Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 204
________________ सुभाषितसंदोह : 696) विगलितधिषणो ऽसावेकदा हन्ति जीवान् यति वितथवाक्यं ब्रव्यमन्यस्य लाति । परयुवतिमुपास्ते" संगमङ्गीकरोति भवति न वृषमात्रो ऽप्यत्र सन्तो वदन्ति ॥ ७ ॥ 697 ) अति कुपितमनस्के को 'निष्पत्तिहेतुं विवति सति शत्रौ विक्रियां चित्ररूपाम् । वदति वचनमुच्चैःश्रवं फर्क शादि agaraat या " क्षमां वर्णयन्ति ॥ ८ ॥ 698) कुलबलजातिज्ञानविज्ञानरूप १९० प्रभूति जमव मुक्तिर्या विनीतस्य साधोः । अनुपम गुणराशेः शील चारित्रभाजः प्रणिगदत १३ विनीता सार्वयत्वं मुनीन्द्राः ॥ ९॥ 699) कपटशतनवीर्ये रिभिर्वञ्जितोऽपि निकृतिकरणart stuत्र संसारभीरः १४ । तनुवचन मनोभिवंत यो न याति गतमलमृजु "मानं तस्य साधोवंदन्ति ॥ १० ॥ [ 696 : २८-७ न भवति ।। ६ ।। विगलितधिषणः असौ एकदा जीवान् हन्ति, वितथवाक्यं वदति, अन्यस्थ द्रव्यं लाति परयुवतिम् उपास्तें, संगम् अङ्गीकरोति । अत्र वृषमात्रोऽपि न भवति [ इति ] सन्तः वदन्ति ॥ ७ ॥ अतिपितमनस् त्र कोपनिष्पत्तिहेतुं चित्ररूपां विक्रियां विदधति सति, उच्चैः दुभवं कर्कशादिवचनं वदति सति या कलुषनिकलता तो क्षमां वर्णयन्ति ॥ ८ ॥ अनुपमगुणराशेः शीलचारित्रभाजः विनीतस्य साधोः या व्रत कुलबलजातिज्ञान विज्ञानरूपप्रभृतिजमदमुक्तिः तां है विनीता मुनीन्द्राः मार्दवत्वं प्रणिगदत्त ।। ९ ।। कपटशतनवीष्णैः वैरिभिः वञ्चितः अपि निकृतिकरणदक्षः अपि अत्र संसारभीहः यः बार जीवोंका घात करता है, असत्य भाषण करता है, अन्यके धनको ग्रहण करता है- चोरी करता है परस्त्रीका सेवन करता है, तथा परिग्रहको स्वीकार करता है तो इसमें उसे लेशमात्र भी धर्म नहीं होता है; ऐसा सज्जन बतलाते हैं || ७ || जिसके मनमें अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे किसी शत्रुके द्वारा क्रोधके उत्पादक अनेक प्रकारके विकार के करनेपर तथा अतिशय श्रवण कटु एवं कठोर आदि वचनके बोलने पर भी कलुषताको प्राप्त न होना, इसे क्षमा कहते हैं || ८ || अनुपम गुणोंके समूहसे सहित तथा शील व चरित्रका आराधक विनयवान् साधु जो व्रत, कुल, बल, जाति, ज्ञान, विज्ञान और रूप आदिका अभिमान नहीं करता है; इसे नम्र गणधरादि मार्दव कहते हैं || ९ || जो संसारसे भयभीत साधु सैकड़ों कपटों रूप नदियों में स्नान करनेवाले - अतिशय मायाचारी - शत्रुओं के द्वारा ठगा जा करके भी तथा स्वयं माया व्यवहारमें कुशल हो करके भी यहाँ शरीर, वचन और मनसे कुटिलताको नहीं प्राप्त होता है; उसके निर्मल मार्जव धर्म होता है, ऐसा गणधर आदि बतलाते हैं ॥ १० ॥ अभिमान, काम, कषाय, प्रेम और सम्पत्ति आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ वचन चाहे झूठ हो १ स [8] सौ चैकदा । २ स जीवा । ३ स तवति । ४ स वाच्यं । ५ स मास् । ६ स विषामत्रो। ७स अपि कुपित, अतिकुपितकृत्तस्ते ८ स कोषि को sपि नि° । ९ स शति । १० स शत्रोः शत्रो, शत्रोनिं । ११ स "तां यां, विकलतायां । १२ स पीलि° १३ स गर्दाति । १४ स "भीतः । १५ समृजिमानं मृजु मानं ।

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