Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 240
________________ २२६ सुभाषिससंदोहः [ 868 : ३१-१०७ । 868) गम्भीरां मधुर वाणी सर्वोत्रमनोहराम् । निःशेषशास्त्रनिष्णातां बुद्धि ध्वस्ततमोमलाम् ॥ १०७ ।। 169) घण्टाकालभृङ्गारचन्द्राय'कपुरःसरम् । विधाय पूजन देयं भक्तितो जिनसपनि ॥ १०८॥ 870) चतुर्विधस्य संघस्य भक्त्यारोपितमानसैः। वानं चतुविषं देयं संसारोण्वमिभिः ॥ १०९॥ 871) यावज्जीवं जनो मोनं यो विषत्ते ऽतिभक्तित.। मोद्यो"तनं परं कृत्वा निर्वाहात कथितं जिनः ॥ ११०॥ 852) एवं त्रिधापि यो मौनं विधते विधिवन्नरः । न दुर्लभं त्रिलोके ऽपि विद्यते तस्य किचन ।। १११ ।। 873) विचित्रशिखराधारं विचित्रध्वनमण्डितम् । विधातव्यं जिनेन्द्राणां मतिरं मम्बरों पमम् ॥ ११२॥ 874) येनेह कारितं सोमं जिनभक्तिमता भुवि । स्वर्गापवर्गसौख्यानि तेन हस्ते कृतानि ॥ ११३ ॥ 875) यापत्तिष्ठति जैनेन्नमन्दिरं परणीतले। धर्मस्थितिः कृता सावज्जैनसोपविधायिना ॥११४ ॥ जनाधिकं सौख्यं, गम्भीरां मधुरां, सर्वोत्रमनोहरी वाणी, श्यस्ततमोमलां निःशेषशास्त्रनिष्णातां बुदि [ लभते ] ॥ १०५१०७ ।। जिनसपनि भक्तितः पूजनं विधाय घण्टाकाहलङ्गारचन्द्रायकपुरःसरं देयम् ।। १०८॥ भक्त्यारोपितमानसः संसारोच्छेदमिछुभिः चतुर्विधस्य संघस्य चतुविषं दानं देयम् ॥ १०९॥ यः जनः अतिमक्तितः यावज्जीव मोनं विधत्ते, जिन: निर्वाहात् परं कृत्वा उद्योतनं न कथितम् ॥ ११॥ यः नरः विधिवत् त्रिधापि मौनं विधत्ते तस्य त्रिलोके अपि किंचन दुर्लभं न विद्यते ॥ ११॥ विचित्रशिखराधार विचित्रध्वजमम्हितं मन्दरोपमं जिनेन्द्राणां मन्दिरं विषातभ्यम् ॥११२।। इह भुवि जिनभक्तिमता येन सौषं कारितं तेन स्वर्गापवर्गसौख्यानि वै कृतानि ।। ११३ ।। जनसोधविधायिना धरणीतले गम्भोर, मधुर और सब श्रोताओंके मनको हरनेवाली होती है, तथा उसकी निर्मल बुद्धि समस्त शास्त्रोंमें प्रवीण होती है ।। १०५-१०७॥ जिनमन्दिर भक्तिपूर्वक पूजा करके घण्टा, मेरी, मृदंग, झारी और चंदोबा आदिको देना चाहिये ।। १०८ ॥ जिनका मन भक्सिसे ओत-प्रोत है तथा जो संसारका नाश करना चाहते हैं उन्हें चार ! प्रकारके संघके लिये चार प्रकारका दान देना चाहिये ॥ १०९ ॥ जो मनुष्य अतिशय भक्तिसे जन्म पर्यन्त मौनको धारण करता है उसके लिये जिन मगवान्ने निर्वाहसे भिन्न उद्यापन नहीं बतलाया है उसके लिये मौनव्रतका उद्यापन विहित नहीं है ॥ ११० । इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक मन, वचन और कायसे उस मोनको धारण करता है उसके लिये तीनों ही लोकोंमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है-उसे सब कुछ सुलभ है ॥ १११ ॥ श्रावकके लिये विचित्र शिखर व आधार सहित तथा विचित्र ध्वजाओंसे सुशोभित मेरुके समान जिनेन्द्रोंके मन्दिर ( जिनभवन ) को कराना चाहिये ॥ ११२ ।। जिसने जिनभक्ति से प्रेरित होकर यहां पृथिवीपर जिनभवनका निर्माण कराया है उसने निश्चयसे स्वर्ग और मोक्षके सुखको हाथमें कर लिया है-उसे स्वर्ग-मोक्षका सुख निश्चित ही प्राप्त होनेवाला है ।। ११३ ॥ जब तक पृथिवीतल पर जिनमन्दिर स्थित रहता १ स चंद्रोपक । २ स.मनो । ३ स om. यो। ४ स विषले चाति' । ५ स नो यातनं, नो द्योतनं। ६ स जनः । ७स मंदिरो।

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