Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ ३. मानमायानिषेधाविंशतिः ] 43) रूपेश्वरत्यकुलजातितपोबलामामानातुःसहमदाकुलबुद्धिरशः।।
यो मन्यते ऽहमिति नास्ति परोऽधिको मैन्मानास नीथकुलमेति भवाननेकान् ॥ १॥ 44) नीति निरस्थति यिनीतिमपाकरोति कोर्ति शशाधवला मेलिनीकरोति ।
मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः प्राणीति मानमपहन्ति महानुभावः॥२॥ 45) हीनाधिकेषु विधात्यविवेकमा धर्म विनाशयति संचिनुत्ते च पापम् ।
दौर्भाग्यमानयति कार्यमपाकरोति किं किं न दोषमथवा कुरुते ऽभिमानः ।। ३॥ . 46माने कृते यदि भवेदिह कोऽपि लाभो अघहानिरथ काचन माईवे स्यात् ।
याच को ऽपि यदि मानकृतं विशिष्टं मानो भषेयभृतां सफलस्तदानीम् ॥४॥
रूपेश्वरत्वकुलजातितपोबलाशाज्ञानाष्टदुःसहमदाकूलबुद्धिः यः अज्ञः मानात अहम अधिकः मत्परः अधिक: नास्ति इति मन्यते सः अनेकान् भवान् नीषकुलम् एति ।। १॥ हीनः प्राणी मानवशेन नीति निरस्यति विनीतिम् मपाकरोति शशाधवला कीति मलिनीकरोति मान्यान् न मानयति इति महानुभावः मानम् अपहन्ति ।। २॥ अभिमानः हीनाधिकेषु अविवेकभावं विदधाति धर्म विनाशयति पापं संचिनुते दीर्भाग्यम् आनयति च कार्यम् अपाकरोति । अथवा अभिमानः कि कि वोषं न करोति ॥३॥ यदि यह माने कृते भयभृता कः अपि लाभः भवेत् अथ यदि मार्दने (कृते) काषन अर्थहानिः स्यात् यदि च कः अपि मानकतं विशिष्टं झूयात् तवानी भवभूतां मानः सफलः स्यात् ॥४॥
___जो अज्ञानी मनुष्य सुन्दरता, प्रभुता, कुलं ( पितृपक्ष ), जाति, मातृपक्ष, तप, शारीरिक शक्ति, आज्ञा (ऋद्धि) और ज्ञान; इस आठ प्रकारके मद ( अभिमान) में बुद्धिको लगाकर यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है। वह इस प्रकारके अभिमानसे अनेक भवोंमें नीच कुलको प्राप्त होता है || १ || निकृष्ठ प्राणी अभिमानके वश न्यायमार्गको नष्ट करता है, नम्रताको दूर करता है, चन्द्र के समान निर्मल कीर्तिको मलिन करता है, तया माननीय जनोंका सन्मान नहीं करता है 1 इसीलिये महापुरुष उस अभिमानको नष्ट करता है ॥२॥ अभिमान हीन और अधिक जनोंमें अविवेकिताको उत्पन्न करता है--- गुणाधिक मनुष्योंका हीन जनके समान तिरस्कार करता है, धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्दैवको लाता है, और कार्यको नष्ट करता है | अथवा अभिमान किस किस दोषको नहीं करता है- वह सब ही दोषोंको करता है ॥ ३ ॥ यदि यहाँ मानके करनेपर कोई लाभ होता है और इसके विपरीत यदि सरलताके होनेपर कुछ धनहानि होती है तथा यदि कोई अभिमान करनेवाले व्यक्तिको विशिष्ट ( महान् ) कहता है सब प्राणियोंका वह अभिमान सफल हो सकता है ! [ अभिप्राय यह है कि न तो मानसे कोई लाभ होता है और न उसके विना मार्दवसे कुछ धन आदिकी हानि ही होती है ! इसके अतिरिक्त अभिमानी जनकी सत्र निन्दा भी करते हैं- प्रशंसा कोई भी नहीं करता है । अत एवं प्राणियोंका अभिमान करना निरर्थक एवं हानिकारक है ] ॥ ४ ॥
१सयाति । २ स 'महा' । ३ स ऽपि for मन् । ४ स भुपाकरोति । ५ स मलिनी ।