्रक्लप्त परैस्तु / प्रारब्धग्रन्थसान भवति परम भागमाश्रित्य विघ्नो, ध्यात्वेत्यर्हमतस्त्वं शिवपथपरमोऽस्तीति मत्वाऽस्मदीयैः / / स्थानेषु त्रिषु मङ्गलं श्रुतधरैन्थे समस्तैर्मत, प्रारम्भान्तरपूर्णतासु तदीयारम्भात्पराऽस्याप्तता / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ जिन - महिमा पारस्थैर्य परम्परांगतिकृते तान्याहते शासने, धार्य स्थानमदोर्हतां विधिपरैस्सर्वज्ञवाक्योद्ध रैः // 11 // उद्देशोऽध्ययने भवेत् स्थितिकृते शास्त्रे समुद्देशको अनुज्ञा शिष्यपरम्परार्पणकृते यौगो विधिस्तत्कृते / सर्वत्रार्हतशामने विधिपरेर्नान्दीक्रिया मङ्गले, ___ स्थानेषु त्रिषु सेव्यते जिन ! तवाम्नायः परैः सेवितः // 92 जिन ! तवानुमतं श्रुतसाधनं, त्रिकमिदं वरमङ्गलसङ्गतम् / जलधिपोतगतव्यनुकारक, परमतैः परिसेव्यतया मतम् // 93 // PAPALAYO अ आगमोद्धारक-आचार्य-प्रवर-श्रीआनन्दसागरमरि ___पुङ्गवगुम्फितो जिन-महिमा समाप्तः KAIMIMIMISSIRIRAJAMANANTHERO P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 卐 कर्म साम्राज्यम् 卐 आरङ्कादानृपात् सर्वे, परालम्बनजीवनाः / स्वकर्मजे फलं यत्नः, पररेव प्रणोद्यते // 1 // , प्राक् तावत् कर्मणा प्राचो-दितेनाखिलजन्तवः / उत्पत्तिदेशमायान्ति, न तत्रायत्तताऽऽत्मनाम् / / 2 / / न मात्रा मानितो जन्तुरथितो जनकेन न / पुत्रत्वमागतो नैव पितरौ पुत्रवाञ्छितौ // 3 // सर्वेषामपि कर्माणि, तादृशान्युदयं ह्यगुः / संयोगस्तेन सम्पन्नः, स्वच्छन्दोऽत्रेह नो कणात् // 4 // कर्ता चेत् कश्चिदीशोऽत्र, सिद्ध परावलम्बनम् / न सोऽत्र विश्ववैचित्र्ये, विधातृत्वं प्रयुज्यते // 5 // यतोऽरूपोऽशरीरो न, कर्मापि तस्य लेशतः। सर्वज्ञे निस्पृहे नैव, क्रीडालीलादिकं भवेत् // 6 // कः कर्ता कि हरो ब्रह्मा, हरिर्वा यवनाश्रिताः / महम्मदश्च शुमुख्याः , परस्परं समे हताः // 7 // किश्चाऽत्र देशकालाग-प्रभृतिष्वाश्रितो विधिः / विचित्रस्तत्र चापि स्याद् विचित्रो बहुधा विधिः // 8 // गर्भ समेतो निजकर्मणाजी, शुद्ध परं वा परकर्मसंस्कृतम् / तत्रापि कर्मानुगतो विभावः, क्षणे चणे स्याम कृतिः स्वकीया।। P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ कर्म-साम्राज्यम् रेत पडरसभोजनं प्रमः पोषस्तदीयेन रसेन गर्ने / जस्थनीवाश्रितकर्मयोग्या, सर्वा जनन्याऽऽहृतिमुख्यिका क्रिया जन्मापि जन्तोनहि कामजातं, मात्रादिवर्गोऽपि क्षमो न तत्र / नकालनैयत्यमिहापि किञ्चित्, स्वकमयोग्ये हि भवेत्त काले // तत्राप्यनेके सहकारभाव-मायुर्यथास्वं विधिमाचरन्तः / स्वयं तु कमैंकफलोऽनुभावं भुनक्ति सर्व परसङ्गमोत्थम् / / नानाविधाऽऽहारसमूहसिद्ध कर्मोत्थितेनात्मफलाङ्कितेन / जातं जनन्या पयाददानो बाल्येऽपि न स्वात्मयतोऽयमात्मा // 13 // नानाविधांश्चित्रमतिप्रयत्नैः, कृत्वा प्रयोगान् शिशुजीवनाय / मातापिता चापि न किं तदानी, बाल पपालात्मविधौ नदीष्णम् // 14 // मातुश्च वातुश्च निजापरेषां, यत्ना विचित्राः शिशुपालने ये / तदीयतन्त्रा अपि ते समस्ताः, शिशोरदृष्टस्य विपाकरूपाः / / बालाः कुमाराः सहसा समेताः, क्रीडारसे चित्रविधी प्रवृत्ते / ये तैपि प्राक कालिककर्म मुख्यप्रणोदिता नापर आययुस्ते / / कुमारकैः सह प्रथिते विनोदे, जयै युता ये च पराजयैश्च / सुखानि दुःखानि च चित्ररूपा-एयायान्ति तत्र स्वकर्मजानि / / छात्रत्वमेतो जनकप्रमुख्यै-यांनीपते पाठसभां सुबुद्धया। सापि प्रणुना शिशुभाग्यमारा वादयस्त्वत्र निमित्तयन्ति / / समानपाठा अपि ये सयोगा-स्तेपि स्वकीयात्मजकर्मयोगात् / DE ACGunratnasuri M.Scanned by in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे समानयोगेऽप्यसमानभावा, निमित्तयन्त्यत्र तु पाठकाद्याः॥ आरोग्यहान्याऽनुगतः कदाचिद्, रुजातुरत्वमशुभोदयेन / तत्रापि वैद्यौषधसेवकानां योगोऽप्यदृष्टोत्थप्रभावरूपः // 20 // वैद्या अनेके बहवोऽप्युपायाः सेवापरा नैक इहाश्रियन्ते / यदा यतो यत्र यथैव वेद्यं, तथैव ते सर्व उपाश्रयन्ति // 21 // वणिकक्रियायामपि वर्तमाना, लाभान् परेभ्य इह संश्रयन्ते / तान् ये स्वकर्मापगमाश्रिताः स्युः, सर्वत्र सर्वे न समानलामाः सल्लाभबुद्धया नृपसंसदङ्गताः-पदान्यमात्यादिगतान्यवापुः / तत्रापि लाभास्तु मनीषिणां स्युः, स्वम्ममाना नृपमुख्यदत्ताः। कर्षकत्वमुखचित्रविधासु, विविधहेतुधरा जनता स्यात् / सापि कर्मफलमनुगच्छति तद् यत्, स्वकर्मफलमनुगतिमत् स्यात् // 24 // कौटुम्बिके वृद्धगते च भावे, प्राप्येत तद्यत्स्वक-लाभयोग्यम् / परापरेभ्यो मतिमांस्तदित्थं स्वकर्मसाम्राज्यमबाधमेयात् / / इत्थं सर्वावतारे विविधविधिभरे वेद्यमाने विवित्रे. दुःखे सौख्ये च तेस्तैर्विविधमतिकृतिप्राप्तभावैः सुवेद्यः / ‘जीवाः सर्वेपि सर्वावधिमतिसहिताः स्वीयप्राकर्मजातं, गच्छन्तीमे न कुत्राप्यभिभवपदवी निनिमित्तं लभन्ते // 26 // इत्थं विदित्वा सुकृतेतराणां, सर्वत्र सौख्येतरसाधनानाम् / साम्राज्यमेकं विबुधाः श्रयन्तु तत्कर्म हेतु स्वकृति विचित्राम् / ॥इति कर्म-साम्राज्यम् / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गर्भापहारसिद्धि-षोडशिका।. नग्नाटो जिनराजवीर विषयं गर्भान्तरे मोचनं. ब्राह्मण्या उदरान्तराच्छतमुखादिष्टेन यनिर्मितम् / देवेन त्रिशलोदरे शुभवता घस्रषु द्वयष्टोन्मितेवव्याबाधतया जनुः सफलतां नेतुन तद् रोचते // 1 // आर्याणां भिषजा मतेन ततिभिः प्राप्तो दिनैर्गर्भगो, बालः पूर्णनिजाङ्गराजिरनणु पुष्टिं क्षमः क्रामितुम् / अन्यस्मिन्न दरे प्रसूजठरतोऽप्याङ ग्ला भिषकपुङ्गवाः, जायन्ते प्रसभं शिशु जनिमृतावित्यक्षमुवीक्ष्यते // 2 // जैनानां निगमोऽप्यविधिमुशत्यादिष्टवान् यद्धयसौ, बालस्याङ्गनिवर्तनं स्फुटतया मासे तृतीयेऽन्विते / सत्येवं स्वपरागमानुगततां यद्विस्मरन् नग्नराट, तथ्याथे प्रविलुम्पितु प्रलपति प्रास्तागमस्तन्मृषा / 3 // सत्येवं परगर्भसंहरणगे कुक्षेर्यदम्बाऽऽश्रितो, बालस्यास्ति सुसम्भवो न जिनराड जीवाभकस्येक्ष्यते / यत्तेषां सुकृतं जगत्यनुपमं सर्वानिशान्तिक्षममाजन्मप्रकटं समैः स्वनिगमश्रद्धोद्ध रैर्मन्यते // 4 // सिद्धान्तः समतन्त्रगो ननु शिशुः कुची जनन्याः स्थितस्तीवां वेदयते व्यथां नरकगप्राणिव्यथासम्मिताम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 60 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे सूचीनां घनवहितापिततनूभाजां परः कोटिशो, वेधादष्टगुणां प्रवेदितवतः किं भाविनी नो व्यथा // 5 // किञ्चाऽऽशाम्बरसम्मतं जिनपदं ते क्षीणमोहात् परं, चेदङ्गीक्रियते जिनस्य जननीकुक्षौ यतः सम्भवः / तह्यस्यांशुकचन्दनाभरणहक संरोहणे किं द्विषः, तन्नात्मप्रविबाधकं निगदतो विभ्राजते ते मनाक // 6 // दुःखं जन्मभवं जनुधृतवतामौपम्यवातिगं, शास्त्र गीतमुदीच्यते स्वपरयोः तकि न ते गोचरे / श्रुत्योर्यातमशेषदोषमथिनो जन्मापि किं नो तथा, सातासातयुगं भवादधिगतं संवीक्ष्य मा भो ! मुहः // 7 // तीर्थेशो निजगाद संसृतिगता जन्मावली स्वां यथा, जातां सद्गवाप्तिजन्मन इह स्वच्छामनच्छां तथा / / तद्वत्तेन गतद्विषा निगदितो गर्मापहारः स्वयं, कि श्रद्धापदमेति ते न महता मोहेन चेल्ल सधीः / 80 अन्ये ब्राह्मणविद्विषोद्भवमिदं वृतं प्रकल्प्योदितं, जैनेन्द्राश्रयमित्थमाहुरखिलोन्मादास्पदा यन्न तम्। शोचन्त्याईतशासनि गणभृतः ख्याता द्विजा जातितः, तुर्येऽङ्गऽपि जगाद संहतिमिमामाघेऽपि जैनी गणी // 9 // आश्रित्यार्हनजन्मनी वकुलतां विप्रेषु सम्मेनिरे, शास्त्र शास्त्रकृतो नृपोत्तमकुले साम्राज्यसंशोमिते / P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गर्भापहारसिद्धि - घोडशिका स्यात् पतिर्जिनताजषां - नाजुषां न गणिनां ताडग्विधानान्विता.. सेवा नहि नीचता निगदितेयासम्भवा कहिचित् // 10 // विप्राणां यदि सन्तती मुनिपतिः कुर्याजिनेशोदवे. व्यावं समशत्रुमित्रजनतः सत्यं तदियान्वितः। तत्तस्याः किमु मोक्षसम्पदमिमां नो वारयेद् वाङमये. श्रीमन्तो द्विजवंशमौक्तिकसमाः कल्पे स्वयं पत्रिते // 11 // यातो मोक्षपदं श्रुते निगदितः श्रीवीरमात्रा समं, देवानन्दपदान्वितर्ष भयुतो दत्तो जिनेशः (न्द्रः) पिता। माराध्यानघमयमं गुणगणश्रेणि समारुह्य स, शुद्धात्मा आपकाश्रितां द्विजकुले द्वषस्य नास्तितः // 12 // कल्पोक्ता मुनिपावली न वितथा पाषाणलेखेषु यत्, प्राच्येषु प्रविश्यते फुटतया कालेऽपीदानीन्तने / नग्नाटप्रभवात् मताद्विलिखिता वाणिज्यमुख्यान्वया, तत् कल्पोक्तमशेषमाश्रयति भुत् (विद्) नग्नाट हित्वाग्रहम् / / निन्दा श्रीजिनराजवृत्तविषये चीर्णा भवाम्मोनिधी, श्राम भ्राममशेषदुःखनिचये विन डयेत् प्राणिनम् / वदत् सत्यपथादपेनमुदितं स्तोत्रं तदीयं न कि, यभिखिलापमुक्-पथमिताः स्वान्याश्रिताः सगिरः॥ सम्पूणों जिनराजसंस्तव इहाशेषनएधोऽनलो, यत् सद्भूतमुपेयते निजपरागीकारज्मन् वदेत् / NATURE P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्वारककृतिसन्दोहे सत्यं सद्गुणशालि सत्कृतिपदं तनो जिनेशेऽलिकं, गर्भस्यापहति विलुप्य मतिमान् ब्र यात् स्तवं शास्त्रदृक् // 11 इदं नग्नाटानां मतमुपदधत् दोषनिचयं, विहन्तु शास्त्राणां सितवसनसाधूत्तमधृताम् / तति सन्मान्यां चापगतमलिनां स्थापितुमना, अकार्षीदानन्दोदधिरमृतशिष्यार्चितपदः // 16 // PAWANAPAN आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरमरिकृता गर्मापहारसिद्धि - पोडशिका समाप्ता / TwwwwwMINATIONINRISHNAAZINENIONAM P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ // नग्नाटशिक्षा-शतकम् // प्रातिहार्याष्टकोपेतं मूलातिशयशोभितम् / वीरमानम्य नग्नाटाः शिक्ष्यन्ते हितकाम्यया // 1 // आदौ सक्तो नृपतिप्रदत्तरत्नांशु के त्रिसन्ध्यं यः / छन्न निरीक्षमाणो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 1 // तमा गच्छेशः स्फेटयितुं खण्डशस्तु तत्कृत्वा / नाशितवान् कद्धोऽतो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 2 // क्रोधानलसंदीप्तः प्रच्छन्न भ्राष्ट्रदहनवत् सोऽस्थात् / कालं नियतं गणगो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 3 // जिनकल्पिकसाधूनां व्याख्यानं श्राव्यमाणमाकर्ण्य / सफलितरोषज्वलनो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 4 // इष्टार्थस्यालामे नवस्य, पूर्वागतं शिशु ह्यात् / ___ तद्वदयं मूर्छालो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 5 // सर्व संयमसाधनमुदस्तवान् संयमाङ्गनिरपेक्षः / जिनकल्पिकैरपि धृतं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 6 // न स्थातुं शक्तोऽसौ गणे जने वसति धामनि द्विष्टः। . नग्नो जगाम विपिनं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 7 // वासोरण्येप्यदधन कोपि संसर्गमस्य ना चक्रे / तदरण्यमहिषवदसौ नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 64 __आगमोद्धारककृतिसन्दोहे श्रतमाचार्यायत्तं न तवारण्ये गणाद्विभिन्न स्यात् / आजन्माऽनागमोऽसौ नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 9 // साख्यच्छोतुः पुरतः कथाश्चिदायात आत्मगर्विष्ठः / जिनपागमा विनष्टा नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 10 // तत्प्रेम्णोत्तराख्या स्वसा तदीया च वन्दनायागात् / तां नग्नां चक्रेऽसौ नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 11 // वेश्या जनचेतोऽर्थ तामाच्छादितवती च वासोभिः / नेह श्रमणीत्यूचे नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 12 // एवं त्रयमापन साधनमागममगाररहिता स्त्री। ___ व्युच्छिन्न मन्तव्यं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 13 // आद्य महाव्रतं ननु यतनायुक्तस्य नान्यथावृत्तेः / यतनासाधनहीनो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 14 // समितय ईर्याद्या नैतस्याऽमावाद्रजोहते रात्रौ।। गतिरप्रमाय॑ पिच्छान् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 15 / यावत् पदयोः परिधिस्थानं पिच्छं न तावदुन्मृज्यात् / करिपादमित रजोहद् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 16 // प्रवदन रजसा रेणोर्वातस्यापि त्यजेन् न हिंसां सः। भाषा समिति स्य नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 17 // पात्रामावेऽज्ञानी भजेन् न माधुकरी भुनक्त्येकम् / अगमशोधितमयत नग्नाटस्तेन मुवि प्रथितः // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. GUR Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ नग्नाटशिक्षा-शतकम् नाइयं न साधनं च प्रमाजेने तस्य / पपरिव यतनाहीनो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 19 // पमेयोऽन्युत्सृजन मावरहित उन्मत्तः / वाषायां यत्र तत्र च नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 20 // गागाचे समितीनां व्रतमाघ शेषकाणि तदभावे / उपकरण रहितो यन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 21 // लुम्मम्नागमसन्ततिमसती ननु घोषयेत्तु वाक्यततिम् / 3नं निरागममतं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 22 // पनामावादन्यः कुर्वन् गुरुवाक्यमन्तरा सततम् / विरतोऽयं नादत्तान् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 23 // के वस्त्र मङ्गोऽस्याभिमतं, कथमालयो न तद्र पः / / ब्रल न, नाशाद् गुप्त-नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 24 // उसमा चेत् सङ्गः, पिच्छं च कमण्डलुन किं सङ्गः ? / तीरं नीरं नष्टं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 25 // एवं महावतानां नाशस्तत्साधनादराभावात् / सत्यं बोटिकमुण्डः नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः // 26 // स्वाहादाई जैनं निरस्य सदर्शनं निवसनत्वे / एकान्तं संश्रितवान् नग्नाटस्तेन अवि प्रथितः // 27 // एपन्तिकमात्यन्तिकमडूमतमामघुमिरमिरामम् / मावस्य नैष मतवान् नम्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 28 // का एस नास्य सिद्धा मतेऽन्यलिङ्गाहस्थलिङ्गाश्च / P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे चरणाभावान् न वनिता नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / सुच्छेदं मिथ्यात्वं मतेऽस्य घात्यपि न कायगो वेदः। स्त्रीणां, तत् कियदाख्यं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 30 तत्वार्थाद्याः श्वेताम्बररचना मानिताः परं मोहात् / सत्योऽर्थो न तु विवृतो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 36 त्यक्त्वा जैन्याख्यां स्वं निर्वस्त्र ख्यापयन् जनेऽलजः / निर्ग्रन्थार्थ लुम्पन नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 32 // निर्ग्रन्थाः पञ्चोक्तास्तत्वाधषु तत्र भूषोक्ता ! वस्त्राणां लुम्पंस्तन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 33 // चरणे मोहनमुक्तं न चास्ति वस्त्रस्य मोहनं किश्चित् / निर्वस्त्रं निमूलं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 34 // ग्रह आश्रवेषु नोक्तो नेऽतिचारे च जैनशास्त्रेषु / / किन्तु परिग्रह इति वाग नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 35 सविशेषणेन गदितं यत्तु निषेधाय तद्विधि बते / __सामान्ये सिचयात्तद् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 36 // तत्वार्थेपि तदीये मूर्योक्ता यत्परिग्रहत्वेन / न परिग्रहमुपकरणं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 37 // सिद्धिर्न स तुषवच्चेत सकायसिद्धिस्तदा भवेत् किं नु / दहनयुताऽक्षतसिद्धिः नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः // 38 // सम्यग्दर्शनशुद्धं ज्ञानं चरणं मतं शिवे हेतुः। नाग्न्यं त्वजगलकुचवन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 39 / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ नग्नाटशिक्षा-शतकम् मध्ये क्रेये बाह्य चेद्वस्त्र ते मतिनिराशंसे / सक्ताङ्गन परं ते नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 40 // बाला असहा वृद्धास्तपस्विनः किं समर्पिता गृहिणे / ___ चारित्रं रक्षेयुः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 41 // वैयावृत्त्यं जिनताहेतुस्तत्सर्वथा त्वया त्यक्तम् / पात्राद्य ते न तद्यन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 42 / / सफलं वैयावृत्त्यं तपसि मतं तच्च नान्तरा वस्त्रम् / तल्लोपात्तल्ल म्पन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 43 / / येभ्यो बन्धस्तेभ्यः कर्मक्षपणं मतेऽत्र जैनेऽस्ति / स्याद्वादात्तल्ल म्पन् नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः / / 44 / / ये ह्याश्रवास्त एवाभिमताः शास्त्रे परिश्रवाः सर्वे / स्याद्वादात् तल्ल म्पन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 45 / / बालं ग्लानं वृद्ध तपस्विनं क्षुत्परिगतं मुक्त्वा / ___ जग्धन पशुवच्चकः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 46 / / बाह्यपरिहारमत्तो न्यषेधयद् विधियतां जिनाचा तु / ____ ग्रहिलांशुक्रवचलितो नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः / / 47' / भक्तार्पितकुमुदाद्यौः सङ्गो निलयातिशेषशौचैन / अर्हता विबुधाळ नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः // 48 // चक्षुहीना मूर्तिर्जिनस्य किं तत्तनुर्नयनहीना ? / ___ अन्धानुकरणमेतद् नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः // 49 / / तनुमित्रवर्ण वक्षयतो हि देहीति तस्य चेन्मूर्तिः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 68 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे नहि देहवर्णचक्षुः (नेत्रा) नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / स्वसमानं जिनराजं स्पष्ट लिङ्गवृषणाढ्याम् / विदधानोऽचों तद्वद् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 51 // व्यवहारेण हि वनिता न तस्य सिद्धिं व्रजेद्यतो लिङ्गम् / ___ पश्येदर्हति साधौ नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 52 / / उपकृत्युत्थापनतो नास्य जिनो न च मुनिन सङ्घोऽपि / साध्वीनां शून्यत्वाद् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 53 // अर्हन् सङ्घ धर्म दिशश्चतुर्विधमिमं न देष्टा स्यात् / ___ साध्वीनां शून्यत्वाद् नम्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 54 // स्त्रीणां निर्लजत्वान्नाग्न्यं न हि दुष्करं यतोऽध्यक्षम् / पुरुषाणामपि देहो विचित्रगण्डूपदादिधामाऽस्ति / हिंसा न चाप्रमादे नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 56 / / पुण्यनिकायोद्भूतं सर्वार्थे चेद् गमनमविरुद्धम् / स्त्रीणां तत्परमावः नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः // 57|| पुण्ये सति चेत्पापे न परा बुद्धिर्भवेदिह स्त्रीणाम् / को मोक्षे प्रतिबन्धो ? नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः / / 58 / / नाधो गमने शक्तिबलदेवानां ततः किमु स्वर्गम् / / गन्तारो खलु ते न नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः / 59 / / नियताधोगतिमन्तः किं हरयो ? यत्र ते सुरभवाहोः / जातिविशेषः स्त्रीवमग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 60 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ नग्नाटशिक्षा-शतकम् माम्यं न पुण्यपापोद्वन्धे जीवस्य मोक्षणे चेत्किम / तचानां भिन्नत्वाद् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 61 / / मत्स्यो यात्यध उत्तमक्षमा न सर्वार्थमेति किं नूर्ध्वम् / न बन्धेऽपि व्याप्तिः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 62 // जिन-गणि-मुनिराजः किं सर्वार्थ शिवपदं च गन्तारः / ___ यातारोऽधउदग्राः नग्नाटस्तेन भवि प्रथितः / 63 / / जीवस्य शुद्धिहेतुः परिणामो बन्धने तु हृदयस्य / जैनोऽवश्यं वेत्ता नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 64 // बन्धेऽपि चेन्न साम्यं पुण्यस्याद्यस्य तर्हि किं क्षपणे / ___ अहिलः साम्यं कुर्वन् नग्नाटस्लेन भुवि प्रथितः / / 65 / / मालिन्याजीवानां बन्धः पापस्य, शुद्धितः सुकृतः / अविदनेतन्मात्रं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 66 // सम्यक्त्वोत्पत्तौ प्राग यः परिणामो भवेन्न जीवस्य / . अपतन् सार्वज्ञ्याङ्ग नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 67 / / श्राद्धो मुनिवत्सामायिक भवन् पौषधे च विधियुक्तम् / नग्नः प्रमार्जयेत् किं ? नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 68) शय्यासंस्तारकयोर्लोपाच्छिक्षात्रते न सूत्रोक्ते / / . तेन मते विपरीते नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 69 / / एवं पश्चात्कर्म पात्राऽभावात सदा तवाऽऽपन्न / ___ अन्तगृहेऽशनाते नग्नाटस्ते भुवि प्रथितः // 7 // अप्रासुकजलमिष्ट' पात्राभावाद् गृहस्थवत्ते नु / P.P. Ac. Gunratnasuri M. Jun Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे शतमुखपातो भवतो नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 7 // शिशिरे तृणसंहत्या व्यवहारः सिचयवर्जनाजातः / वाहनमपि स्फुटं ते नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 72 // त्वद्ध तोहिणस्ते शिशिरेऽग्निं सर्वतः प्रकुर्वन्ति / त्वय्यनुकम्पां दधतः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 73 // दैगम्बरं न दर्शनमन्येषामपि स्वतो न सिचयानि / जैनं चेत् किमनेन हि नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 74 // श्वेताम्बरमेदार्थ चेत्ते त्वत्तः पुरातनाः सिद्धाः / व्यर्थ विशेषणं न नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 75 / / सत्यं जनस्त्वमुक्तः-किं वस्त्राणि न ते प्रदृश्यन्ते / आशाम्बरोऽहमात्थ नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 76 // द्वाविंशतेजिनानां बहुविधवांशुकादराद् भिन्नाः। एक सितसिचयाः कल्योऽयं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 77) भिन्नाश्चचत्तस्ते ख्याताः सिचयाङ्किता इति स्पष्टम् / स्युर्वाऽमी सग्रन्था नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 78 // अन्तर्व्याप्त्या साध्यं सिध्येदिति मन्यमानचेतास्त्वम् / यद्वा तद्वा प्रलपन् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 79 // स्त्रीणां नरकविशेषगमनं दुर्भिक्षमत्र किं ब्रषे। बाघव्याप्त रूपं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 8 // दुर्मिक्षे o कान निश्चलत्वं च भवति भुवि सिद्धम् / द्रुसुमी सितांशुका न तु नग्नावस्तेन भुषि प्रथितः / / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ नम्नाटशिक्षा-शनकम् न सिताम्बरागमेषु काचिच्छाया सुराष्ट्रसत्काऽस्ति / मोगतपिटकसमेषु च नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 82 / चलति मत नाऽशास्त्र त्वत्पाश्चात्यः कृतानि रुचितानि / श्रित्वाऽऽगमान् श्रुतानि नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // किं ते प्राच्या धतुं लघूनिदशकालिकादिशास्त्राणि / शिशु-पाठ्यान्यऽसमर्था नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 84 / शास्त्रे पट्टावल्यां विकृतिषु च कल्पयनसत्यं ते / / न सलजः किं मूरिः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 85 // निन्द्यो निरघोप्यर्हन् सलिङ्गमा त्वया जगति चक्रे / निरवद्योऽपि च मुनिराट नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // लिङ्ग सयोनि महता स्त्रिया समेतं च देवमन्येऽमी / न सलिङ्गवत्सलजा नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 87 // छन्न लिङ्गाण्डयग्मे तथा न लजां वहेदवस्त्रोऽपि / स्फुटलिङ्गाइयगाऽर्चा नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 88 / सिद्धत्वबुद्धिधात्री मूर्तिजैनेश्वरी ततो द्वन्द्वम् / तस्या आसनमनघं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 89 // वसनं न सिद्धताया लक्षणमिति तद्भवतु मा मूतौ / सिद्ध सामान्ये स्यात् नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / 90 / वतकं गिरिराज त्वयि लुण्टितुमागते सुधीः मरिः। चक्रऽश्चलिकाचि नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 11 // विष्टायां स्पष्ट मूर्ती तब लिङ्गाषणयुगलं स्यात् / P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 72 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे ___ गतबुद्धिना मतं ते नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 12 // सर्वे जिनाः सदृष्या निष्क्रान्ता इति धिया धृतयमञ्चलिका / पट्टलिकायां विबुधैः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 93 // गुरुवच्छिष्या इति चेन्मतं न तत् सुन्दरं यतो जिनाः सर्वे / इन्द्रवसनसंयुक्ता नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 94 / / नाशक्तः शक्तस्यानुकरोति चरित्रमुदारवृत्तः सन् / काकः किं हंसानुगः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः / / 95 / / स्तन्यं तीर्थे चैत्ये मृतौ शास्त्र कुले गणे सङ्घ / निर्लजः यत् कुरुषे नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 96 / न विना साधूस्तीथं तव तद्भट्टारकैः सदा विधृतम् / हिंसार्थरक्तचित्तैः नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 97 / / श्रमणोपासकभावः साधुषु सत्सु प्रभूतगुणसिद्धय / चित्रं तव केवत्वे नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 98 / सङ्घश्चतुर्विधः स्यात्तीर्थ तव हीनमेव निर्ग्रन्थ्या। त्रिपादमञ्चवन् ननु नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 99 // यावत्तीर्थ श्रमणास्तव तीर्थ साधुमन्तरेणापि / तद्धर्मेण विहीनं नग्नाटस्तेन भुवि प्रथितः // 10 // नम्नाटशिक्षणायैत-दायशतकमुद्धृतम् / सुरते साधुनाऽऽनन्दाद्रव्यानां हितहेतवे // 101 // . // इति नग्नाटशिक्षा-शतकम् // P.P. Ac. Gunratnasuri Aagadhak Trust amScanner
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________________ त्रिपदी-पञ्चसप्ततिका / सर्वे जिनेश्वरा बुद्धान् , जगुरादौ गणाधिपान् / उत्पत्तिविंगमो ध्रौव्यमिति पूर्णां पात्रयीम् // 1 // तत्रोत्पत्तेः समादाय पक्षं मान्यं मनीषिभिः / जीवाः संसारिणः सर्वेऽनुक्षणं चलिता यतः // 2 // चलितं स्याञ्चलद् वस्तु, चलनात् कर्मबन्धनम् / प्रतिक्षणमतो नान्यच्चलन चलिताद् भवेत् // 3 // मिथ्यात्वादिवशाज्जन्तोः स्वरूपाचलनं सदा / कर्मोदयादनामोगेऽप्येषां वन्धस्य हेतवः // 4 // यथा भुक्तात्तनौ सप्त-धातवो मलसंयुताः। / जीवानामन्धसोभोगाभावेऽपि पूर्वहेतुकाः // 5 // ये स्त्रमा परित्यज्य मिथ्यात्वादिदशां गताः। ध्रुवं तेपामुदीर्यन्ते तत्तत्कर्माणि तत्वणे // 6 // मिनः वणो नात्र कर्मोदीरणोदीर्णतागतः / प्रतिक्षणं ततः कर्मो-दीर्यमाणमुदीरितम् / / 7 / / न कोऽपि जीवः संसारी भवेत् कर्मानुदीरकः / चलितोऽङ्गी ततोऽवश्यं कर्मणां स्यादुदीरकः // 8 // कोष्टकाच्चला जीवाः सर्वकर्मसमदीरणाः / कमाण्यष्टाऽनुक्षणं ते वेदयन्ते कतानि प्राक् // 9 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaqadhak Trust led by CamScanner
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________________ / गरिमका / __ भागमोद्धारकंकृतिसन्दोहे वेद्यमानं वेदनं च न पृथक क्षणिकं यतः। वेदितं वेद्यमानं तत् समस्तं कर्म गीयते // 10 // न च कोऽप्यस्ति संसारी नागतः शिवसाधनम् / प्रतिक्षणं च यः कर्माष्टकं वेदयते नहि // 11 // कर्मणां देदितानां स्या-दवश्यं क्षय आत्मनाम् / एवं पदानि चत्वार्येकस्मिन्नात्मनि नित्यशः // 12 // निर्जरा कर्मणां देशान्नाशः सोऽत्र क्षयः परम् / भेदा द्वादश तस्याः स्युः शिवाप्त्यै साधुभिः कृता / / 13 // (स)कामेयमिति ज्ञेया निर्जराऽपि क्षयात्मिका / भुक्तानामंहसां कास्य-नाशात् प्रक्षय ईरितः // 14 // चतुष्पदी विना नास्ति यथाङ्गी भवभूतिभाक / एनां तथा विविक्तैिषा नाङ्गिनि क्वापि सम्भवेत् // 15 // भवोऽस्या न विनतां स्यात् स तद्र प एव सः / / उत्पन्नपक्ष इत्याप्त-राम्नातोऽयं गणेशिनः // 16 // गणेशाश्च निशम्यैनं गतिजातिमुखाः समाः। मार्गणाः सूक्ष्मबोधास्ताः शास्त्र वातेनुराहतीः // 17 // एवमणवाद्यजीवेषु प्राक पर्यायविनाशतः। चलनं नूतनोत्पादाभिमुखत्वमुदीरणा // 18 // तत्तद्भावेन यत्स्थान-मएवादीनां विधा पुनः / विस्रसारमात्मयत्नोत्थं, समं वेदनमुच्यताम् // 19 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner Trust
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________________ त्रिपदीपञ्चसप्ततिका तः क्षये पुनः प्राच्य-पर्यायचय इष्यताम् / प्रजयस्तेन सर्वेषा-मजीवानां तदात्मता // 20 // दीनां वगाहादौ वर्णादिषु च रूपिणाम् / ये भावास्ते समेऽप्यात्ताः पक्षणात्पतिनामिना // 21 // तत एव मुमुक्षूणां यथातत्त्वद्वयं मुखे / जीवाजीवात्मकं ख्यातं भवहेतुस्तथा श्रवः // 22 // पुण्यं पापं विचित्रश्च बन्ध अात्मभिरं हसाम् / तत्त्वषट्कं समुत्पत्तेः पक्षे स्याद्विततं दुवैः // 23 / / द्वितीयोऽपि च पक्षोऽस्ति यो विगमात्मतया स्मृतः / भिन्नस्थानि पदान्यस्य छेदाद्याख्यानि पञ्च तु // 24 // आश्रयः पुण्यपापे सबन्धे च प्राणिषु ध्रुवम् / सयोगकालमर्यादं समेध्वस्त्येव यद्यपि // 25 // नादेयत्वं तथाप्येषां ध्र वं यद् भवकारणम् / सर्वोऽप्युत्पतिपक्षोऽय-मित्येकस्थत्वनिर्णयः / / 26 // जैनेन्द्रशासने नैवा-भ्युदयः साध्यतां व्रजेत् / मोक्षसाध्यं मतं जैन मोवश्व विगमात्मकः // 27 / / अनन्तान् पुद्गलावर्तान् जीवो भ्राम्यन् भवोदधौ / मऽव्यवहारमावे सोऽनादितो भवं श्रितः // 28 // कालादियोगतो बध्न-अल्पं निर्जरयन् बहु / नव्याऽभव्योऽपि वा कश्चिन मनुजत्वं समन्नुते // 29 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे दशोक्तमक्रियावाद स्यान्मिध्याव्यमिनिश्रितः / / कृष्णपक्षः स नियमात् चिन्वन् भूर्यल्पमुज्झति // 30 // भव्यङ्गयपि च नैतत्स्था स्याच्चरमावर्तभावमाक। मितानामी दृशां-भाषा-दूहुबन्धेऽपि न क्षतिः / / 31 // कश्चिदेव ततः शुध्यभङ्गी स्यात् शुक्लपाक्षिकः / क्रियावादं दशोक्तं यः श्रित्वा स्यान्मार्गसङ्गतः / / 32 // स शुक्लपातिकोऽङ्गी सन् मुक्त्यर्थमुत्थितो पि हि। अज्ञोऽश्रद्धश्च मार्गस्य स्यादनाभोगनिर्जरः // 33 / / तथावस्थोपि सोऽङ्गयत्र कोटीकोट्यधिको स्थितिम् / सर्वेषां कर्मणां छिन्द्यात् प्रतिपात्यपरोऽप्ययम् / / 34 // प्रथमो विगमो हरष छेदाख्यो यदनन्तशः। छिन्नोऽपि जायतेऽनन्त-कायवद् भूरिशो भवेत् // 35 // भाविभतस्ततः कश्चिद भिनत्ति ग्रन्थिपर्वतम / अपुनर्भावभाव्येष, मेदः सम्यग्दृशामयम् / / 36 // सम्यक्त्वात् प्रतिपाते स्याद्रसो वृद्धो धन हसाम् / स्थिति न लङ्घयत्येव जातो मिथ्यात्व्यतः परम् / / 37 // द्वितीयो विगमो भेद-नामाऽयं सदृशौ नरे। अन्थि भित्वा न कोऽप्यङ्गी सदृशा वञ्चितो भवेत् // 38 / अत एव च तत्वार्थ-भाष्यकारैरदो मतम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ त्रिपदीपञ्चसप्ततिका अपूर्वकरण त हग येनासौ नर प्राप्नुते / निसर्गजा दशं शुद्धां नोक्तं करणं पुगेभवम् // 39 // भेदस्यताहशत्वाद्धि नानन्तो भेदरूट मतः / नरत्वस्यापि दौलभ्ये भिमोऽणुतिमाश्रितः // 4 // अनिवृत्ति मतं शास्त्र करणं दृष्टिसिद्धये / भेदं विधाय न ग्रन्थे-हीनः स्यान नरो दशा / / 41 // भाष्येऽनोऽपूर्वकरण-मेकमेव समीरितम् / मेदाख्यो विगमश्च व-मनिवोऽङ्गिनि क्वचित् // 42 // नैकेऽङ्गिनश्छिदां कृत्वाऽनन्तशः पुनरेव ताम् / न्धस्थिति समायान्ति पुरोगास्तु मिताः क्वचित् // 43 // मिथ्यादर्शनभेदान्त-मनेकेऽगुरिहाङ्गिनः / / देवा नैरयिकाश्चात्रा-वस्थिता न पुरो गताः // 44 // समानवाश्च तिर्यो यद्यप्यग्रेगति गुणे / कुयुस्तथापि तेऽत्रस्था भूरयः पुरतोऽल्पकाः // 45 // पुण्यवानन्त्यदेहोऽङ्गी कश्चित्तुर्याद्गुणात्पुरः। मारोहन क्षपकणि दहेत् कर्मावली समाम् / / 46 / / अनेकशोऽङ्गिना पापभेदोऽसङ्खयश प्राप्यते / पर नवपकश्रेणिस्तेन दाहोत्र कर्मणाम् / / 17 // यथा दग्धेरे नैष पुनस्तरसम्भवो न / दाहस्तस्य यात्रैषां इस भयो काहानी पुन | P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे कश्चिदेवाऽत्र जीवः स्याल्लघुक्षपणविश्रमी / परं नासम्भवस्तस्य ततो दाहः स्थितः क्वचित् // 49 // दुःखमूलो भवोऽनादि-र्भवः कर्मनिदानकः / कर्माणि मोहमूलानि दाहोऽतोऽस्य मतो बुधैः // 50 // कर्मकाष्ठोच्चये वह्नि-स्तपसो न परो भुवि / तपोऽपि ध्यानवेशयं क्षपकश्रेणिगं च तत् // 51 // छेदकानामसङ ख्योऽशः कमैंधोदाहको भवेत् / कालेनानादिनाऽनन्त-स्तथा जाता: शिवाध्वगाः // 52 // अनन्तः कर्मभिर्बद्ध-स्तैजसैः कार्मणैस्तथा / सदाऽङ्गी तेन वृत्तान-स्थो न सूचिस्ततोऽपि च / / 53 // निगोदजीवगोलानां ततो वृत्तावगाहना / विहाय लोककोणादि-भागान् लोकेऽत्र गोलकाः // 54 // अस्पृशन् मध्यमंशं न कोऽपि लोके निगोदगः / . असंख्यास्तादृशो लोके गोलाः सोऽनन्तजीवकः / / 55 // प्रतिगोलं वगाहाः स्यु-रसंख्या निगोदा गतसंख्यकाः / व गाहेऽनन्त जीवाश्च निगोदे चूर्णपूर्णवत् / / 56 // अनन्तांशो निगोदस्य गन्तुमर्हति निवृतिम् / नासंख्यांश क्वचित् काले भव्यच्छेदस्ततो न हि / / 57 // व्यवहारे स्थितः सिध्येबानन्तास्तद्गतासवः / एक षटकायावस्थितिनित्या जीवोच्छेदो न तद ध्र वम् // 58 // P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ त्रिपदीपश्चसप्ततिका मा नराः (पुनः) सिद्धि यान्ति षटकायगः पुनः। Aष्टम्भो न तत्सिद्धि-मगुः सर्वेऽपि देहिनः / / 59 // मोहप्राणानि कर्माणि मृतान्यस्मिन् गते पुनः / यावदन्त्यां गुणणि मृतकर्मप्रमारणम् // 6 // जादीन द्वादशान्त्ये सयोगेऽन्त्ये सदादिकान् / समुद्घातेन निघ्नन् स्या-म्रियमाणस्य मारकः / / 61 // संसारप्राणभन्नक-मप्यषु कमे तन्मृताः। सर्वेऽयमी भटः पापा नियमाणं मृतं ततः // 62 // एवं सत्यपि कालोन विलम्बयति देहिनम् / तत्पृथक् स्थायितैषा न परा यत् सर्वमोक्षगाः // 63 / / अनादिकालतो जीवा बद्धकर्मप्रवेदनाः / वेदितानां क्षयो नूनं निस्सताकः परं न सः // 64 // नितरां जरणं तद्यत् स्यानिःसत्ताकनाशनम् / / वस्तुतस्तद्वान्मुक्तः प्राणी वाचिकनिर्जरः // 65 // अयोगिनि न योगाना-मेकायं रोधनं तथा / योगाभावेऽप्यधीशास्ते कुर्वते कर्मनाशनम् // 66 // श्रेण्या प्रागेव सर्वाणि कर्माण्यावर्जीगः प्रभुः / छत्वा खय्याणि शैलेशी समाश्रयति केवली / / 67 // भवान्त्ये सर्वकर्माणि शरीराणि च सर्वशः। नेशुरेषां ततोऽत्रैव जीणं तु जीर्यमाणकम् / / 68 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे भावाः सामयिकाः सर्वे दीर्घकालं श्रिता अपि / आरम्भः समयेऽन्तान पृथक तज्जैनशासनम् // 69 // पञ्चैते विगमे मेदा, नानास्था भिनकालतः / नानाघोषा व्यञ्जना च ध्रुवा नवपदी पुनः / / 70 // एवं भवस्य मोक्षस्य रूपं गीतं जिनेश्वरः। गणेशिनों पुरस्ते च द्वादशाङ्ग श्रुतं व्यधुः / / 71 // लोकायाः सप्ततिश्चार्थी औपपातिककीर्तिताः / तृतीये तु पदे ध्रौव्येऽ-हद्विरुक्ता गणेशिनाम् // 72 / / लोकानुभावता इयेषा यथा लोकादिसंस्थितौ। तथा शुभाच्छुभं कर्मा-शुभाद्योगात् परं पुनः / / 73 // नित्यत्वादेवमर्थानां द्वादशाङ्ग श्रुतं ततः / वाच्यार्थापेक्षया नित्यं रचना शब्दरूपतः / / 74 // उत्पाद-नाश-ध्रौव्याणा-मेवमाकर्ण्य सिद्धिदं / रूपं गणधराः सर्वेऽप्यानन्दाद् द्वादशांगभाः // 75 // @XXXXXXXWWWWWWXXXVXDYO पू० आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरपरिकृता / त्रिपदी-पञ्चसप्ततिका समाता ORNITO P.P. Ac. Gunratnasuri M un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गणधरसार्धशतक-समालोचना / नवोत्तसं धुलेवस्य केशरीयं जिनं मुदा / चारित्रसिहमिथ्योक्ति दशगामि सुबुद्धितः // 1 // गणवरसार्धशतकगं प्रकरणं तेन यत् कृतं मत्या / तद्गतमशेषमेष हितबुद्धयाऽऽलोचयाम्यत्र / / 2 // गदितं यत्तेन वावनं सूरीणां बर्धमानसम्झिनाम् / / प्रवचनसारादिगानां गाथानां तन् न युक्तिमद् भवेत् // 3 // प्रवचनसारो हि परिमिः विहितः श्रीनेमिचन्द्रमुनिधुर्यैः / पश्चात् तत्तद्वाचनमसम्भवि स्यात् कथं तेषाम् // 4 // पत्तननगरे गमनं जिनेश्वराणां मतं तु परीणाम् / / अनुवर्धमानमरेः पार्थक्यात् सङ्घतिलकेन / / 5 // अत्र तु सहैव तेषां खाष्टवियदिन्दु 1080 सम्मिते वर्षे / गमनं मतं न च तदाऽजीविषुर्वर्धमानविदः // 6 // घरा वार्याः पक्षं पूर्व मण्डनको व्यधुश्च त्ये। वासस्य तन युक्त यन्नासन् ते तदा विज्ञाः / / 7 // सत्सु च मुनिपेषु विज्ञाः वर्धमानेषु खरतरं विरुदम् / दास्तेभ्यो न मता जिनेश्वराः प्रज्ञया बहुलाः // 8 // राष्पकतो वा विजयो विद्यमानेषु गुरुषु सङक्रामेत् / छ / कृतो यथाऽतो स्वामिन्येवेष्यते तत्वात // 9 // P.P. Ac. Gunratnasuri MS in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ 82 भागमोद्धारककृतिसन्दोहे किश्च सदाऽमयदेवा जिनेश्वरा बुद्धिसागराश्चाऽऽसन् / जावालिपुरे यस्मात् तत्र कृतं ग्रन्थयुग्मं तैः / / 10 // श्रीमजिनेश्वराभयदेवाभ्यामष्टकस्य सद्ध त्तिः / श्रीबुद्धिसागरेण च व्याकरणं संस्कृतं नव्यम् // 11 // तत्तद्ग्रन्थान्त्यभागे वर्षाङ्कः स्थानसंयुतो दिष्टः / स्पष्टः सत्यप्येवं यदन्यथाख्यानमेतत् किम् // 12 // परीणां प्राग्दीक्षाऽमयदेवानां बभूव तत्कालात् / यत्वसमञ्जसमथनं तद्ध्यान्ध्यं ज्ञेयममितमिह // 13 / / दुर्लभराजा नाभूत्तदा नृपः पत्तने यतस्तस्य / दशशत्यां सप्तसप्तत्यां पएमास्यां च्युती-राज्यात् // 14 // संवेगरङ्गशाला कुना रमाला जिनेन्दुपरिवरैः / स्थानाङ्गादिविवरणान्यभयमुनीन्द्रनिबद्धानि // 15 // सुरसुन्दर्याश्चरितं बुद्ध्यम्बुधि-चरणकमलभृङ्गममैः / अल्लोपाध्यायपदैरचितं तद्वर्षतः पश्चात् // 16 // एवं श्रीवीतरागनुत्यनुयोगं गुरुः प्रभानन्दः / चक्र परं न क्वापि खातरविरुदस्य गन्धोऽपि // 17 // न जिनेश्वरैर्न तदनुगमुनिधुबिरुदमुक्तमेतद्धि / मुक्त्वा खररटनपरान् खरतरगच्छात्मजान कैश्चित् // 18 // द्रोणाचार्यैः शुद्धिवृत्तीनां कारिताऽङ्गवृन्दानाम् / प्राचार्यामयदेवने स्यात् सा है: समं क्लेशे // 19 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ गणधरसार्धशतक समालोचना शगच्छधुः श्रीजिनचन्द्र कृतस्य शास्त्रस्य / वितं भाष्य पूज्यैः कथं भवेद् द्व पभाक्त्वेऽदः / / 20 // तत्प्रामाण्यात् पूज्या नवपदशास्त्रस्य मेनुरईत्वम् / श्रावतेषु भङ्गातिचारपाथक्यमा वख्युः // 21 // पञ्चाशकस्य वृत्तावुपासकाङ्गस्य विवरणे सम्यग / न यथाछन्दत्वे तत् तेषां पूज्याः समाख्यास्यन् // 22 // किञ्चाभयदेवगुरोः स्वागतेः कतिपयेषु वर्षेषु / जातेषु मता जिनवल्लभस्य गणिताऽस्य किमु पदगा? // 23 // जिनवल्लभः स्वकीये प्रश्नोत्तरषष्टिशतकमध्येऽवक / शिष्यत्वं कूर्चपूःस्थ-जिनेश्वरस्यायतनगस्य / / 24 // मुन्यग्निभूमिचन्द्र वर्षे जिनवल्लभस्य शिष्येण / कोट्याचार्यांय वृत्तिलिखिताऽस्यान्तेऽलिखत् भोऽपि // 25 // जिनवल्लभस्य गणिनः कूर्चपुरीयस्य शिष्यतां स्पष्टम् / सा पुण्यपत्तनम्था विलोकनीया प्रतिविहः // 26 // न च कोपि शिलालेखो विलोक्यते विक्रमार्कमनुशत्याः / पूर्व खरतरनाम्नोपलचितस्तत्कथं प्राक् तत् 1 // 27 // किन्वाभयदेवरिः स्वयमाख्यत् सूत्रवृतिपर्यन्ते। . शुद्धिोणाचार्यैः कृतेति पूर्व कुना वृत्तिः // 28 / / आमद् द्रोणाचार्या विहिता वृत्तिरोपनियुक्तः। / साऽभयदेवानीन्दैन शोधिता तत्र को नेता / / 29 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्वारककृतिसन्दोहे विहितोपसम्पदि श्रुतेः स्पष्टतयाऽाचि किं पदेशत्वम् / वर्धमानसरिः स्वपदे न्यस्तो न सन्दिष्टः 1 // 30 // किचाभयदेवरेर्मतं न लोकाः समाददीरंश्चत् / कि कर्णजापकल्पनमकारि तमामतः कूटम् // 31 // वसतेरनर्पणात्ते वासश्च चण्डिकामठे श्रद्धैः। जिनवल्लभस्य तत् कि मुधाऽस्य चामुण्डिकत्वं स्याद् // 32 // षष्ठं गर्भापहारं द्वितीयमाख्यात् कथं न शुन्यमनाः / ध्वनि ममाहसमूहस्य चात्राप्रकाशितस्पोक्तिराख्याति // 33 // चैत्यनिवासिभिरपि तन न्यषेधि किं वल्लभेन भणितं नु / कि चैत्यवामि-चैत्ये महं विकीर्षाऽभवत्तस्य // 34 // मुनि चन्द्रशिष्ययुग्मे कलकदानं स्वभक्तवश्यत्वे / स्वोत्कर्षान्यापकर्षकृते खराणां स्वभावोऽयम् // 35 // श्रीमन्मुनि वन्द्रसरिस्तकसिद्धान्तवित कथं तस्य / शिष्यो सिद्धान्त थं तस्यागातां समापे नु // 36 / / मृत्युविषये यथाऽस्य विपर्ययो मासवर्षयोतिः / स्वस्य तथा षष्ठे श्रीवीर कल्याणकेऽप्यभवत् // 37 // संहननम स्थिनिचर्य सिद्धान्ते कथ्यते तथाप्यस्य / महती भ्रान्तिर्जाता यच्छक्ति प्राह स्वग्रन्थे // 38 // मलयगिरीशैः स्पष्टं जीवाभिगमस्य विवरणे ख्याता / तुर्योपाङ्गस्य तथोत्सूत्रोदितिरस्य तद्विषये // 39 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गणधरसार्धशतक समालोचना बताभोगपम्भवमाशङक्यं यत् स्वतः समाख्यात् सः / वैररीत्याद् विषयं शक्त्यस्थिसंहत्योः // 40 // वृत्तो कल्पस्सोक्तं हस्तोत्तरा बहुवचनमालोक्य / कमाणकबाहुल्यं दुर्गेवाऽस्यापि तद्विषः // 41 // यता स्वाभाव्या बहुवचनं फाल्गुनीरवात् कोशे / याकाणे चाख्यातं तत्तग्रन्थाधुरैमुनिभिः // 42 // एवं सत्यपि येऽन्ये जगुः फलं तत्र तत्र तद्वचने / तदनाभोगजमखिलं तद्वोक्षणसम्भवं यस्मात् // 43 // दोक्षाऽनि जिनदत्तश्च कार नूत्नाङ्क रावले शम् / तरफलमोक्ष्यं विबुधैरनाग्रहः किं मुधा स्तोत्रः // 44 // यच्चोदितं ममाऽऽसीत् चोटिका तां प्रदेहि येन गृहम् / गच्छामीत्यस्य फल विबुधाः स्त्रयामृशन्न धिया / / 45 // ईनिलावलीयं यत् ख्यातं गोर्जरत्र संयमिषु / श्रीपर्णाक्षालम्मश्रुतयोऽपीत्थं निजीन्नत्यम् / / 46 / / न कृतं बाहडचैत्ये लध्वाचार्गतस्य जिननत्यै / नमनं जिनदत्तस्याभवत् ताश्चत्य गर्थक्यम् / / 47 / नाऽर्चा कार्या नार्या जिनदत्तोपज्ञमेतदार्याणाम् / सदान्तविरुद्धत्वात् कथमेयाद् मान्यतां वाक्यम् // 48 // शास्त्रका स्पष्ट द्रौपदीस्वर्णगुलिकाप्रभृतेः / निविधानामर्चा जिनकोशोच्छेदकोऽयं तत् / / 49 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्वारककृतिसन्दोहे सविहितधुर्ये देवाचार्येऽम्याख्यानमाहितं तैस्तत् / विबुधैज्ञेयं तत्कुलमावसमं नान्यथा किञ्चित् // 50 // इत्येवं जिनमार्गमाप्य सुविधः पन्याः समालोक्यता, सत्यासत्यविवारचारुचरिमा किं स्त्रीयमिथ्यासः / चिस्या भावदयाऽमिमानरसिक व्धेऽनृते संसवे, सद्बोधावगताईदागममुधैरानन्दमाप्यायकैः / / 51 // OLVAYALALAYO QUBXXXXXXXXXX[ WWW.XXZYZXWXBO 0 आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरभरिकता गणधरसार्धशतक-समालोचना समाता INNEBEARERRANBERRIMININNASTO P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ तीर्थ - पञ्चाशिका। तीर्थेशा भविनां सदा विदधतु श्रेयोनिधि सन्त्रतं. ये भव्योधृतिकारकाणि विशई तोनि गीन्परम् / यद्वजगतार्थमाप्तनिपुर्णर्दिष्ट्वा श्रुतं स्थापितं. नाना-जन्नुविमो वनेन स्थितिमत्तार्थ कृतं सिद्धये // 1 // प्राप्त्वा तीर्यकरादिकाच्छुचितरं बोधं जगनारकं, लात्वा संयममस्तपापमनसा धृत्वा च यावद्भवम् / प्रान्ते मोक्षगमैकवेतनधरातीर्थ कराऽऽदेशतो, यत्रैत्याऽव्ययधाम साविततमास्तीथं तक सिद्धिकत् // 2 // भये प्रान्ते या. स्पादवनिसरतां धर्मनियता, मतिः सा मुस्य चेन भवति तीर्थावलमवा / तदित्यं मत्वा कि शिवगतिगमेच्छु (पु) मुनिजनः, सदा तीर्थ स्थास्नु प्रतिनियतमक्त्या स्मरति न ? // 3 // युगादिनेता जगदीशवर्यः, श्रीपुण्डरीकाय गणाधिपाय / कैवल्पमुक्योवरणं प्रभावात् , सिद्धावस्येच्य रुरोध तत्र // 4 / सपञ्चकोटीमुनिसंयुतस्य, कैरसमुक्ती गिरिराट्प्रभावात् / निशम्य मुख्यस्य गणेशितः कि, भन्यो गिरीन्द्रममुमयेन / प्रभूता सङ्खयेयं न भवति च यतत्कुल भवा, अतीताः सङ्खयां यन् न च बहुतंमा धर्ममतयः / P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 88 भागमोद्धारककृतिसन्दोहे तमेगाप्रियताः प्रवरगिरिराज शिवको तास्ते साधनगणिराजस्थ गणिताः॥६॥ यथा विदेहाः सततं जिनानां, स्थानं स्वकोपाय॑तमप्रमा तथैव सिद्वादिर न पश्ये-दमयजावः स्वाहानभावात् // 7 // नात्राऽऽप कोऽपि जिननाथ उदात्ततेजा, मोक्षे तदत्र परिभावयतु प्रधानम् / वीर्य न यत् स परसत्वालालमेत, साध्यं यतो जिनवराः स्वालेन गुप्ताः // 8 // निरीक्षधापगायाः परं तीरमाप्त, भुजाभ्यां नरस्तारकं नैव ब्रह्मात् / नावं तु यत्नावलि जात नामां, क्लीवः स्वयं या न सरोऽपि यायात् श्रीनेमिनाऽपि गिरिरैवतमात्मनीना, मुक्ताः शिवाय मुनयोऽपि परःसहस्राः / ततीर्थराजमहिमानमारमाप्ताः, श्रद्धाय तीथमनिरां मनसा स्मरन्ति // 10 // * श्रीपोरनार्थेन शिवाय नै के गाररूपाः प्रहिता गिरीन्द्रान् / वैमारमुपा शिपमापुरेरो, गिरोन्द्रमाहात्म्यमनमाप्य / / 1 मुनीनां शिवायास्ति नैकं सुधाम, मतं विज्ञास्ता मामि शिनोका मुनेर्मोक्षहेतप्रवाना, ततः स्थावर तीर्थनाम्नायत वरं दर्शनं श्राद्धवयों लमेनयदीतेत तीर्थाधिपानां सुत्र सुजन्मानगारव कैवल्पमोता-वगन्तवमा या भविन वार्थमाम्नायते // रनमा या भविना शिवाय // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ तीर्थ-पञ्चाशिका क्षेत्रं च कालं विविधमनुसरन् जन्तुराप्नोति बोधि, विधा जैनीयमेतन्मतमतनुधियस्तेषु रक्ताः सदैव / व्यायेषु प्रकृष्टेष्वखिलजनहितेप्वादराचत्समग्रे वाराध्येषु तेषु प्रगुणविधये सावधानाः सदाऽऽप्ताः॥१४ चितीर्थान्यधुनापि सम्यक, सम्यग्दृशां बोधिकराणि मत्सा। तीन तीर्यभवां करिष्ये, श्रुत्वेदमायान्तु विदः प्रमोदम् // 15 // संसारेऽत्र तन: श्रिता जिनवरैः प्रोक्ता द्विधा प्राणिनो, दरे ते शिवधामसङ्गतिविधौ ये सन्त्यमव्याः पुनः / ते गन्तार उदारमोक्षपदवीं ये संश्रिता भव्यता, तेषामेव परं सुखाय जिनरातीर्थानि धर्मादृतेः // 16 // भव्या मोषपदं प्रयान्ति निजगामाश्रित्य भव्यात्मता, / यद्यप्यत्र तथापि निर्मलतमा जीवाः परं हेतवः / काष्ठेऽग्निर्भवति स्वभावजनितो नान्यं परं वर्जितु, तद्वन्मुक्तिमितान् विधाय शरणं भव्या लभन्ते शिवम् 17 मोक्षस्याप्तिरिहोद्भवेद् गुणगणाद् दृश्याः परं नो गुणा, जीवानां स्वपराश्रिता भगवतस्त्यक्त्वा समस्तार्चितान् / गम्या लिङ्गत एव ते मतमिदं जैनं गुणानां मतिलिङ्ग नेति मता शुभाऽत्र विबुधैर्मुक्त्यै जिनाराधना // 18 // अन्त्यावर्तमिता भवन्ति शिवदान जीवा जिनेन्द्रादिकानहीः सेवितुमात्मशुद्धहृदया नान्यत्र कश्चित् पुनः। स्यादाराधनमव्ययार्थकमलं द्वारा गुणैस्तद्वतां, / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे मेवारशिवसाधनाय विदुषां देवादितचत्रये // 19 // संसारेऽस्मिन् परममहनं युज्यते सिद्धिगानां, मुक्तास्ते न व्यवहृतिगतास्तत्तदर्चा कथं स्यात् ? / चेन्नाय॑न्ते परमविधिना मुक्तिधामान्यमीषां, तल्लोकानां शिवपदकृते तीर्थपूजादरोऽय॑ः / / 20 // पूजा गुणानां गुणिजनेन, न चान्यथेत्याहुरुदारमावाः / प्रभात एव स्मरणं पुरैव, परमेष्ठिमन्त्रस्य जिनाश्रिवानाम् // 21 // पुष्टय गुणानां गुणिनां समादृतिः, पूजा परं स्याद्गुणिनां गुणास्पदम् / / अतो हि पूजा द्रविणैरपाष्टा, जिनादिषु मुक्तिपथोपदेशकः // 22 // मुक्त्वा यतः प्रातरुपासकानां, सामायिकाद्य गमनं मुनीशान् / नन्तु जिनानर्चयितुं च योग्यं, शास्त्रे मतं श्रष्ठतया सुर्धाभिः / / पूजां जिनानां सुरनायका व्यधुः, सत्प्रातिहार्यादिभिरादरेण / अतो गुणानां विधये कृतार्थाः, कुर्वन्ति सेवां विविध सुत थे / कर्तव्यमेतत् कथितं सुधीभि-विमुच्यमाना सुविधाववश्यम् / सेवा हि तीर्थस्य विधीयतां यतः, संसारसेतुः परमो हि ताथम् // गुणास्तारका जीवराशेर्भवाब्धेः, परं स्वाश्रयीभूतमेवाङ्गिन ते / सहायीभवन्ति प्रकृष्टानि लोके, सतीर्थानि सर्वानपि तारयन्ति / अष्टापदे यो नमतो हि मुक्ते-हेतुर्मतोऽन्त्येन जिनाधिपेन / नै गुणिनामपि पूजनं जगौ, कश्चित् क्वचित्तेन सुतीर्थसेवा (सुधीबजेद ) // 27 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ तीर्थ-पश्चाशिका तीर्थानि तीर्थपतिभिर्विविधानि लोके, संस्थापितानि विहितान्यनुमोदितानि / स्थास्नुनि तेन शिवसिद्धय आप्तवर्याः तान्याद्रियन्त शिवमाप्नुमबाधसौख्यम् // 28 // आराधना विधियता चिरकालगा स्यात्, तीर्थेषु या स्थिरतमेषु न सा परेषु / कालं बहुं स्थितिमयेत् न परं हि तीर्थ, स्थास्नूपयाति तदसङ्ख्यमनेहसं यत् // 29 // सम्यक्त्वभूषणतया प्रवर मतं त __ च्छत्रुञ्जयादिवरतीर्थगता हि सेवा / यदर्शनादि भवतीह शमक्षयोत्थं, स्थास्नुस्वभावं न परं तु स्थिरं सदैव // 30 // कालान्तरे जनततिर्जमति प्रवीक्ष्य, तीर्थ ततोऽनुसरति तद्गतमाशु धर्मम् / आराधका अपि भवन्ति तदेकतानाः, कालं बहुं निजकभावमनुश्रयन्तः // 31 // उत्सगांदिविधिस्ततः श्रुतधरैरुक्तः समाराधने, स्थास्नूनां वरतीर्थराजसजुषां यत्तीर्थराजां सदा। तान्याराध्य परं पदं स्थिरतराण्यापुस्त्वनन्ताः शिवं, __ तीर्थानीति विभाव्य सन्ततममून्याराधयन्तूबताः // 32 यत्तीर्थ कर्मभूमौ भवति शिवपदं तत्र भूयो जनानां, . P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे मन्यादीनां विहारस्तदनुगतिपरा ईयुरुकृष्टभावाः / श्राद्धास्तेनाखिलः स भवति हि विषयो धमेबुद्धया प्रको जावं स्थास्तु तथे प्रतिदिवसमदः सेवनीयं सुमिः // 33 // मक्या चिन्तां गृहकनकगतां देशवारित्रवन्तो, भागं प्रान्त्यं निजमवनियतं चेद्वयतिक्रान्तुमीयः। स्थानं मिन्नसुकृतपरतया ते हि तीथोनि मुक्त्वा. नाम्पत्र स्यरनपविधिना स्थातुमीशाः कदाचित् // 34 // देशे देशे प्रतिनियततया भूमपस्तीर्थराजां, तत्तत्रत्याः सुकृतरसिकाः शिश्रियुः सजनास्ताः / भावोल्लासात् परिकरसहितास्तीर्थभूमी: समग्रा, ____ वन्दन्ते ये श्रवणपथगतास्तेऽर्चनीयाः परेषाम् // 35 // एवं तीर्थानि यानि प्रवरवषादान्याद्रियन्ते प्रकाम, संयोगे तत्सरेषां सुकतविधिजुषां वन्दनायैव तेषाम् / स्मार्याणि स्पष्टमेतजिनपतिमततोऽनूनवात्सल्यमेतत् , श्रस्वैतत् कः सचेता प्रतिदिवसममून्यचयेन प्रकामम् // 36 स्यक्तसङ्गा जीर्णवस्त्रा गता हिंसाधनः सदा ऽऽरम्भमुक्ता धर्मसूक्ता नै लिप्ता गृहाश्रमे / तेऽपि मुक्त्वा गणं ग्रामं गतास्तीथ शिवाप्तये // 37 // सञ्ज्ञां ये विरकालिकीमनुदधत्यङ्ग श्रिताः संसृता, ते सङ्करवशानुगाः प्रतिकलं यावद्भवेजीवनम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ तीर्थ-पत्राशिका सङ्कलाश्च समीपवस्तुविहितास्तीर्थानि हित्वा न वै. वस्तवातगताहि साविलयते हीना दशा प्राणिनाम 38 // तीर्थान्येव गतानि कुत्सिततरैगलम्मनः सर्वथा, तत्रैवासमसाम्यकुण्डसरणं शान्तात्मनां चिन्तनम् / संसारानलतीव्रतापविहतिर्नान्यत्र लभ्या बुधै हित्वा जैनमतानुगानि निखिमान्येतानि तीर्थान्यरम् 39 / उपाधिमुक्तं सुसमाधिहेतु-र्धामापरं नैव विमुच्य तीर्थ मागत्य शेषे तत आयतार्थी श्रयेत तीथं सुसमाधिहेतुम् 40 / दृष्टी समायान्ति न तत्र मन्मथा-नुभावुकाः केऽपि विकारभावाः। अर्हनिवासा यतिनां प्रवासा-स्तीर्थेषु सर्वेषु मुदेक्षणीयाः // 41 // नैति श्र तिं तत्र रवोऽङ्गनानां, विकारहेतुः प्रशमामृताः / ध्वनिर्हि सर्वत्र ततो न चित्तं, स्थाद्धर्ममग्नस्य चलं कदाचित् 42 तीर्थानि हित्वा परमात्मचिन्ता-मग्नत्वमङ्गी यदि गन्तुमिष्टे / हित्वा पयो लातुमभीप्सयाभ, घृतस्य तन्नैव सतां हि मान्यम् 43 आहूय गच्छाधिपति समाधि-माधातुमैच्छत्तच्छुचिभावनाभृत् / श्रीगौतमं श्राद्धवरस्तथापि, मुग्धः प्रियायां गतवानधस्तात् // स्त्रात्मा यथा स्यात्परयोगतोऽपरे, स्थानेऽघलिप्तोऽशुभभावनां श्रितः / परेऽपि सम्बन्धिन आप्य योग, तथाविधं किं न विदध्यरंहः / 45 / / विमेषि चेत् कर्मततः समृद्धि-र्ज्ञानादिभिस्त्वं शिवसाधनोत्कः / P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 14 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे ततोऽन्त्य आराधयितुं सुमार्ग, तार्थानि जैनानि समाश्रय नारी तीर्थ यद्यपि दर्शनादिगुणगं कर्मावरोधक्षयावाश्रित्यामलबोधभावसहितैर्विज्ञैर्मतं तत्त्वतः / जैनानां मतमुद्यतं अतमतं भिन्न न यत्कारणात्, कार्य तेन मतं जिनेन्द्रगदितं तीर्थं समस्तं श्रुतम् // 47 // अन्या शास्त्रततिर्भवेन् न नियता शब्दोलवा यसरैरर्काग्निभ्य उदीरिता श्रुतिततिर्माता मरुदयः पुनः / जैनेन्द्र तु भवोत्तरैकतुमुलं शास्त्रं स्वादुत्थितं, तत्तीर्थ गणधारिणः श्रतततेः कर्तार आप्तैर्मता // 48 // मता यथा श्रीजिनराजराजिभिः,, समा गणेशा वरतीर्थरूपिणः / तथैव सद्दर्शनमुख्यमोक्षा ध्वलम्भतस्तार्थधराऽपि तीर्थम् / / 49 / / इत्येवं सुधियां सुतीर्थगमनायोक्ता सुपौरियं, येन स्याच्चरमोऽपरो वृषविधिः शेषोऽपि तत्साधनः / शुद्धा शास्त्रवचोऽभिखंचिततमा पञ्चाशता सत्प्रियैभेव्यानां सततं दधातु हृदयं स्वस्यां परं सिद्धये // 50 // आनन्दसागरपरिकता [ पू० भागमोद्धारक-माचार्यप्रवर-श्रीमानन्दसागर तीर्थ-पश्चाशिका समाप्ता] P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ सिद्ध-पत्रिंशिका / जानानि सर्वाणि बनावृतानि, जीवस्वरूपाणि सदा दधासि / परं न लेख्यं प्रतियान्ति कोटी-श्वरालये रीरिगणा यथान / / चिन्तामणि धारयति स्वचित्ते, परं भवेद्व श्रमणाम उचः। तथैव कैवल्यमनुतणं दधत, सदैव चित्सौख्यपरोऽसि मान्यः॥ अदणोर्यगं यद्वदधिष्ठितं स्यानान्योऽन्यघाति न सहायक / युगं तथा केवलमाश्रितो विभुः, प्रतिक्षणं किन्न बुधेश्वराय॑ः / / यथाकविज्ञो गुणयुक्तभागे, क्रमाश्रितः स्याजिन ! तद्वदेव / न चेन्द्रियार्थानुभवं : पनो, विदनशेष गुणवस्तुजालम् / 4 / शक्तस्य यूनो गमने यथेह, नापेक्षणीयो घनयष्टिमारः। यथास्थसौख्यै निजरूपजाते, प्राप्ते प्रभो ! ते शुभकर्मसौख्यम् / / यथेह विद्वनयने चिदब्धौ, लीने सुखानां ततिमाश्रयेते / तत्केवलाप्त्या सुकृतस्य ते विभो ! ममः सदात्मा निजभानसौख्ये // 6 // नित्यो विमो! ते सुखदुःखवेद्य-कर्माणुनाशोऽस्ति परं समर्थः निर्णित्त संख्यैकरसो यतो न, यूनो ह्यपेक्षा शिशुगन्त्रीप्राप्त्यै // कालोऽयं किल वस्तुजातनिवयं नित्यं स्वभावैः परा,- . पूर्वयोगवियोगरसिकैयुङ क्ते वियुङ क्तेऽपि च / सोऽयं चिन्मयतां परामविचलामाप्तामननां त्वया, दृष्ट्वा कि विललाप नाखिलखलध्वानः परं ते यशः // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धार ककृतिसन्दोहे या महानन्दसेतुम्। प्रभूतामवाल्यामनन्तामवार्या-मवाल्मवाद वरिष्ठां समृद्धि प्रभो ! ते समाक्ष्य, हिकालो विभो ! सामुदिताऽन्तकाख्यम् // 9 // प्रतीतिस्तत्वार्थे जिनप ! विधिना यात्वविचला, सका ते सम्यवत्वं यदि खलुभवेत्सा स्वदुदिता / त्वक तामत्येत्य स्वरूपमविचलं नित्यमगमस्तथापि त्वय्येतत् क्षयभवमपीश स्तुतिपदम् // 10 // जीवादितत्वेषु दधार रागं, योऽसौ भवेन्न नमनन्तमाथी / त्वं वीतरागोऽसि कथं ह्यमुष्य, .. माथी विचित्रो हि भवत्स्वभावः // 11 / / भवेत देशादवन्दमात्राद्विरक्तिराप्ताश्रितजैनमार्गे / त्वं सर्वदा मुक्तविरक्तिभावः, कथं व्यत तोऽसि तकचतुष्कम् // प्राप्राणान्तं व्युपरतिरघात् सर्वमेदाद् वधादेः, चारित्रे च त्रिविधत्रिविधं पापबन्धोऽन्यथा तु / चारित्रं तव्यतीत्याभवपदमगमश्चित्रमेतत्परं य माघस्याऽल्पोऽपि भावो जिन ! खलु महतां विन्तनीयं न वृतम् / 13 // म्यतीत्य सर्व कलुषं कषायं, स्यादाप्तभावो निखिलो जग जगत्कषायव्रजसिद्धबोध, कथं विभो! वामकषायमा व्यतीत्य चत्वापि जीवितानि, ... न कोऽपि जीवचपदेशभाक् स्यात् / / नामकषायमाहुः // 14 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्वारककृतिसन्दोहे अजीवितस्तं तु परं समस्तां, पजीविताद्धां खलु भावभूतेः / / 15 // जिन! स्वदुक्तीरवमन्यमाना, बानकी वाऽथ पिशाचकी वा। सामर्थ्ययोगाद् भवतैव मुक्ता___ स्तथापि पूज्योऽसि जगत्यधीशः // 16 // नामापि नाम्नो भवतीह लोके, सुकर्मणः सत्कृतिशालिपंसाम् / अनीत्य तच्छाश्वतसिद्धनामा, _भवास्तवोक्तिः कथमाप्तगम्या // 17 // जिन ! दाज्ञां शिरसोदहनपि, न मोक्तुमिच्छामि तनूमिमां खलु / यतोऽनया सा प्रभवश्व मुक्ते रस्या अयं लाभरमः खलस्तु // 18 // जिनेशमार्गोऽयममृदृशस्त्वयो-दितो यदस्मात् शिवशर्म लात्वा / समापि न ग्राह्यमतो निकृष्टा, भवेत् कृतघ्नात्मदशा कथं न / यह प्रशमयन्ति पण्डिताः, स्वान्यशान्तिशमितान्तरारयः।। व सदा शमयसि प्रयोषयन्, स्वान्यविग्रहविनाशपेशलम् // समाप्रबन्धेन निवेदितं त्वया, न सारयुक्तास्तनवो नराणाम। P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ सिद्ध-पत्रिंशिका त्वद्ध्यानमोक्षप्रभवो ह्यमुस्माद्, दृष्टवा कथं तन्महनीयतास्पदम् // 21 // न कर्म सलाम इहाद्रियेत, न चेहमुष्मात् तव चिन्तनादिकम / विराध्य वाक्यं त्वदुपज्ञमग्न्ये, तल्लिप्सुरेवेह जनः कृतज्ञः॥ लोकेऽपि पूज्यो भविता स एव, यः शुद्धगोत्रं स सुवृत्तमाप्तः। गोत्रेण वृत्तेन च हीनरूपो, कयं नु देवेन्द्रमुनीन्द्रपूज्यः // आप्तोऽवयं दानगुणं निहत्य, तदन्तरायं जगतामधीशः / हित्वा च तं वं शिवमाश्रितोऽहन दानभावो नु शिवप्रदायी // ___ लामा लभ्यनरमवगता अन्तरायादिमुक्तः, सिद्ध बाधाव्यपगमयुतं नासिद्धं कदाचित् / मुक्तस्त्वं सर्वथाऽसि प्रसममतिवृतेने व लाभश्च तेऽणु, चित्रं ते सच्चरित्रं जगति नु मनुते कः सचेता मुनीन्द्र ! // 25 // ___ अभूदपूर्व तब वीर्यमर्हन्, यदा भवस्थो जनताविमोही / वीर्यान्तरायचयभृज्जिनः सन्, हहाउसमर्थस्तुणकुजतायै 26) भगवन् वायिकं ज्ञानं, दर्शनं चापि शाश्वतम् / धारयनात्मसौख्याब्धी, मग्नोऽनन्तबलः प्रभुः // 27 // न योगा न कषायास्ते, संवरस्ते निरर्थकः / न च कर्माणुसङ्गस्ते, निर्जरा किंफलं सृजेत् // 28 / / कुताथे: सर्वथा देव ! न शिष्टं तव साधनम् / वार्यऽनन्तेऽपि कि ते स्यात प्रवृत्तिः कर्मसङ्गदा // 29 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे यथार्था नाथ ! ते सिद्धिः, श्रेणियां पात्यघातिनाम् / नाशं विधाय यत् प्राप्ता-जादिनों न च कल्पिता / / इहानन्ताच्युतं बोधं, लम्बा स्वामिन् ! गतः शिवम् / __ अपुनर्भवभावत्वात् सत्यं पारङ्गतः प्रभुः // 31 / / अनन्तर्या पुराश्लिष्टा, सिद्धस्तां श्रितवान् भवान् / गुणानां श्रेणिमत्युग्रां, परम्परागतस्ततः // 32 // वस्तुसवान्मतिमुग्धा, येषां नैरात्म्यमाश्रिताः / ते नो विदन्ति यन्मोहोमिषङ्गादसतोऽपि च // 33 / / मत्या स्मृत्याश्च वैचित्र्यं, विदनात्मनि पण्डितः / जीवं ज्ञानमयं ज्ञात्वा, त्वां सिद्ध चिन्मयं महेत् // 34 // जीवस्य सुखरूपत्वं, बुध्यन् बुद्धं शिवं मतम् / सुखरूपं प्रपेदानः, सदाऽऽनन्दं स विन्दति // 35 // सर्वैरास्तिकसत्तमैरमिमता सिद्धिः परा ते प्रभो!, किन्त्वन्यान्यगुणापलापकलिता शोच्या सतां या सदा / किन्त्वहं भवहीरिता गुणगणश्रेण्या च या संयुता, स्तुत्या मे जिनराजशास्त्र महिमोद्गीता सदानन्ददा / / 36 // WWWWY (VXOXWWWWAZO . आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरमरिकता सिद्ध-पत्रिंशिका समाप्ता] GARANTININKOMMENDENDO P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ श्री सिद्धगिरि-पञ्चविंशतिका / तीर्थेषु प्रथम चकार जिनपः श्रीमान युगादिप्रभुर्यत स्वयं गणधारिणशिषपदं युक्तं स्वसाधूत्तमैः / प्रापय्यामितमापिवान् भुवि परं माहात्म्यमुग्रं तकद्, भव्याः साध्यविवृद्धये सुमनसा नित्यं भजन्ता मुदा // 1 // भीपुण्डरीकाचन एष भादौ, श्रीपुण्डरीकाय गणाविपाय। युताय साधूतमकोटिसङ ख्यः, प्रभावतः स्वस्य शिवं ददो प्राक् जिनोऽप्यनेकानि समाययो प्राक, पूर्वाणि भव्याजविवोधनाय। युगादिनेता तददः समय, भव्यैः सुर्त थे विमला चलाख्यम् / न कोपि देशो नरलोकमध्ये-नन्ता न यत्रागुरबाधधामा / जोवाः परं क्षेत्रशुभप्रभावात, सम्प्राप्य रत्नत्रितयं शिवेऽगुः / / सङ ख्यातीतान्यत्र चैत्पानि चक्र - भव्या मुक्त्यै नैव सङख्यां विधातुम् / . शस्य पत्र निवेनैष सानु-स्तनव्यानां सर्वदाऽऽराधनीयः॥ वैराग्यरङ्गपरमात्महितं विधित्सु जैनो जगत्यपरसर्वमतान्यसाध्यः। एकान्तमाश्रयति सैव ततो अमुष्य, तीर्थानि सानुशिखरेषु विशेषतोऽपि // 6 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे दृश्यन्तेऽचलमूर्धसु प्रतिगिरि देशेऽज तीर्थान्यरं, श्रीशत्रुञ्जयमुख्यधामसदृशान्यन्यान्यलोकातिगम् / शान्तत्वं हि मतं शिवाप्तिसुभगं जैनेन लोकातिगं, तीर्थान्यस्य ततोऽचले वनतले वैराग्यरङ्गाहतौ // 7 // परे परेशा विविधान्यवात्सुः स्थानानि वृन्दावनमुख्यकानि / कामादिदीप्त्यै न च तीर्थराजां, वैराग्यरङ्गादरणात्तथाऽभूत् / / विहाय राज्यं सकलां समृद्धि, स्निग्धं कुटुम्बं च समस्तमौज्झन् / तीर्थेश्वरास्तद्विजने गिरौ वा-ऽवात्सुने यन्मोक्षपथोऽन्यथा स्यात् / यथैव वैराग्यनिधिर्जिनेशो, मोक्षकसाध्यः स्थितिमान् प्रशान्त्या तथाऽपवर्गस्य नगादिवासं, प्राप्त्यै स शिश्राय न परस्तु कोपि / अतो हि लीलारहितं शमाढ्यं, स्थानं मतं ध्यानवरोपयोगि / जैनेजगारा अपि तेन जग्मु-र्मोक्षाय तीर्थानि गिरी स्थितानि॥ स्वभावभूतान् प्रतिपादयन् जने, जीवादिसार्थान् प्रवरो हिधर्मः। भवेदयं सर्वयुगेषु सिद्ध-स्तीर्थानि तस्यैव पदानि शान्त्यै // एवंच जीवाश्चिरकालजाता, अत्राऽऽगता आत्मविमोचनाय / ततः पदं शाश्वतमेतदन्ता-तीतासवश्वाऽऽपुरवाधधाम // 13 // न चास्ति देशोऽपर उत्तमोऽमू-दृशः समग्रेऽपि च लोकमागे / क्षेत्रानुभावं त्वमुमाश्रिता अगु-र्जीवा मनन्ताःपरमं शिवालयम्।। सङघोपि जैनो निखिलोऽव्ययार्थी, कालादनादेरिहत्साध्यमाप सदा प्रसिद्ध शिवधाम तीर्थ, भजन्ति चैन विविधं च लोकाः॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M. Aagadhak Trust amScanner
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________________ सिद्धगिरि-पञ्चविंशतिका माहात्म्यमुद्गातुमतो ह्यमुष्य, यत्नः कृतः श्रीगणधारिमुख्यः। कल्पोऽपि वजण धुरन्धरेण, माहात्म्य दृम्भोऽपि धनेश्वरेण / / मानं नो नियतं सदा गिरिवरस्यास्तीति तेनोच्यते, नित्येष्वद्रिगणेषु नो श्रुतधरैः शास्त्र परं सर्वदा / स्थास्नुत्वाभियमेन कथ्यत इह प्रायेण वै शाश्वतस्तस्मात् सर्वमनेहसं गिरिरयं संसारपोतायते / / 17 // भविष्यन्त्यां तीर्थाधिपतय इहानेक उदितं. लभिप्यन्ने मोदं परमपदमिता भाविन इह / सुनीनां सन्ताना असममहिमानं गिरिवरं, तदेष स्तुत्यः किं भविकनिचयस्यास्ति न परम् // 18 // विदेहेष सर्वज्ञसिंहो जगाद पुरः शक्रसिंहस्य वयं-प्रभावम् / श्रुत्वा च तत् सागतोऽत्र व्यधादू यत् सदुद्धारमेतस्य सिद्धप्रकामम् माहात्म्यमेतस्य निपीय चक्री, चकार चैत्यंप्रथमं जिनोक्तः / ततः परं सर्वमनेहसं तु, परापरैः पूज्यपदं समेतः // 20 // विमशवाहनभूप इहान्तिमोऽरकनृपेषु करिष्यति सद्धिया / भविकतारकतीर्थपतेः परां, हदि प्रधार्य समुद्ध तिमन्तिमाम् / 21 गिरस्योद्धाराः सानपाडा विहिता न शक्याः सह ख्यातुं मतिमनतिशयां ये दधुरिह / असाख्यो यत्कालो गणपतिवरस्याव्ययपदागवस्ते चाभूवन लधुलघुतरात्कालविगमात् / / 22 // P.P.AC.GunratnasuriM.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे विधाय षष्ठं तप पाहतोनां, चतसृणां त्यागपरो मनुष्यः / जोति यात्रास्तृतीये भवे सोऽवश्यं गमी मोक्षपदं तु सप्त / / नाभाविभद्रः स्वपनेपि पश्येत् शुभं तथा नैव नरो ह्यभव्यः / शत्रुञ्जयं पश्यति दृष्टिमात्रात् तीर्थ महत्तद्भविकाः श्रयन्तु / 24 / समेषां जगत्युत्कटानां भवाब्धेः परं तीर्थमेतत्सुतीर्थबजानाम् / अतः प्रत्यहं भव्यजीवाः प्रभाते, भजन्त्येनदत्युत्कभावं भजन्तः / गिरिवरं विमलाचलसञ्जितं प्रथमतीर्थमनुत्तरभावतः / / भवी भजन सुखसम्पद उत्तमाः शिवरमा अपिशीघ्रतरं श्रयेत् / / ONUMNO OYALARLXXVXDVALSZELLY WINNO पू० आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरमरिकता / श्रीसिद्धगिरि-पञ्चविंशतिका समाप्ता ANINNIHSHANISMISHR.XNXXXNNAIRSANAND P.P.AC.GunratnasuriM.S un Gun Aaradhak Trust Scanned by CamScanner
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________________ श्री गिरनार-चतुर्विशतिका / / श्रीउज्जयंतगिरिराजमुदारतीर्थ, भव्याः सदा नमत नम्रसुरासुरेंद्रम्, श्रीनेमिनाथजिनपादपवित्रितं तद् यस्माल्लभध्वमचिराच्छिवसम्पदं द्राक // 1 // सामान्यतोपि जिनराजविहारभूमिरागाढदर्शनकरी भविनां स्वभावात् / यदर्शनाद्भवति भव्यततेर्जिनानां, तीर्थाश्रिता शुभकृतिः सततं प्रशस्या // 2 // एकस्यापि भवेजिनस्य धरणिः पावित्र्यसम्पद्वती। विश्वव्यापिसुखाद्वयाकरपरं कल्याणकं जायते। ___ यत्रैकं त्रितयं परं जिनपतेस्तेषामभूदन भोः, श्रीनेमीशितुराप्तसम्मततमं तत्तीर्थमेतद्वरम् / 3 / / सैन्यान्मोहमहीपतेः पुरवरादिस्थानसंस्थाद्भयं शृङ्गारादिरसाञ्चिताद्वरतरस्याराममुख्यवृतात् / बिभ्राणाः शिवसम्पदे शुचितरं धामाजनं प्राप्नुयुस्तस्यावश्यमुदित्वरं फलमिहोद्दष्टुं गतोऽमुंजिनः // 4 // ___ यद्वा तां नृपबालिका नवभवसम्बन्धबन्धोद्धरां, छित्त्वा सर्वकुटुम्बरागनिगडान् मोहादिजानान्तरान् / पाशान् संयममाश्रयितुममलं स्थानं गिरीन्द्रोपगा द्राग गन्तुमुपादिशन् जिनपतिरेत्याग्रहीत संयमम् / / 5 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 105 आगमोद्धारककृतिसन्दोहे वैराग्यरङ्गभरपोषणतत्परं तं, ज्ञात्वा नगं जिनवरं सुखमाश्रयन्तम् मोहोहतां निजचमूमपशस्त्रवीर्या दृष्टवात्र नाशमगमद्धतवीर्यवन्द नष्टे वरिष्ठशुभसंयमघातदक्षे मोहे गतास्तदनुगाः प्रलयं प्रकाम् / ___ ज्ञानावृतिप्रमुग्व उद्घ त उत्कटारो, कि केवलादिगुणराजिरिहाहतो न / / 7 / / राजिमतिवरतरं गिरिराजसंस्थाssपत्केवलं विनिहतामतिदुष्प्रपञ्चम् / निर्विघ्नमेतदिह मोहलयाजिनेशाद् मीतस्यकर्मनृपतेनं बलं ससार / / 8 / / सामान्यतो जिनराजमनुश्रितोऽङ्गी, कैवल्यमाप्नुत इहोत्तमसङ्गमाध्यम् / राजी तु तन्मयहृदा मदनं जघान, कि तल्लभेत नहि तत्प्रभवप्रभावात् // 9 // या नेमिनाथ उदितं गतरागभावं; . .. चित्तं सदा धृतवती न परं जिघृक्षः / सा देवरं गतनयं पथमानिनाय, . तत् किं न केवलमसौ वृणुतेऽई दुत्का // 10 // .. ____ मन्ये मोचयितुं प्रियां भवगतां दुर्ग:समादेशित, मोहाद्यैस्तु सुदुर्गमं प्रतिगतो दुर्ग जिनेन्द्रः प्रभुः। / अस्या भावमनुश्रितं पतिमनु ज्ञात्वा सतीत्वोचितं, पत्नी किं शीलधारिणीमपि पतिः कष्टान्न रक्षेद्यतः // 11 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गिरनार-चतुर्विशतिका कल्याणकानां त्रितयं जिनस्य, श्रीनेमिनोत्राभवदुग्रभावम, कैवल्यमुक्तिप्रसिता दीक्षा, जाताऽत्र तत्तीर्थमिदं श्रयध्वम् // दिगम्बरस्तीर्थमिदं पवित्रं, जगत्यसाधारणसत्प्रभावम् / उहालयित्वा सितचीवरेभ्यो, ह्यनेकशाऽपीष्टमभूद् पृथा पुनः / / गाथान प्रथमं पराभवपदं ह्य जिन्तसेलादिका, या सिद्धस्तवसंश्रिता सुरकुना श्रीप्रामराजात् परम् / ऐन्द्रया स्वर्णधटीभिरुद्यततरं नीतं तृतीयं स्फुट, श्रीमत्पेथडदे कृतं भुवि परं नग्नाटवृन्दस्य ही // 14 // पुनः पुनर्जातपराभवा अपि, न तीर्थलुएटाकदशां त्यजन्ति / चौरा यथा नैकश प्राप्तशिक्षा, न चौर्यमुज्झन्ति तथास्वभावात् / / ग्रन्थाः श्वेताम्बराणां महिमभरयुता मूर्तयो ग्रन्थकारास्तीर्थानि प्राज्यतेजोधरविदिततमान्याप्त पूर्वाणि कीर्तिम् / लात्वा तान् स्फातिमिच्छर्न भवति जगति स्पष्टचौरो हि नग्नः।। चौरः समेतो गृहिणां गृहेषु, यथा न सौख्याय यतो जिहीषु: तथा कथश्चिजिनमन्दिरादिकं, जातु प्रविष्टो न हिताय नमः // रचोद्यतेषु सकलेषु सिताम्बरेषु, ग्रन्थादिकस्य तदपि प्रचुरान् प्रपञ्चान् / आचर्य मोषितुमनाः सततं प्रवृत्तो, नग्नाट एष तदितो न शुभ समेतात् // 18 // , मनास्ति देवमहिता परमातिशस्ययुक्ता सदा सुरकृतैर्विविधातिशेषः। P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्धार ककृतिसन्दोहे टपता मूर्तिः प्रभोः सुरपतिः परितुष्टचेता, इलाख्य सस्कृतिवराय यकां पुराऽहात् // 19 // / तन्मन्दिरं वरतरं धृतजीर्णभावं, योग्यं समुद्धृतिकृते प्रविधार्य सुज्ञः / श्रीसजनो दलपतिस्तूदधारयत्तम् / सौराष्ट्रसम्भवमशेषधनं व्ययित्वा // 20 // __ दृष्ट्वा समुद्ध तमिदं वरपत्तनेशः, श्रीसिद्धराज उदितात्मसुकृत्यभावः / ___ आत्मीचकार सुजनावलिसत्कृताङ्गः, सज्ञाऽत्र राजभुवनेति निवेशिता च // 21 // श्रीवस्तुपालसचिवो निजसोदरेण, सम्पग विचार्य वरचैत्यमिहाध्युवास / कोटी शतानि द्रविणानि मुदा व्ययित्वा // 22 // श्रीमालवीयवरमण्डपदुर्गवासी, सौवर्णिकोपि गिरिराजवरप्रभावात् / सङ ग्राम इत्यभिधया विदितो ह्यमात्य, चैत्यं समेत्य वरमावमिहातनिष्ट / / 23 // इत्येवं विविधैः प्रभावनि वयजुष्टो गिरीरवतो, भव्यनिवृतिमाप्तुकामसहितैराराधीयोऽन्वहम् / ते धन्या गिरिमेनमात्मशुचये शत्रजयाद्रेरिव, ध्यानं पूजनमान्यभावसहिता नित्यं मुदा तन्वते // 24 // मा.प्रा. श्रीपानन्दसागरसूरिकता भीगिरनार-चतुर्विशतिका समाप्ता P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगममन्दिर-षट्विंशिका / श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्धमहिमा कल्याणकैर्यत्रिभिदीक्षाकेवलनितिप्रदतया श्री नेमिनाथे जिने / नातोऽत्यन्तपवित्रताधर उपादत्तो मुनीनां गणैर्यत्प्राप्ताःशिवशर्म नैकमुनयः प्राप्य प्रभावं गिरेः // 1 // दिगम्बराः सर्वविरुद्धवादिनस्त्यक्त्वांऽशुकान्यूपुररण्यवासम् / तेषां न तीर्थेन युजांऽशतोपि, ततो न तीर्थं तदधिष्ठितं भुवि // तीर्थेश्वराणां जननादिभूम्यः, श्वेताम्बराणामखिला अधीनाः। अच्छिन्नतीर्थत्वमनूनमाधु-स्त एव तेनाखिलतीर्थवन्तः // 3 // सवस्त्रमार्गाद्विभिदामगुस्ते, दिगमरास्तेन पुरा जनानाम् / वस्त्रस्य शून्यत्वमपालपन्तो, दिशाम्मरत्वं जगदुः स्वकीयम् // सिताम्बराणां चरमाहेतत्वान्न पञ्चवर्णानि यदमराणि / सिद्धावलोऽयं सततं वशे तत्, सिताम्बराणां नहि तत्र चित्रम् यच्चात्र ननाटमतीयचैत्यं, नूत्नोद्भवं तत् कृपया परेषाम् // 6 // अत्राधिपत्यं सकलं वितेनुः, सिताम्बरा लोकनृालयादौ / तन्वन्ति कालेपि च वर्तमाने, नांशेन नबाट इहास्ति नेता।।७।। यान्यस्य तीर्थानि समीपवर्तीन्येषां प्रभुत्वं सितसिचयानाम् / हस्तात्कदम्बांब गिरौ ध्वजान्ते ताले च नमाटगमोपि नैव // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 106 भागमोद्धारककृतिमन्दोहे सिताम्बरेषु प्रथितं तु नाम, गिरेः पवित्रं जगति प्रसिद्धम् / श्रीसिद्धयुवतं नियत नमस्यं, क्षेत्र परेषां न मतं विचित्रम्(भिमम्) प्रत्रैत्य लोका व्यधुरादिनाथा-नुकारबुराचारयुगप्रमाणाः। यात्राः परोलक्षमिता हि वर्षे, प्रत्येकमीयुः सितचीवराकाः // 10 // समीक्ष्यास्य तीर्थस्य रूढां प्रतिष्ठा समेभ्यः पुनर्दिग्विभागेभ्य प्राप्तान / जना यात्रिकानत्र सच्चैत्यवृन्द, सदा नून्ननूनं व्यधुः स्वात्मसिद्ध्यं / 11 // प्रत्यब्दमायातिमवेक्ष्य यात्रा-कृते जनानां क्रमवृद्धिमाप्तां / जगत्यशेषे जनवृन्दमाह तीर्थ परं जैनमतेऽद एव // 12 // सदातनं वीक्ष्य गिरेः प्रभावं, परोऽयुतानां गमनं जनानाम् / शास्त्रोदितं शाश्वतभावमस्य, सनातनं कार्यमिहाद्रियन्ते // 13|| विवार्य सविबुधैः सुनीत्या, गीतार्थवृन्दं जिनवाक मयानां / स्थास्नु प्रमाणं च विधित्सु धाम समैकमत्येन बकार वर्यम् / / कालस्य दौरात्म्यमधिश्रयन्तः, सदागमाभ्यासपरेषु सत्स्वपि / सर्वत्र पाठं जिनवाङमयानां पृथक् पठन्तो वचरत्र नैव // 15 / / पुरा समीक्ष्येदादात्तधैर्या जिनागमान पुस्तकगान विध्युः / देवर्धिपादाः परतस्ततस्तन्मानं वा पुस्तगतं न चान्यत् // 16 // तत्रापि कालस्य दुरात्मताऽऽमात् नीचा जनाः स्वार्थपरायणा यंत्र पाठांश्च दृम्मांश्च नवान् विधाय, न्यवेशयंस्तत्र सुदीर्घपापाः P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागममन्दिर-पत्रिंशिका ततः स्थिरत्वाय जिनागमानां, पाठस्य दृम्भस्य च सोप्रधाम सर्मचमाणा रुचिरं तु मागे, जैना व्यधुरागममन्दिरंत्विह मम्माणि-खानिप्रभवा विशाला: शिला: समाहृत्य जिनागमालिम् / उत्कीर्य तासु प्रविधीयते चेत्ताभिश्च भित्तिर्जिनमन्दिरस्य // ततो ह्यतीतेषु युगेषु न स्यात्, पाठस्य हम्भस्य कणेन भेदः। न व्यत्ययोपि स्थिरताजुणोऽस्यास्तत्प्रस्तरेरेव सुवैत्यमाधुः // सदैकरूप्याय जिनागमानां, भेदाच पाठस्य सदावनाय / न्यस्ता शिलासु प्रभुशास्त्र संहतिः साधिष्ठितिश्चन्महनं जने स्यात् समीक्ष्य चेदं विदोत्र चैत्यं, जिनागमानां जिनविम्बयुक्तम् / यतोऽर्चनाढ्य जिनवाङमयाना___ माराधनं स्यात् प्रभुसन्निधानात् // 22 / / युग्मम् / / शचद्रवत्वं जिनवाङमयाना-मवेक्ष्य सङघेन जिनेश्वराणाम् / न्यस्तानि बिम्बानि सनातनानि, मुख्येऽत्र चैत्ये ऋषमादिकानि (नां) // 23 // सन्त्यहेता लोकगतानि चैत्यान्यनाहतान्येव परं घ लोके / शतं त्वशीत्या जिनबिम्बमान, सर्वत्र तेनात्र तदेव मानम् / 24 / समानतायै जिनवाङमयाना, लघुनि चैत्यान्यमितः कृतानि / समुद्रयुग्मप्रमितानि तत्र चतुष्कमस्थापि जिनेश्वराणाम् / 25 / चतुर्मु जीभूय जिनेवरा यद्-दर्गणिम्यो जिनशास्त्रवाणीम् / तस्माद्धि सर्वत्र जिनेशमृतीयतखाः सङघ इहापि चक्र / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner Trust
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________________ पागमोडारककृतिसन्दोहे जिनेन्द्रा दधानाः समस्ता हि मुद्रा समा योगसज्ञां जगुः सकतान्यान् / पर जैनमुद्राद्वयं पूज्यते सत् कृतं तु पर्यशयं सुबिम्बम् 2 // जिनेशबिम्बानि चतुर्मुखानि, विधातुमत्राकृत सचमुख्यः / सदशनाभूसदृशानि मोदात्, स्थानानि सुसहसुखाकराणि // जिनेश्वराणां जननोत्सवां यत्, सुरेशवृन्देन सुमेरुमूनि / सदा विधीयन्त ईतीह पञ्च सुमेरवः स्थानवरं विनाताः // 29 // चतुर्दिशं यद् गुरुमन्दिरेषु, मूले च चैत्ये विहितो निवेशः। सुमेरुरूपेषु जिनेश्वराणां, सदासनेज्वेतदचिन्त्यमावम् // 30 // स्थितः पुरेऽत्रैति गिरेरपित्यका वर्षासु पकायविराधनाचं / चैत्यं ततोऽदः कृतवान् सदार्चापदं हि सङ्घःसदुपात्यकोाम् / / देशे समग्रेऽप्यधुना हि दुरशको व्ययो जिनेन्द्रालयमक उग्रः / विचिन्त्य भावि प्रचुरा हि द्रम्माश्त्यस्य निर्वाहकने प्रात्ताः / / निर्वाहतूनिखिलाश्वकार, जलाशयाहीन प्रचुगर्थदानात् / भूमिर्विशाला च वितीर्य वित्तं, राष्ट्रादगृहीता भयमुक्ति हेतोः / बातेन सर्वो व्यवहार मात्तथ त्यस्य सच्छावकमङ्गतेन / ____ न कश्चिदत्रास्ति प्रभुः स्वयं यो, भविष्यति स्यात् सुस्तान्तरायः // 34 // प्रौढां प्रौदिमुपागताश्चिरतनाचार्योदधृता वार मया, उत्कीर्यातिशयेन साततमा श्रेण्यामानां युताः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ একাকিব-জুলিবিয়া न्यस्ता मम्मणिखानिसम्भवधिलाबन्दे पिछवापरा. स्तत् सर्वार्थसमेतमागमपदोपा वि मन्दिरम् // 35 // वस्तुवात इहायसन्नुपकताहारान् सदा सुन्दराद्, देशेभ्यो विविधेभ्यः साधनवर देशान्तरं प्रापणे / शंघ्र सौख्यकरं लघुव्यययुदं सर्वेषु साधारणं, लोकेषु प्रथितं सतोऽद उदिसं वैत्यं भुतामामिदम् // 36 // इत्ये जिनमन्दिरेण सहितं श्रीमागमानां वरं, . चैत्यं भव्यजनः सदा सुखयतु द्वन्द्व दृशोर्मोदतः। . दर्श दर्शमतिप्रभ भयहरं मोक्षाध्वनिर्वाह सद्धमर्थिजनेऽस्य सन्ततमपि प्रोच्याईगावाः स्तुतौ // 37 // पू. आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरमरिकृता / भागममन्दिर-ट्विशिका समाप्ता ] SWARRIOSSAITHIWRITWANAKISISRUS P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust led by CamScanner
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________________ श्रीगणधरपट्ट-द्वात्रिंशिका / जिनेश्वराः केवलमाप्य सर्वे, समग्रपर्याययुतान् समस्तान् / अवैत्सुरान् यदपेक्ष्य लोके, मानाश्रितवास्ति च मेयसिद्धिः॥ ज्ञातं न कैवल्पविदा तात्र, विश्वपि नास्त्या च वस्तुजातम् / न मेयमानत्वभवाऽनवस्था, कैवल्ययुक्ते जिनराजि चिन्त्या // एवं च दृष्टे निखिले जिनेन, लोके स्वपर्याययुते ह्यलोके। . द्रव्येषु पर्यायतया विबुद्धा, उत्पादभावाः स्वतः षट्सु तेषु // 3 // व्ययो न सत्त्वं व्यतिरिच्य सत्त्वं, विना न चोत्पत्तिमृते न वां तत सत्यन्वयेपि स्फुटमत्र सत्त्वं, प्रादुर्भवं प्रेक्षत उद्ध तत्वम् / / 4 / / ततो ग गे गान् प्रति तत्त्वावे, प्रश्ने पुरोत्सादमुवाच शम्भः। उत्पत्तिधर्माणि ततः समस्ता द्रव्याणि जजुर्गणधारिणस्ते // प्रतस्त्रियां प्रथमं न्यगादि, व्याप्तो हि दृष्टौ प्रभवोऽर्थवन्दे / नासौ विना पूर्वतरस्य नाशं, ततो द्वितीयं विगमोपि तत्वम् / / मावे मनाशेक्षणिकत्वसक्तिः, स्याच्छून्यवादोऽपि परावकाशः नार्थक्रिया नैव च कार्यहेतूभयं ततः स्माह जिनो ध्रु वत्वम् / / व्याप्ता तदेवं कथिता त्रितत्त्वी, ततो गणेशेषु समोऽवोधः / मुक्त्वा त्रयं नैव यतो जगत्यां, वस्त्वस्ति किञ्चिन च तद्वियुक्तम् // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे 114 एवं च स्याद्वादपथोपदेशाद्दिष्टं समग्रं जिनवाङ मयं स्यात पएणां यथार्थत्वनियोधनाच्च, धर्मादिकानां विलयोनी पदत्रयेणापुरशेषशुद्धि, समा गणेशा जिनसत्यभावात / दिनेशतेजःस्फुरणात्समानि, भवन्ति नानानि विकाशभान्जि। पीयूषतुल्यां जिनवाचमेते (निराय) भावादिति रम्परूगा / मोदावसाना भवतीह यत्, साधुक्रि पाङ्गादिकृति तथा व्यधुः // उत्पतिमुख्यां जिनाचनर्थस्वरूपिका लोकमु वाथेगावा / निपीय तां चक रशेषशास्त्रतति गणेशाः शुविसूत्ररूपाम् // 12 // विध्यर्थबद्धा यतिवर्गयोग्या, विभागयुक्ताः क्रमसङ्गताश्च / गणाधिपानां कृतयस्ततस्ताः, स्यात् मूत्ररूपा हि न तत्र चित्रम् // क्षेत्रे विभिन्न समये च मिने, जिनोपदिष्टार्थततेः प्राधः / गणे राब्धाच्छुवित्रवृन्दात्ततश्च तार्थ गणवारिणस्ते // 14 // यतो हि सङ्घो गणिदेशिताया, भवाब्धितीरं व्रजतीद्धरूपः / आलम्बनात्सूत्रततेस्तताओ, तार्थत्वरूपेग जिनैर्यवेदि // 15 // जिना हि तीर्यङ्करतामवाप्ता, न तीर्थरूपा गणधारिणस्तु / / प्रोक्ताः श्रुते तार्थतया यतस्तद्वाणी समालम्ब्य तान्ति भव्याः॥ गणेशवर्या अपि साधुवृन्द, स्वं स्वं समाश्रित्य कृति प्रवकः। ततः समेषां गणधारिणां स्युः, पृथक प्रथम्वावनिकाः कृतान्ताः / या शिवगामिनां नृणां, पोतायमाना भववाधितारे / त्यक्त्वा गणेशान् न परे ततस्ते, सर्वेपि पूज्यत्वपदं शिवार्थिनाम् // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ गणधरपट्ट-द्वात्रिंशिका न कार्यगृया नव जातिगृह्या, व्यक्तः पदं नानुपरन्ति जैनाः / श्रुस्तिवारम्भ इतो नमन्ति, श्रुनादिकत न समकर्म भोमान् / क्षेत्रे व जाता भरते पुरा ये, गणाधिपा ये महनास्पदं तत् / / सर्वे तो वसुभिराव्या, नम्या जिनानां द्विदशा तु सङ ख्या। नन्तार प्राप्ता न समोरकारानुगास्वमीषां गुणितादरोऽतः // समस्तनार्थेवरतीर्थपूजा, ततो विधात साताभिसन्धिः / ततश्चतुर्विशतिरहेता कृताः सत्स्थापनात्तद्गणधारियुक्ताः / मामे यतो भव्यजनोपक पदस्थिताः पूज्यतनाश्च तीर्थे / / 23 / / मोक्षाध्वसिद्धयै जिनपैर्जनानां, तीर्थ कृतं दब्धमशेषविद्भिः। समैगणेश द्य परमेतदद्य याबद्ध तं मृरिवरैः समस्तम् // 24 // तीर्थ ततोऽदोऽवधृतं मुनीशैः सत्माधुमिस्त्यक्तपरस्पृहैश्च / बायो न यत्र परपूर्वमागे. हितोपदेशनवरं प्रवृतम् // 25 / / अविप्लवं यजिनशास्त्रवृन्द, भव्यरिहाप्ये। शिवाध्व सिद्धथ / देवर्विगए पन्तगणाधिपास्तत् पूज्या यदीयावलिकात्र हेतुः // यथाहि तथं गिरिराजरूप-माराध्यमेवाखिलगच्छमानाम् / भेदोऽस्ति यन्नात्र विधौ कथञ्चित्तीर्थाश्रिते गच्छगतो विचित्रः।। सर्वे श्रिता गच्छाता मनुष्या, विरोध जिनशास्त्रगृह्यः। ततो निखि नैर्गणसंश्रितजन, स्थानं मतं पूज्यतमं सदैतत् // 28 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ आगमोद्धरक-कृतिसन्दोहे प्रतिदिनं भवनं परिपूजकै रिदमनाहतभावधरैर्वरैः। भरितायतपूजनतत्परै-जति चानुदिनं शुचिसिद्धये (कीर्तितति परमां भुवि ) // 29 // यथैव मोक्षाध्वनि दर्शनादिकं, मिथो विमिश्रं जनतेष्टसिद्धये। तथैव शास्त्राणि पदानि सिद्धर्थ , स्युस्तद्गणेशालियुतानि सन्ति / मार्गे जैने पूज्यतां ते प्रयान्ति, ये स्युः सिद्धाः साध्यता वा श्रिताश्च ( साधकत्वं गता वा) तमाराध्यास्तत्र दारार्थरक्ता, नहि स्यात् साधोः सक्तसेवा मनीषा // 31 // एकादशी तत्प्रतिमा प्रपन्नः, श्राद्धो न वन्द्यत्वपदं समेति / मार्गानुयायी गतशास्त्रबोधा, मुनिः सुरेन्द्रैः परिषेषणीयः / / ये मोक्षं परिसाधयन्ति जिनपाल्लब्ध्वा ससम्यग्दृशम् / पापेभ्यो विरति समस्तविषयां वाणी त्रिपद्यात्मिकाम् // यावत्तीर्थमशेषभव्यहितदां जग्रन्थुराप्तोदिति, ते सर्वे गणधारिणः शिवपदाप्यै सन्तु भव्याङ्गिनाम् // 33 // OXX2ZWYYDYZEXLYX29223XXXXXX पू. आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्राआनन्दसागरमरिकता ॥श्रीगणधरपट्ट-द्वात्रिंशिका समाप्ता॥ OMIRRRRRRRRRRRROWNRISTMAS OSVAPALIPO P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ अनेकान्तवाद-विचारः।। (पूर्व०) यस्मात् सत्चमसचं च विरुद्ध हि मियो द्वयम् / / वस्त्वेकं सदसदूपं तस्मात् खलु न युज्यते // 1 // मेदो वा म्यादमेदो वा द्वयं वा धर्मधर्मिणोः। भेदे नैकमनेक स्यात् अभेदेऽपि न युज्यते // 2 // दयपक्षोऽपि चायुक्तो विकल्पानुपपत्तितः। तेनानेकान्तवादोऽयमः समुपकल्पितः // 3 // न च प्रत्यक्ष वेद्यं कार्यतोऽपि न गम्यते / श्रद्धागम्यं यदि परं वस्त्वेकमुभयात्मकम् // 4 // पर्यायाऽमेदतो द्रव्यं नित्यं स्यात्तत्स्वरूपवत् / स्याद्वादविनिवृत्तिश्च नानात्वे संप्रसज्यते // 5 // प्रवृत्तिनियमो न स्याद् विषादिषु तदर्थिनः। मोदकाद्ययम्भूत-सामान्याऽभेदवृत्तिषु // 6 // मेदे चोमयरूपैक-वस्तुवादो न युज्यते / भेदाभेदविकल्पस्तु विरोधेनैव वाषितः॥७॥ विशेषरूपं यत्तेषु तत्प्रवृत्तेनियामकम् / साध्वेतत्किन्नु वस्तुत्वं तस्यैवेत्थं प्रसज्यते // 8 // सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः / चोदितो दवि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति ? // 9 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. un Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भागमोद्धारककृतिसन्दोहे अथास्त्यतिशयः कश्विधेन भेदेन वर्तते। स एव दधि सोऽन्यत्र नास्तीत्यनुभयं परम् // 10 // सर्वात्मत्वे च भावानां भिन्नो स्यातां न धीध्वनी। भेदसंहारवादस्य तदभावादसम्भवः / / 11 / / यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः। / स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते // 12 // गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते / तेनात्माभिनिवेशो यावत्तावत् स संसारे // 13 // आत्मनि सति परसज्ञा स्त्रपरविभागात् परिग्रहद्वषो। / अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते // 14 // कर्मक्षयाद्विमोक्षः स च तपसस्तच कायसंतापः कर्मफलत्वान्नारक-दुःखमिव कथं तपस्तत् स्यात् // 15 // न स्वेच्छाप्रतिपच्या विशिष्टसुखभावतुल्यवृत्तित्वात् / इष्टौ प्रतीतिकोपस्तदन्यान्धो द्वयेपि समः // 16 // चित्रं च कर्म कार्यात् सङ क्लेशादेव तत्क्षयोऽयक्तः। दुःख्येव तपस्त्रीति च तदभावो योगिनां चैव // 17 // अन्यदपि चैकरूपं तच्चित्रक्षयनिवन्धनं न स्यात् / तच्छक्तिसङ्करक्षयकारीत्यपि वचनमानं तु // 18 // अक्ले शात् स्तोकेऽपि क्षीणे सर्वक्षयप्रसङ्गो यत् / .. साकदिायात् तद्भेदो ह्यन्यथा नियमात् // 19 // ) मुक्तो न मुक्त एव हि संसार्यपि सर्वथा न संसारी। मानमपि मानमेव हि हेत्वाभासोप्यसाबेव // 20 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaqadhak Trust ed by CamScanner
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________________ अनेकान्तवाद-विचारः .. . एवं सप्रतिपक्षे सर्वेस्मिन्नेव वस्तुतत्वेऽस्मिन् / स्याद्वादिनः सुनीत्या न पुज्यते सर्वमेवेह // 21 // (उत्तर०) यस्मात् सचमसचं च न विरुद्धं मिथो द्वयम् वस्त्वे सदसद्र पं ननु तत् नि यज्यते // 22 // नामेदो भेदरहितो मेदो वाऽमेदवर्जितः। केवलोऽस्ति यतस्तेन कुतस्तत्र विकल्पनम् // 23 // . येनाकारेण मेदः किं तेनासाविति किं द्वयम् / असचात् केवलस्येह सतश्च कथितत्सतः // 24 // यतश्च ततप्रमाणेन गम्यते [ भयात्मकम् / अतोऽपि बातिमात्र तदनवस्थादिक्षणम् // 25 // एवं ह्य भय दोषादि-दोषा अपि न दूषणम् / सम्यग जात्यन्तरत्वेन भेदाभेदपसिद्धितः / / 26 / / तेनाऽनेकान्तवादोऽय-महः समुश्कल्पितः / न युज्यते वचो वक्तुमिति न्यायानुसारिणः // 27 // अयमस्तोति यो ह्यष भावे भवति निश्चयः / नैष वस्वन्तराभाव-संविच्यनुगमाहने / 28 // नास्तीत्यपि च संवित्तिर्न वस्त्वनुगमं बिना। ज्ञानं न जायते किञ्चिदुपष्टम्भेन वर्जितम् // 29 / / यस्मात प्रत्यक्षसंवेद्य कार्यतोऽप्यवगम्यते। तस्मादश्यमेष्टव्यं वस्त्वेकमुभयात्मकम् // 30 // मावेष्वेकान्तनित्येषु नान्वय-व्यतिरेकवत् / / संवेदनं भवेद्धर्म-मेदाभावादिह स्फुटम् / / 31 / / . P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ आगमोद्वारक-कृतिसन्दोहे 120 सर्वथा कारणोच्छेदाद् भवेत् कार्यमहेतुकम् / तच्छक्त्यवयवाधार-स्वभावानामनन्वयात् / / 32 // नित्यं योगी विजानाति क्षणिक नेति का प्रमा। देशनाया विनेयानु-गुण्येनापि प्रवृत्तितः / / 33 // नान्वयस्तद्विभेदत्वाद न भेदोऽन्वयत्तितः / मृद्ध दद्वयसंसर्गवत्तिजात्यन्तरं हि तत् // 34 // द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः / क्व कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन वा 1 // 35 // . अन्योऽन्यव्याप्तिभावेन द्रव्यपर्याययोः कथम् / भेदाऽभेदो विरुद्धः स्यात् तद्भावानुपपत्तितः / / 36 // नान्योऽन्यव्याप्तिरेकान्त-भेदेऽभेदे च युज्यते / अतिप्रसङ्गाच्चैश्याच्च शब्दार्थानुपपत्तितः / / 37 / / अन्योऽन्यमिति यदभेदं व्याप्तिश्चाह विपर्ययम् / भेदाभेदे द्वयोस्तस्मा दन्योऽन्य व्याप्तिसम्भवः // 38 // एवं शबलरूपेऽस्मिन् व्यावृत्त्यनुगमावपि / स्याद्वादनीतितः सिद्धौ यथाऽनुभवसुस्थितौ // 39 // इत्थं प्रमाणसिद्धऽस्मिन् विरोधोदभावनं नृणाम् / / व्यसनं धीजडत्वं वा प्रकाशयति केवलम् // 40 // [पू. आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरमरिकता ___ अनेकान्तवाद-विचारः समाताः एवं शवलसिद्धौ यथाऽनं नृणाम् / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ * श्रीगौतमगणवराय नमोनमः * अमृतसागर-मुनिगुरादर्शनम् / लब्धो येन समस्तदोषविकलो मोदैकहेतुः परं, स्याद्वादश्रुतदेशकोऽसमशमपाथोधिरर्योऽमरैः / भव्यानां शिवमार्गसाधन विधौ निष्णो जिनेशः प्रभुः, निम्रन्थोऽमृतसागरोऽयमनिशं जीयात् सतां मोदकृत् // 1 // ज्ञातो देवकुदेवसंयमधरानिवृत्तधर्मेतरेप्वात्मारामतयाऽखिलार्तिहरणो मुक्त्यै विशेषोऽभवत् / सम्यक्त्वं शिवकल्पपादपनिभं येनार्चितं लभ्यते, नि० / 2 / येन श्रीऋषभाइयो जिनवराः स्तुत्यास्पदं लम्भिताः, जीवाजीवपदार्थसार्थहृदयोद्भासैकदीप्तप्रभाः। कैवल्याश्चितविग्रहा गुणगणोचित्यै क्षमाः सर्वदा, नि०।३। ज्ञातं येन सुरासुरोरगनरश्रेणिश्रितानां सना, दर्शनमाप्तिधुरन्धरं स्वकदशादानकदक्ष मुदा। तीर्थेशां श्रमणौधशान्तिकरणं व्यापत्तिविध्वंसनं, नि०।४। लब्धा येन जिनेशसन्ततिपदाम्भोजेषु सौख्यकभू .. रर्चिष्मत्सु भवान्धकारनिकरप्रोज्झासने भाविनाम् / सवा स्वात्मरतिपदा शिवसुखप्रातिक्षमा तान्तिभिद् , नि. / 5 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ पाथोभिहरिचन्दनैः सुकुसुमेधूपैलिं संश्रितैः, पुष्पैः शुद्धफलैस्तथामिषवरैः पूजा तता नित्यशः। येनानन्तफलाप्तिसाधनसहा (तये समजनि) द्रव्योत्थिता भावयुग. नि०।६।। भव्यानां भविकाप्तिलम्पटहदां या कल्पवल्लीप्रभा, द्रव्यारम्भविनिर्गताऽखिलविदां चैत्यावलीवन्दना / / येनात्माखिलसम्पदाम्बुजभिदे सूर्यप्रभा लम्भिता, नि०।७। चित्रं मोक्षप्रदाप्तिजातमनिशं रूपं निरूपं श्रितां, मुक्तानां जिननाथतापदजुषामोकः कृतं मुक्तिदं / येनावापि शमेशसाधितपथालीनेन शुद्धात्मना, नि०।८। लीलालीनहृदः प्रभूतरुचयः देवाः सहस्रा भुवि, संज्ञासंस्मृतिमात्रकृत्तदुरिताश्चिहनेन सिद्धिप्रदाः / त्यक्ता दुर्गममार्गमंहतिहरं सत्यं श्रितो येन च, नि०।९। गर्भे येऽवतरन्त आदिमपले स्वप्नांचतुर्भिर्युतान् , दर्श दर्शमचीकृतन् स्वजननी मोदोधुरां तीर्थपाः / कल्पद्रोरिव वृद्धितः सुखकरा येनाशु श्रद्धां श्रिता, नि०।१०। प्राग्जन्माधिगतान्यथाऽच्यतियतानीद्धानि बभ्र र्जिनाः, प्रव्रज्याग्रहणादनु स्थितिजुषो ज्ञाने मनोवेदिनि / सर्वज्ञाः समबोधरोधदुरितध्वंसान मतास्ते विनाः, नि० // 11 // त्यक्त्वा मोहमयी विवोधमहिमप्राग्मारतोऽगारितां, श्रामण्यं समुपागताः सुरनरैर्ये सेहिरे विप्लवान् / संदृब्धान् सपरीषहान् गतवृषो देवा मतास्तीर्थपाः, नि०।१२। P.P. Ac. Gunratnasuri M. n Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ आरुयात्मबलेन संयमभृतः कर्मालिसंहारिणी. आणि कर्मचतुष्टयक्षतिमथानन्त वियोधं गताः / यनिर्दिष्टमिदं महाप्रबवनं ते येन युद्धा जिनाः, नि०१३। पौर्वापर्यविरोधदोषरहितं सत्साधुमिः सम्मतं, निश्शेषानिहितं दया वचनं मोक्षकमूलं दृढम् / सर्वर्जिननामकर्मकलितरुक्त मतं येन वै, नि०१४॥ साम्यं यनिरुपाधि संश्रितमनुप्रध्वस्तदोष सदा, देहे पर्षदि साधुसंयमधरे श्राद्धेऽन्यतीर्थाश्रिते। सम्यग्धर्मनिरूपणैकनिपुणैस्तेऽन्तः सदा स्थापिता, नि०।१५। सर्वेभ्यो हितमादिशन् द्विविधया पीडापरीहारया, ये धर्म दययाखिलार्तिहरणं जन्तूद्दिधीर्षान्विताः / सार्वाः शुद्धनयान्वितं मुनिगृहीष्ट येन ते सम्मताः, नि०।१६। सूक्ष्मं भेदशतान्वितं जनिभृता संरक्षणेऽगादिषु, धर्म सद्दयया युतं मखमुखां हिंसां निवार्याङ्गिनाम् / रक्षोपायमुपादिशन् शतविधं ते येन चित्तैर्वृताः, नि०।१७। आख्यन् वादमनर्थघातनिपुणं स्याद्वादसतं यतो, नित्यानित्यसमानताविषमतेकानेकधर्मान्वितम्। घटेष्टानतिबाधितं वृषकते ते येन सेव्याः श्रिताः, नि० 118 आख्यायाङ्गिहितं दयैकनिपुणं चक्र : स्वयं ये तथा, श्रामण्यं निखिलाघवारणसह वाकार्यसाम्ये स्फुटम् / / तेऽनन्यासमशान्तिकान्तिसहिता मान्या अभूवन जिनाः, नि०॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ लब्ध्वा ज्ञानमनन्तमस्तनिखिलाबोधं निहत्यांशतो, मोहादीन् चिरकाललब्धनिचयानाप्येन्द्रपूजां शुभाम् / व्याख्यन् धर्ममधिश्रिताः शिवसुखा येन कृतार्थाः पुनः, निका येषां वाग् निखिलाङ्गिबोधनपटुर्जाता स्ववाग्गामुका, भारत्या समदेश्यमिश्रिततया विश्वाय॑ताकारणं / ये सत्यं दधिरे जगद्गुरुपदं ध्याता जिना येन शं, नि०।२१। येनाप्ता नतिरहतां शिवकृतां सिद्धात्मनां निवती, स्वात्मारामतया सदा सुखजुषामर्थानुयोगश्रिताम् / सूरीणां जिनशास्त्रपाठनयजां सद्वाचकानां मुनेः, नि० // 22 // मुक्ता येन विभावसौ दिनकरे चन्द्रऽग्निवाय्वोः सुरे, सस्त्रीके भुजगे वटे शशिधरे रामे मधौ माधवे / अश्वत्थार्कशमीषु तारकधिया देवत्वबुद्धिहदा, नि० / 23 / येनोल्लिङ्गितमहेदादिचरणैस्तीर्थ श्रितं पावनं, जन्तूनां भववार्धिवीचिनिहतानन्दात्मना जन्मिनाम् / अव्यावाधपदाप्तिहेतुरसमं कर्मादिधाते पविं, नि०।२४।। येनाङ्गीकृतमात्मनि तिकृते शत्रुजयो रैवतस्तारङ्गोऽबुंदकेशरीयचपलाजीरावलीराणपूः / सम्मेतः फलवृद्धिरुजयिनीपू: पापा च चम्पा शुभं, नि०।२५। साकेतं च बनारसीपुरवर काम्पील्यमक्षीपुरे, पार्थः स्तम्भन आश्रितो गजपुरं श्रीअन्तरीक्षप्रमुः। श्रीमन्मण्डपदुर्गभण्डुकपती कुल्पाक सत्ये तथा, नि० // 26 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ सञ्ज्ञाऽष्टोत्तरमादधत् फणिपतिस्तुत्यो जिनेश शतं, सज्ञास्तप्रतिविम्बभूषितमलं तीर्थ जगत्तारकम् / बन्दं वन्दममेषतीर्थनिकरं धत्तं पवित्रं जनुः. (तीर्थ जनुः पावनं, नि०।२७। त्रिभिर्विशेषकम् / / दूराद् येन कृता निरस्तनिचया आशातना आहती, प्रत्यारोधिफला दुरन्तदुरिता सद्बोधविद्राविणी। आची बहकर्मभिरनुगता ज्ञानादिवातैः सदा, नि० / 28 / भक्तिः स्वर्गशिवालयाप्तिजननी सन्मार्गदानक्षमा, येनात्मोद्धृतिकारिणी शमपदा ज्ञानादिसम्पत्प्रमः / स्वान्यश्रेयस आहतो क्षमदला धर्मप्रभावकभूः, नि० / 29 / यस्य ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं वैशिष्टयबोधक्षम, सामान्यप्रवियोधक व तदिव स्वोभासिसद्दर्शनम् / जन्माधरहितं शिवं शिवदयं येनाश्रितं तत् सना, नि०।३०। आत्माऽनादिनिबद्धकर्मगुपिलः शेषान्तकोटी स्थिति, कृत्वाऽशेष विवाधिनां च करणे अन्त्ये विधायात्मना। वुद्धो मण्डितबुद्धनीतिसरणाद् येन प्रशान्तात्मना, नि० / 31 / लब्ध्वा दर्शनमात्मदर्शनकर त्यक्ता शरीरात्मता, लिप्सुर्यः परमात्मतामघचयोच्छेदैकनिष्णां शुभाम् / आत्मा येन सुसंस्कृताऽव्ययपदप्रेप्सुः सदा जातवान् , नि० 32 / सम्प्राप्तुनिजरूपमच्युतपदं लब्धं न यत् प्राग मनाग्दृष्टिज्ञानमयं विरागपदयुग जन्मान्तकायु झितम् / संसारार्णवपाति दुःखरहितं येनोयतं निस्तष, नि०।३३। P.P. Ac. Gunratnasuri M n. Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ एक माचार यस्त्वारम्भपरिग्रहाद्य परतो जैनेन्द्रमार्गोल्लसज्ज्ञानध्यानपरो गुरुः स मनसि सम्यक्त्वपूर्व धृतः। जन्तूनां शिवमार्गदो वृषपदं येनानुभावी सदा, नि० / 34 / गार्हस्थ्येऽपि सदा जिनेशयजनं भक्त्या कृतं द्रव्यतः, पाथश्चन्दनधूपदीपसुमनोनैवेद्यशुद्धाक्षतैः। / प्रातःसङ्गतसत्कलैः सह मुदा पावित्र्यजन्मनः, नि० // 35 // (येनाङ्गिपावित्र्यकतः) हेम्नां लक्षमनारतं प्रदिशतो यल्लाभ आप्यो नृभिस्तस्माद् भूरिफलप्रदं नियमतः सामायिक गीयते / ध्यात्वेति ध्र वमाचरद् जिनपतेर्येन श्रुते भक्तिभाग , नि०३६। श्रामण्यं चरितं नरामरपतिप्रार्थ्यं भवेऽनेकशः, दत्तं दानमनेकधा धृतमिदं शीलं चमत्कारकम् / तप्तं दुस्तप आत्मनो हितकरी सद्भावना भाविता, नि० 37 / निर्दोष फलवद् भवेत् सुमनसां कर्मेह पारत्रिकं, मत्वेति प्रसभं समावरदहो आवश्यकों सत्कियां / घस्राद्य हतिशोषिणी शुभदृशां येनात्मशविहां, नि०३८।। श्राद्धत्वं सुरशाखिकल्पमभवत् सत्तीर्थयात्रादृतेः, स्वर्मोक्षाख्यफलप्रदं न्विति विदन् यात्रां जिनेशाङ घिभिः / पूतानां व्यतनोत् समाहितमतिः सत्तीर्थभूनां यतः, नि०३९। स्त्राणां परमेष्ठिमन्त्रमहिमर्यालोकचैत्यश्रुतसिद्धानां सुधिया क्रियन्त उपधानानि प्रभोर्वाक्यतः / श्रद्धानादियुतानि भो! इतरथा भ्रान्तिर्भवे इत्यविद्, नि०॥४०॥ / P.P. Ac. Gunratnasuri M. n Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ संसारेऽसुमतां विलोक्य विविधान् बाधोच्चयान् नैकधा, जन्मव्याधिजरान्तकोद्भुव इहोद्यच्छेच्छिवात्यै सुधीः / असा सद्गुरुभाषितं प्रतिपदं वैराग्यमापत् क्षम, नि० // 41 // प्राचीनर्षिचरित्रमद्भुततरं वैराग्यपूर्ण गुरोः, शृण्वन्नात्मगुणान् द्रुतं विभरिषुः शीलं मुदोच्चीर्णवान् / संसारकनिबन्धनं प्रविजहद्योऽब्रह्मपापं प्रधीः, नि० / 42 / जाती मृत्युभयं धने व्ययभयं काये भयं रोगतो, वाक्ये दुर्जनसाध्वसं मनसि च कामाद् भयं दुःखदम् / सत्कारे व्यतिसम्भवं भयमिहावेक्ष्यात्मसिद्धथ यतः, नि०१४३। वीक्ष्यात्मोद्धृतिकारक शिवकर सम्मोहविद्रावक, कुन 11 पापाद्रिप्रविभेदने पविसमं धर्मामरद्रु प्रमूम् / आचारं मनसा गुरोर्वचनतः शुद्ध समाराधयत् , नि०।४४। जन्तूनां... "वाचा तथा कर्मणा, नैवान्यैर... .."त्रिधा हितरता। तो येनात्मनीनो मतः, नि० / 45 / - सत्योक्तेर्वितथोदितेविरमणे संवीक्ष्य शक्यात्मता, गाम्भीर्य व्रतपालनं च वचसो दृष्टया चतस्रो विधाः / अत्यक्षद्वितथोदितिं गुरुवरोऽसौ येन चित्ते धृतः, नि० / 46 / , हिंसा हिंस्यनिबद्धकर्म जनिता सोपक्रमे जीविते, सम्भाव्याऽऽतगिरा तथापि तनुमान सङ क्रिष्टभाषो भवन् / --- बघ्नात्यह इति व्रते नियतवान् येनाश्रितः साधुराट्, नि०४७ P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ ग्राह्याः केवलिनेक्षिता जगति ये वाचोऽणवो यर्यदा, जीवः स्वैविधया यया भवति हि प्रोद्यत्प्रभावं तथा / जीवानां फलवद् भवेत् प्रयतनं वीक्ष्येति वाक संयता, नि० 48 त्रिधाऽदत्तमनर्थसार्थपदवीं त्रेधा त्यजन्नात्मना, नान्यैरन्यधनं स्वजीवनसमं नादत्तमुद्ग्राहयोत् / नानुज्ञां विदधीत तत्र सुमुनिः संसारपारार्थिकः, नि०४९।। यद्यप्यत्र भवे परत्र यदिवा स्याद् ग्राह्यभावो धने, जीवानां मिथ आत्तकर्मजनितो वैरं तथाप्यग्रिमम् / इत्यालोच्य महोदयप्रदमिदं स्वीकार्य ते तद्वतं, नि० // 50 // यद्यप्यस्ति न कर्मसु प्रभुप्रदं कस्यापि तत्तद्भवं, नादत्ते ग्रहणे तु कल्मषकरं किन्तु स्वरूपापहम् / मत्वेति ध्रुवमातनोति धृतिमान् येनात्मभावे स्थिति,नि०५१॥ साधोः शुद्धपदं सदाभिलपतो हेयोऽभिलाषः स्त्रियामब्रह्माऽस्ति मतं जिनागमततावेकान्तिकं पापकृत(न्ततोऽघालिमत्) नात्रान्यत् पदमस्ति यद् वृषपुषे तत्यक्तमेतत्रिधा, नि० 52 / संसारोऽयमनेकधा विषयज सौख्यं समादित्सतो, नीरन्ध्रः समुपैति वृद्धिमनिशं तद्धयमेतद् ध्रुवम् / एवं चित्तगृहे मनोरमतरं चारित्रलक्ष्मी श्रोत्, नि० 53 / वेश्यां द्वादशवर्षभुक्तविषयां सचित्रशालास्थितां, शृङ्गाराङ्कितविग्रहां रतिसमां श्रामण्यमाप्योजहौ / मत्वा तन्त्र मुनिः चचाल चमनाक् येनात्मसिद्धौस्थितः, नि०५४ P.P. Ac. Gunratnasuri M Gun Aaradhak Trust by CamScanner
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________________ जम्बूस्वामिसुदर्शनप्रभृतयः सच्छीलरत्नाञ्चिताः, प्रद्य म्नप्रमथा धृताद्भुतविदो मत्वेति वाचयमीम् / दीक्षामुज्झितवाक्कनिहीतवान् यस्य प्रभावोऽद्भुतः, नि० 55 नारीरिकतान्तिराजिरचनाचातुर्यविभ्राजिता, हिंसातथ्यवचोपटचरकृतिद्रव्यप्रसङ्गाविलाः ! सञ्चित्यात्मरतिः वृताऽसमधिया येन प्रशान्तात्मना, नि०५६ सम्यक्त्वं दधते स्थिति तनुधरे स्फूर्त्या नयानिश्चयात्, सबोधामरपादपोऽपि फलति प्राणिन्यवाध्यद्य तिः / (चेतं यमिनां) मत्वेति प्रशमी दधाति विधिवत् प्रोज्झ्य प्रमादान् व्रतं, नि० / 57 / स्थैर्य चेद् विदधाति संयमधरो ब्रह्माहतौ ब्रह्मभाक , सिद्धं तस्य समस्तमर्थितपदं शेवं विना साधनम् / वाचो यस्य सुधाकिरः सुमतिभिरापीय दग्धोऽतनुः, नि० 58 त्यक्त्वाऽशेषमघोच्चयस्य निकर सांसारिकं तत्चविदादचे निखिलाङ्गिनिर्भयकर ब्रह्मव्रतं मोदभाक् / सत्यं यन्निजरूपदर्शनविधी येनामिनानन्दमा, नि० 59 / साहःप्रकरैकसाधनमहानर्थप्रदं वैभव, भव्योचाटनदीक्षितं वधमृषास्तेयादिदोषोत्करम् / / त्यक्त्वात्मर्द्धिनिमित्तमात्मरमणान् सन्तोष आत्तोऽमुना,नि०६० सर्वे ये समुपासिता गुणकरा देवा जिनेशादिमा, निर्ग्रन्था गुरवस्तपोव्रतमुखाः शुद्धाः शिवाप्तौ क्षमाः। धर्मास्तान् प्रणिहन्ति सक्तहृदयः सङ्ग ततो योजहत,नि०६१ P.P. Ac. Gunratnasuri M. Jun Gun Aagadhak Trust ned by CamScanner
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________________ ग्रैवेयाः करगोचराः समभवन् देवेशचक्रिश्रियः, जीवानां भुवि लब्धयश्च विविधा आश्चर्यदा लेमिरे / अन्त्यन्तं वृजिनौघघातनसहं नैर्ग्रन्थ्यमापत् शुभं, नि० / 62 / रेवा मोहकरीन्द्रचित्तरमणे कुज्ञानकन्दाम्बुदो. मिथ्यातस्करसार्थवासनकृतेऽरण्यं मतीर्थो ध्र वम् / तत्तौं साधुपदेन सर्वमुगुणाढ्य नावधीत् श्रेयसा, नि० 63 / येनाप्तेन भवाष्टके शिवपदं जन्तोभवेनिश्चयात्, संसारोदधिपारलम्भनविधौ पोतायते योऽङ्गिनाम् / देवाः स्वामियुता भवन्ति क्शगाः सोऽमङ्गभावो यतः, नि०६४ आर्तव्यानविधानवीर्यसहितं रौद्रेऽपि सौधे व्रजेत्, स्तम्भवं विनिहत्य धर्मविषयां बुद्धिं शिवाध्वोद्यताम् / यः सङ्गः स विशिष्टलाभविधये येनोज्झितः सर्वथा, नि० 65 क्षीणे दुष्कृतसञ्चये शिवपदं लभ्येत भव्यात्मभिनाशस्तस्य न जायते व्रतमृते, निःसाधनं तच्च नो। सामर्थेऽसति तादृशे ह्यु पधिना येनार्चितः संयमी, नि० 66 सम्पूर्णो ननु संयमः सुरगिरेस्तुल्ये स्थिरत्वे भवे-, दारात्कायवचोमनःप्रभृतिभिवृत्तौ न चासंयमः। हेयेऽप्येवमशेषवस्त्रनिचये शुद्धयर्थमेतदधत्, नि० / 67 / आहारोऽपि समग्रपापविधये भावीति विज्ञस्त्यजेत्, तं प्रान्त्ये न तु कायधारणसहे दिष्टे त्यजेत्तं सुधीः / / इत्येवं निखिलोपकारकरणं पात्रं यतः साधनं, नि० / 68 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner rust
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________________ शिष्यादिनिखिलोऽपि बाह्यविसरस्त्याज्यो विशुद्धात्मभिः, किन्वर्वाग् हतमोहराजगरिमा तीर्थेट तक दीक्षयेत् / इत्येवं स्वदशाहतामनुगतः पूज्यो यतः.....', ध्याने नैव कदापि शुक्लतरके भाव्या जिनेन्द्राकृतिः, दृश्या प्राकसुधिया तथापि यदि तं ध्येया समा सका। तत्सर्वत्र न साम्यता हितकरीत्योद्यासुकानां धृतिः, / नि० / प्रत्नानेहसि नैव पुस्तकधृतिर्ज्ञानाय साधोर्मता, किश्चाऽसंयमतापि तत्र विबुधैर्गीता च जैनागमे / बुद्धया हासमवेक्ष्य संयमतया सैवोदितेत्यादृता, नि० 171 / तीर्थेशां न कमण्डलुन च पशोः पिच्छं त्रिमिर्जन्मतो, ज्ञानैः साध्यमुपेयुषां किमु ततो नग्नाटसाधुव्रजः। ते धत्ते यदि संयमोपकृतये वासो न तस्यै किमु, नि०७२। लोचो मुष्टिभिरहता तु विहितो दीक्षाक्षणे पश्चभिः, कि नास्याऽनुकृतिः कृताऽवसनिकैश्चच्छक्तिसाध्ये न सः / तत् कि जीवदया हितैः परिहतैस्तद्धारयस्तान्मुनिः, नि० 173 / लोचोऽकारि जिनेश्वरेण विबुधादीनां समक्षं स्वयं, केशानां स्वकरेण मस्तकहनुश्मश्रुद्भवानां तदा / सोऽप्येवं सकदाहतः परममुसैषोऽपरैः किं व्यधात् , नि०७४। शौचं तीर्थपति नित्वमकृताव्याप्यात्मनः कहिचित्, नैवान्यैस्तदनुक्रियेत न किमु श्रामण्यमाप्तः परं / चेषामतिशायितेति विधिना येनोदिता सक्रिया, नि०,७५। P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ मार्ग श्रीजिनराजजल्पितमिमं शुद्ध श्रयत्यजसोस्मृष्टापोदितयुग्मगं निजवलं प्रेक्ष्यात्मशुद्धय सहम् / / वीर्य स्वीयमगूहयन् व्रतविधौ योऽनोदितः साधुराट्, नि० 76) सङगः सर्वमुखस्तास्पदयति ह्यस्मात् पराभग्नवान्, तत्सत्तो न सहोदरेषु वनितालाभे भगिन्यामपि / निःसङ्गो मुनिराट् समस्तशमिनां दृष्टान्तभूतो यतः, नि०.७७) आप्याप्याप्तमतं मुनित्वमनघं छायां न कोपस्य यो, यावज्जीवमशिश्रियत् यतमनो वाक्कायवृत्तिमुनिः / जातेऽपि विविध प्रसङ्गनिचये क्रोधः क्रधाऽस्माद्ययौ, नि०।७८ क्रोधो धामधगित्यनारतममु देहं दहत्यात्मनोपेतं मस्तकनेत्रयोणगलकोरो दाहमादौ दहत् / सश्चिन्त्येति सदा क्षमाऽसिमदधद्यस्तीर्थकज्ज्ञाततः, नि० 79 / यः कोटीमपि संयमं गतमलं संसाधयेत् साधुराट् , पूर्वाणां तु समाष्टकेन रहितां शुद्धां श्रितो भावनां / सोप्यन्तघोटकायगेन दहति प्रास्तागमोक्त्याश्रयः, (मोऽतःक्षमा) श्रामण्येऽधिकतो महातपसि च मासोपवासात्मके, साधुः क्रुद्धमनाः स्वशिष्यविषये मण्डूकिघातोत्थितम् / पापं शुद्धि मनाप्नुवन् (पयन्)गतिमितो नीचां यतोऽनागमः, नि० यावज्जीवमधाग्जिनेश्वरवचः प्राक्त व्रतं भक्तिभाक , श्रामण्यान्वितमार्गसाधनरतिः संसारबद्ध भिया / सोऽधाक्षीचरमं जिनं निजदृशा क्रोधात् श्रुतैर्जितः, (क्षमी शम्यसौ) नि० 82 / P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ भक्तं प्रातरुपोषिते गृहिगृहादानिन्य आत्मम्मरियः सांवत्सरिकोऽपि कुम्भमितमाः मासैश्चतुष्के मुनेः / एका शान्तिमुपेयुषः कूरगडोः कैवल्यमाकण्यते, नि० 83 / शारीरं छविराच्छिनत्ति नृपतेराज्ञामधिकृत्य यम्तस्मिन्नप्यभवन कोपकणिका स्कन्धस्य चित्तेऽप्यहो। एषा क्षान्तिः समाश्रिताऽव्ययपदेच्छामादधाने मुनौ, नि०८४। शिष्याः स्कन्दकसूरिराज उदितां तीव्रां व्यथा यन्त्रजामाज्ञाया नृपतेहतेन विहितां वादे जितेन द्विषा। (पालक) यावन्मोक्षपदं पुरोहितपदा क्षान्त्या यतः सेहिरे, नि. वीर्य विश्वजनातिशायिविदितं वाल्ये गिरेवालनात, क्षान्त्याऽसेवि दया तथापि जिनपेनान्त्येन क्लुप्ता (स्पष्टा) गसि / देवे सङ्गमके श्रुतोदितमिति श्रद्धाय तामाश्रितः, नि०८६। जीमूतेन पराभवं घटयितु दैत्याधमः प्रावृतत्, श्रीपार्थेन स आगतं जलमपि प्रोद्देशमत्रान्तरा / नक्रोधस्य लवोऽपि जात इह यांश्रित्वा क्षमा सा यतः, नि०८७, चेद् विश्व नहि दुर्जना न च कृतास्तैः स्याद् व्यथाः काचन, कायिक्यो न च दुर्वचौसि विधियः शक्ता अले भाषितुम् / किं क्षम्य सुधियां क्षमा भवति का ते कर्मनाशे क्षमाः, नि०८८ मानो नाशयति त्रिवर्गमखिलं मूलानि नीचैर्नयन, मान्यायाः सुगुणावलेः शतमुखान् दोषद् मान वर्धयन् / तीर्थेशादिमतं निहन्ति विनयं मूलाद्धतो येन सः, नि०।८९। 4 . P.P. Ac. Gunratnasuri M. GUR Aaradhak Trust d by CamScanner
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________________ जातेलाभकुलद्धिरूपतपसां सामर्थ्यसिद्धान्तयोरुत्सेक विदधद्धिनोति गुणिपु श्लाघा इति स्वात्मना / अन्यैःकारयति प्रधानगुणिता येनायमुद्घातितः, नि. 1901 वर्ष यावदनेकधा विपहिता बाधाः तुषार स्तपैः / पाथोभिश्च चतुर्विधाहतिरुधोत्सृष्टान्यकायक्रियम् / ध्यान धारयता च बाहुबलिनाऽस्माद्यन्न लेमेऽव्ययं, नि०।९१। मानं स्वल्पमुपेत्य सद्गुणलवं यायाअनोऽनीदृशो, येन स्याद् भववाधिपारगमनं दु (प्राप्य) लेम्मलाभं भवे / पीयूपं विषवत् फलेद्यदि तदा भैषज्यमन्यत् किम, नि०।९२॥ विभ्राणे भवचारके शतविधे स्थानानि कर्माणुमिहीनाहीनतमानि जन्तुनिकरे का स्यान् मदस्यादतिः / बालोऽपि श्रमणे स्थितो न मतिमानध्वंगतो माधति, नि०।९३। विद्यन्ते भववाधिगे न नियतस्थानानि जन्तुबजे, केऽप्यचान्यवमानि यान्ति सुकृतेर्धामानि पापैस्तथा / इत्येवं ज्ञपयत्यनारतमिहात्मानं मुनिधिमाग नि०।९। देवर्द्धिनिजबान्धवाश्रितपदैर्मत्तो सुधा नर्तयन् , आत्मानं भवमर्जयजलनिधीन कोटयोन्मिवान् मानमाक / अन्यस्मिन् भवमाजि मानमितरैः कुवत्यहो कि मवेत, नि०।९५। यस्याहा प्रसरिष्यति मुनिजनरुत्कीर्यमाणा चतुयुक्ता विंशतिकाश्चतुभिरनुगां पुण्यादीति प्रभोः / नावापान्तरपायसन्ततिमिदं मानात् श्रुवं पूर्वर्ग, नि०९६। P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaqadhak Trust ned by CamScanner
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________________ मान तीर्थकरो जघान निगदन तीर्थप्रणाम मुखे, लब्ध्वा ज्ञानमशेषगं जनततेधर्मोपदेशोदितः। तत्सेवामनुधावता मतिमताऽसो हेय आप्तोदितेः; नि०१९७) माया मल्लिजिनस्य किं न विहिताऽदायोषितां वेदनां, ब्राझी श्रीऋषभेशितुर्दू हितरं सैव व्यधात् सुन्दरीम् / सर्वार्थामरसम्पदा पदमभूत्तेषां चरित्रोत्थितं, नि०।९८।। शाख्यात् प्रत्ययमुजिहाति मनुजस्तत्स्वात्मघातप्रदं, जानानोऽपि जनो यतोऽनृतवचो मायाश्रितः संश्रयेत् / देवान् धर्ममुपासकान् गुरुवरान् मायी सदा वश्चयेद्,नि०।९९/ माया कृष्णमहोरगी प्रतिदिनं वासं श्रयन्ती सदा, या शुद्धा विरतिमहोद्यमवता शुद्धात्मनोपार्जिता / तां हन्ति प्रगुणां शिवालयसहां निर्वास्यतां सा ततः,नि०।१०० क्रोधाद्याः स्फुटविहनसन्ततिधरा लक्ष्यन्त आयें: स्फुटं, (सुख) निर्वास्यन्त इहोदितात्मरमणैर्ज्ञानादरैर्भावुकैः / ईर्ष्याऽद्यावलीसम्भवा हृदि गता मायाजवेनान्तभाग , नि०॥ तिर्यग्योनिविधानसाधनपटुर्माया यतो यन्मिषु, जातो वारण आप्तवञ्चनपरो दानी नरो वाहनम् / श्रुत्वेत्यायकुलाधिपस्य सुहृदस्त्याज्या सदासौ बुधैः, नि०१०२। धर्मस्योगिरणं भवेत् सरलतामाश्रित्य शास्त्रानुगं, किश्चिन्नात्र पदं द्वितीयमुदितं यद्धर्मवाक्यं श्रुते। प्रोक्तं प्राच्यमुनीश्वरैऋजुगुणं माया ततो जीयता, नि० // M P.P. Ac. Gunratnasuri M.Se in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ 16 माया दोषहुताशनैकपवनः सौजन्यवृक्षानलः, पापौघद्रु मसारणिः सुकृतभूच्छेदैकवज्राशनिः / श्रद्धासानुपविर्विकारहृदयं सद्बोधचित्रे मषी, नि० 1041 लोभो दोषवटस्य बीजमणीयो दुष्कतराज्याश्रयः, धर्मारामदवः समस्तमलिनाचारैकहेतुः सदा / किश्चिन्मात्रमुपेत्य कारणमसौ ऊर्मीव वृद्धिं भजेद् नि०।१८५। शान्ता यस्य समस्तदोषनिवहाश्चत्वार आप्तेशितुः, क्रोधाद्या निहताश्च कर्मनिचया वेद्य विना साधुना / लोभस्यैष लवं गतोऽपरिमितं संसारवासं श्रितः, नि०।१०६। क्रोधाद्याः खलु नाशयेरखिलं प्रेमानुबन्धादिकमेकैकं निखिलास्तु तान् निसरयेत् लोभः प्रवृद्धः क्षणात् / दुर्जेयः समनाशकोऽशमकरो जेयः सदाऽनीहया, नि०।१०७। लोभो दुर्गतिवर्तनी शिवपुरस्वर्गार्गला पावकः, सौजन्यादिगुणावलीसुरवने सर्वापदां संश्रयः। श्रामण्यादिगुणौघवार्दपवनो हेयः सदा धर्मिभिः, नि०।१०८ हिंसावारणविन्ध्यभूमिरनृतांम्भोराजिपाथोनिधिचौर्यारोपणचण्डवीर्यसहितो योषालिसक्कांतरः। लोमोऽनर्थसमाहृतौ क्षमतरः किं तम लोभाद् भुवि, नि०१०९। बाधौं वारिचयोऽगराजिरमरोद्याने सुराणां बजी, नाके सद्गुणसञ्चयो जिनवरे शके चयः सम्पदाम् / सामर्थ्य भरतानुजे भुवि यथा लो व यो बापदाम, नि० P.P. Ac. Gunratnasuri M Aagadhak. Trust CamScanner
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________________ यावत्संमृतिमाधने पटुनमः स्वर्गद्र पशू पमो, भावोऽहं प्रभुरस्थ मेऽद इति च जागर्ति जन्तोह दि / तावद्धर्मगुणा जिनेशयमिना स्थास्यन्ति नोक्तान्यपि, नि०।१११ देवान् लोभयुतो गुरून् परिभवेदाशातयेद्धार्मिकान्, भृत्यान् वश्चयते प्रतारयति च स्निग्धान् प्रहन्त्याश्रितान् / तत्तकार्यमसौ करोति विपदा येनोचयोज्वाप्यते, नि०११२। सङ्काशोऽपि गुणाकरो व्रतधरश्त्यस्य चिन्तां श्रितो, बभ्रामाऽनणुपापपुञ्जजटिलः संसारवाडौं भवान् / दुःखौघानमितान् तदेष महिमा नान्यस्य लोमादृते,नि०।११३ दिवामाः शिवभूतिराप कुमति भिन्न मतं मन्त्रितं, चैत्यानि प्रतिमाः श्रुतानि मुषितान्येतेन मोक्षाध्वनः / लोपोऽकारि जिनेन्द्रधर्मगुरवो लोभात् समे गर्हिताः,नि०।११४। नग्नाटः प्रतिमाः पुरातनकृता नैकाः परावर्तितास्तीर्थानि प्रालानि शास्त्रनिवयाः कुप्राहमत्यातुरैः / उद्दाल्यात्ममते कृतानि तदिदं लोभान्धधीस्फूर्जितं, नि० 115 // आजि देवगणा करोति विरस लुब्धोऽसुराणां गणैः स्त्रीरत्नायधलोभलोपितमतिर्वैरानुबन्धाश्रयम् / / देवानामपि चेदनर्थकरणो लोभस्तदा नृषु किम्. नि०।११६। दैत्यानां भवत्रीचि... मं सुरगणे (रं हि स्वल्पोद्भवं, तेनैते जिनराजमूर्तियमिनो निश्रित्य योधु सुरैः / मन्याधं विनिवारिता अपि ययुलॊमें ततः किं न धिक !, नि. P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ श्रद्धायाऽऽसवचो विधाय विरहं तातप्रसूयोषितां, पश्चाप्याप्य महावतानि पृतना जित्योपसर्गावलेः। मोक्षाोपि मुधैकलोभलवतो भ्राम्यत्यनन्तं भवं, नि०।११८ मासादिक्षपकोऽपि शुद्धचरणः शस्तः सुरैर्भक्तित, आरूढोऽपि सदा शमामरमिरी लोभेरितोऽसौ पतन् / कृत्वा लूनविशीर्णमेतदखिलं वासं निगोदे श्रयेत् , नि०१११९।। इत्येवं सुगुरोनिशम्य विविधं पाक कषायावले, सम्बुद्धो जिनशासनागमयत श्रीक्षेमचन्द्रः सुधीः / संसारं मनुते ततः स सिम कारागृहामं सदा, नि० // 12 // कन्यायां निजबान्धवेन वचसा श्रीहरिचन्द्राभिधेनाऽऽत्तायामपि शुद्धवंशजनिती तस्मै तथाण्यात्मनः / श्रेयः साधयितुं व्रतं गुरुमुखाच्छोलं (समादत्त यः), नि०११२१ भातृभ्यां विहितेऽपि दारकृतये गार्हस्थ्यमावाय च, ज्ञातेयेन सहाग्रहेऽपि न मनाग्लीनं मनस्त्वाश्रवे तस्याऽभूत् सुकतावली. तु निहितं तत्तस्य भावाद्यते, नि०१२॥ आत्मश्रेय उदित्वरं हृदि सुधीः सञ्चित्य मौने, लघु, गत्वा श्रीनप्रसारिके गुरुवरादादात् प्रव्रज्यां शुभाम् / माणिक्याम्बुधिसञ्जकाद् वसुरसाङ्काजोन्मितेवत्सरे, नि०।१२३ मार्गे मार्गमसौ महोदयपुरो मासे श्रितः संयमे, तथ्यास्तस्य गुणा अनन्यसहशा आजत्मशस्मा , येऽभवत्राहि तान् क्षमो गणायितु शक्रोऽपि नाकस्थिता, नि P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ शान्तेर्धाम निरीहताकुलगृहं व्यावृत्तबुद्धः स्थलं, तप्तौ साधुगणस्य लीन उदितो मातुः पदे भाविनि / दीपः शासनसनि भविमनःपद्यार्क आप्तोत्तमः, नि० 125 / भक्तो यो गुरुषु गुरोणुरुषु च वात्सल्यकृत् साधुषु, धर्माद्योतविभावसु हिषु यः सौजन्यरत्नाकरः / पौषे वेद-वसु-क्षमेश-विधुगे (1984) वर्षेऽभवत् स्वर्गभाक्, नि० व्यस्मा द् गुरुराड गुरोगुरूापि सहोपि यस्यानघं, गायन कीर्तिमरं स्वकृत्यमखिलं पुण्यात्मनोऽनर्गलम् / दृष्ट्वा कीर्त्तितर्नु सदाऽमरतया नानन्दभाग को नरः, नि० इति आगमोद्धारक-आचार्य देव-श्रीआनन्दसागरमरीश्वर पट्टधर-श्रीमाणिक्यसागरपरिशिष्यरत्न श्रीअमृतसागरमुनि-गुणवर्णनम् // Hilin P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ अमृतसागरमुनि-तीर्थयात्रा यात्राः कृता मुनिवरामृतसागरेणआदौ स्तुतो जगडिये प्रभुरादिदेवः, श्रीस्तम्भनाधिपतिपार्श्व जिनो द्वितीयः। पश्चासरोऽणहिलपत्तनगस्तृतीयः, श्रीभोयणीपुरवरे प्रभुमल्लिनाथः // 1 // पार्श्वस्ततो मिलडिये पुरमेतराणे, श्रीमान् युगादिविभुरानत आदरेण / अस्तावि पानसरगश्चरमो जिनेशः, श्रीमातरे सुमतिनाथजिनश्च सत्यः / / 2 / / दर्भावतीपुरि च लोढणपार्श्वनाथः, शत्रुञ्जये जिनबरोध उदित्वरोजाः / / श्रीमालवे करमदी-विवडोदपुर्यो रादीश्वरो मगसिपा जिनः सदिव्यः // 3 // पार्थोऽप्यन्तिपुरि मण्डपगः सुपार्थः, भोपावले तततनुः प्रभुशान्तिनाथः / पार्थो वहीपुरि परासलिगो युगादिः, श्रीशान्तिनाथजिनराट् पुरसेमलीये // 4 // P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ काश्यां सुपार्श्व जिनयुक् प्रभुपार्श्वनाथः, स्वस्तावि तेन मुनिना विततेन प्रेम्णा / श्रेयांसनाथ उदितः पुरि सिंहनाम्न्यां, चन्द्रावतिपुरि जिनेश्वरचन्द्रकान्तिः // 5 // सम्मेतगा जिनवराः प्रणताः खयुग्मं, वड्डागरे चरमतीर्थपपादयुग्मम् / यत्र वालिकसरिद्वहति प्रकाम, यस्याभिधानमभवत् पुरजम्मिकेति // 6 // श्रीवासुपूज्यजिनराड नगमन्दरे च, .. - चम्पापुरे सुविधिरानुतसाधुराना / काकन्दिके प्रचुरभक्तिभरेण नाथः, श्रीक्षत्रिये पुरि च माहनकुण्ड नाम्नि // 7 // कल्याणकत्रितयभूमिरिहान्तिमेशः. श्रीसुव्रतस्य पुरि राजगृहे चतुष्कम् / सच्छे यसां नगवरा विपुलादिकाश्च, जन्मोदधि लघु तरीतुमुदापोताः // 8 // पश्च स्तुताः सततभक्तिभृता प्रमोदात, श्रीवीरनितिपदं नगरी च पापा। . जन्मस्थलं च वडगाममिहेन्द्रभूतेः, कल्याणकनजपदं पुरि कौशलापाम् // 9 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S Gun Aaradhak Trust ed by CamScanner
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________________ 22 श्रीधर्मनाथजिनपस्य चतुष्कमैट्ट, सत्श्रेयसां गुणपदं पुरि रत्ननाम्न्याम् / काम्पील्यगं च विमलाभिधतीर्थराजः, श्रीराणके पुरवरे महिमप्रधानः // 10 // त्रैलोक्यदीपकनिभे पृथुले जिनेशः, * श्रीआदिरा नडुलधाम्नि च पद्मकान्तिः / 1 सिद्धाद्रिवितगिरिप्रतिमे च शैल द्वन्द्व युगादिजिननेमिजिनेशयुग्मम् // 11 // चैत्यालयालिरनिशं प्रभुरूपयुक्ताः, पार्श्वः स्तुतश्च वरकाणपुरे महिम्नाम् / * धाम्न्यबु देऽचलगिरौ च जिनेशपङ क्ति दृष्टा स्तुता भविमनःकमलालिहंसः // 12 // नाणे च नन्दिकपुरे वरवांभणे च, व्हेडे पुरे विजुविवीरजिनेशमूर्तिः / सेपाटिकापुरि च वीरविभुमहान्यः, ___नन्दे समे समिनके च जिनेशपाचः // 13 // मूर्तिनंतोदयपुरे वरपाद्मनाभी, दीपालिकाऽऽहडपुगेः पुरि नाइकायाम् / श्रीमधुलेवनगरे प्रभुरादिनाथः, __ख्यातप्रभो जगति केसरियेति वित्तः // 14 // / P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ दृष्टः स्तुनोऽमितमुदा महिमानिधानं आनन्दसागरगणेः स्वगुरुप्रमोश्चारोपे सहायमकरोद् ध्वजदण्डयोथः / . श्रीमधुलेवनगरे गुणिनो हितस्य, तस्याऽसमानगुणरत्नमहार्णवस्य यात्रास्थलावलिगत प्रथनं मुदेऽस्तु // FVVVVVVVVVVVVVVVVVVT इति अमृतसागरमुनिकत-तीर्थयात्रा। P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aagadhak Trust by CamScanner
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________________ अमृतसागरमुनि-स्तुत्यष्टकम् / अमृतसागरं मुनिवरं सदा भजत भावतः सद्गुणाकरं, / शिशुदशायुतः प्रशमपात्रतां श्रुतमतां गतः सद्गुरूदितेः / विनयभाजनं सुजनसङ्गतो निकटसिद्धिकः सद्गुणे रतः, " प्रतिदिनं प्रगे जिनवरार्चनं समसृजन मुदा सत्पदार्थिकः // 1 // गुरुवचोऽमलं हृदि निधारयन् जिनपतेर्मतं शान्तिदायकं, मनसि सारयन् मुदमुदीरयन् समयदेशिनां धर्मबोधने / वचनमानयन् सुकृतसाधने वितथतोज्झितं चित्तपङ्कजे, सफलजन्मिता दधदुपाश्रये वसतिवर्यतां बोधतो वजन // 2 // समयसागराद् वचनवर्णिकां मणिगणोपमा दायवर्जितां, समवधारयन् सुकृतमार्गगं जनगणं मुदा धर्म (मुद्गृणन्) / निजमतिप्रमं वचनमुगिरन् सरलभाविके भावुकं ददद्, गृहिंदशां श्रितः श्रमणभावनां जगति साधयन् प्राप निवृतिम् / 3 / उषित आग्रहादनुजबन्धुना गृहधृतौ कृताद् दिष्टमल्पकम्, पटुकृतं ततः विषयवारणं कनककामिनीयुग्ममुजहत् / स्वजनसंहतेः प्रणयकारणं भवभयोज्झितो मार्गमादिशन्, श्रमणताश्रयं विरतिधारणं सततशुद्धिभाक् पाप काङ क्षितम् // 4 // श्रमणतां श्रितो धृतिबलं गतो वयसि बालकः षोडशाब्दिके, सुरनपत्तनात् शुभमनोरथोऽगमदपापहत् 'नूत्नसारिके। 1 नवसारीग्रामे - P.P. Ac. Gunratnasuri M. in Gun Aaradhak Trust led by CamScanner
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________________ ? ततमहोत्सर्व व्रतमसौ दधत् शुशुभ आहेतो धर्मसारथिः, गुरुपदेऽकरोत् सुगुणसेवधिं शमपयोभृतं माणिकाम्बुधिम् / / 5 / / तितभावनश्चरणमासदद् व्रतकथोद्भवं स्तम्भने पुरे, प्रथमवार्षिकं नगर 'श्रीकरे कुमर (ऽणहिल) पत्तने जैनपूर्वरे / सुरतबन्दरे वसति पश्चमे मुमहिबन्दरे जन्मधामनि / विमलभूधरे नवममावसन समयवाचने पूर्णतां गते / / 6 / / / सइलने पुरे द्वितयमावसद् युगलमाब्दिकं रत्नपूर्वरे, कलकतेऽजिमे मरुधरे पुनः पुरि च सादडीनाम्नि वार्षिकम् / / उदयपूर्वरेऽवसदनन्तिमे मन उपाहवन् संयमे दिवं, विमलपञ्चमीदिवस आसदद् मुनिवरैः स्तुतः पौषमासि यः // 7 // अभिनुतो यमी शमिगणैः सदा नियममाचरन् शुद्धभावतः, सकलसाधवो गणविचिन्तनं नयनगोचरे कुर्वतोऽनिशम् / बतिगुणोधुरं सततमानमुः श्रमणशेखरास्तं गुणोधतं, वदति मोदतोऽवितथवर्त्तनं सदुदयो महानन्दसागरः // 8 // इति आगमोद्धारक-आचार्यदेव-श्रीआनन्दसागरमरीश्वर पट्टधर-श्रीमाणिक्यसागरसूरिशिष्यरत्न- '' श्रीअमृतसागरमुनि - स्तुत्यष्टकम् / XKINNINSANISANSATHIJHINRIENNAI 1 छाणीप्रामे 2 सैलानामामे .. XVYYYYYY R P.P.AC. Gunratnasuri M.S in Gun Aaradhak Trust ned by CamScanner
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________________ मुद्रकार जैनबन्धु प्रिटिंग प्रेस, कसेरा बाजार, इन्दौर नगर. P.P. Ac. Gunratnasuri M. Gun Aaradhak Trust led by CamScanner