Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[788 : ३१-२७
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सुभाषितसंदोहः 788) दावानलसमो लोभी वर्धमानो दिवानिशम् ।
विधाव्यः' श्रावकैः सम्यक संतोषोद्गा वारिणा ।। २७॥ 789) संतोषाश्लिष्टचिसस्य यत्सुखं शाश्वतं शुभम् ।
कुतस्तृष्णाग्रहीतस्य तस्य' शो ऽपि विद्यते ।। २८ ।। 790) यावत् परिग्रहं लाति साचिसोपजायते ।
विज्ञायेति विधातव्यः । संग: परिमितो बुधैः ॥ २९ ॥ 793) हिंसातो विरतिः' सत्यमबसपरिवर्जनम् ।
स्वस्त्रीरतिः प्रमाणं च पनपाणवतं मतम् ॥ ३०॥ 792) यविषायावधि विशु वशस्वपि निजेच्छपा।
नाकामति पुनः प्रोक्तं प्रथम तद्गुणवतम् ॥ ३१ ।। 793) वारयेव धावमानस्य निरवस्पस्य चेतसः ।
अवस्थानं कृतं तेन येन सा नियतिः कता ॥३२॥
नलसमः लोमः संतोषोद्गाढवारिणा विषाव्यः ॥२७॥ संतोषाश्लिष्टचित्तम्य यत् शुभं शाश्वतं सुखं भवति तृष्णागृहीतस्य तस्य लेशः अपि कुतः विद्यते ॥ २८ ॥ यावत् परिप्रहं लाति, तावत् हिसा उपजायते इति विज्ञाय बुधैः संगः परिमितः विधातव्यः ।। २९ ।। हिंसातः विरतिः, सत्यम्, अदतपरिवर्जनम, स्वस्त्रीरतिः च प्रमाणम् अणुतवं पञ्चषा मतम् ।।३०।। यत् दशसु दिक्षु अपि मिच्छया अवधि विधाय पुनः न आक्रामति, तत् प्रथम गुणवतं प्रोक्तम् ॥३१॥ येन सा नियतिः कुता तेन वाट्या इव धावमानस्य निरवचस्य नेतसः अवस्थानं कृतम् ॥ ३२ ॥ ततः परतः त्रसस्थावरजीवानां रक्षातः पावकस्यापि एवं तत्वतः
चाहिये ॥ २६ ॥ लोभ दावानलके समान दिन-रात बढ़नेवाला है। श्रावक जनोंको उसे उत्तम सन्तोषरूप दृढ़ जलके द्वारा शान्त करना चाहिये ॥ २७ ॥ जिस मनुष्यका चित्त सन्तोषसे आलिंगित है-उससे परिपूर्ण हैउसको जो निरन्तर उत्तम सुख होता है उसका लेशमात्र भी तृष्णायुक्त मनुष्यके कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है । अभिप्राय यह कि सन्तोषी मनुष्य सदा सुखी और तृष्णातुर मनुष्य सदा दुखी रहता है ॥ २८ ॥ जब तक मनुष्य परिग्रहको प्रहण करता है-उसमें मूर्छित रहता है-तब तक हिंसा होती है, यह जान करके विद्वानोंको उस परिग्रहका प्रमाण करना चाहिये ॥ २९ ॥ हिंसासे निवृत्ति ( अहिंसाणुव्रत ), सत्य, अदत्तपरिवर्जन ( अचौर्याणुव्रत ), स्वस्त्रीसन्तोष और परिणहप्रमाण; इसप्रकार अणुव्रत पाँच प्रकारका माना गया है ।। ३० ॥ दश ही दिशाओंमें अपनी इच्छानुसार जाने-आनेकी मर्यादा करके उसका उल्लंघन नहीं करना, इसे दिग्वत नामका प्रथम गुणवत कहा गया है ॥ ३१ ॥ जिस पुरुषने दिशाको नियत कर लिया है-उसका प्रमाण कर लिया है-उसने वायुमण्डलके समान इधर उधर दौड़नेवाले निर्दोष ( या अस्थिर ) मनका अवस्थान कर लिया है-उसे अपने अधीन कर लिया है ॥ ३२ ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब तक दिशाओंमे जानेआनेको कोई मर्यादा नहीं रहती है तब तक ही चित्त व्यापारादिके निमित्त सर्वत्र जानेके लिये व्याकुल रहता है। परन्तु जब पूर्वादिक दिशाओंमें जाने-आनेकी मर्यादा कर ली जाती है । जैसे पूर्व में कलकत्ता व दक्षिणमें कन्याकुमारी आदि तक ) तब वह चित्त स्थिर हो जाता है-मर्यादाके बाहर जानेका वह विचार नहीं करता
१स विधाप्पः, विष्याप्प [:], विष्याप्य । २ स तोपो (?) झाद । ३ स om. तस्य, यिझते भुवि । ४ स विवासव्यं । ४ स विरुतिः । ६ स तद्गुणं यत । ७ स कृतस्तेन 1 ८ सनियता।