Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितवोहः
906) न बान्धवा न स्वजना न वल्लभा न भृत्यवर्गाः सुहृदो न चा 'ङ्गणाः । शरीरिणस्तद्वितरन्ति सर्वथा तपो जिनोक्तं विदधाति यत्फलम् ॥ २८ ॥ 907) भुक्त्या भोगान रोगानमरयुवतिभिर्भ्राजिते स्वर्गवासे
मर्त्यावाले ऽप्यनयन् शशिविशदयज्ञो राशिशुवली कृताशः । यात्यन्ते ऽनन्तसौख्य विबुधजननुतां मुक्तिकान्तां यतो ऽङ्गी जैनेन्द्र तत्तपो ऽलं धुतकलिलमलं मङ्गलं नस्तनोतु ॥ २९ ॥ 908) दुःखक्षोणिरुहायं दहति भववनं यच्छिलीवोद्यदच
त्तं धूतबाधं वितरति परमं शाश्वतं मुक्तिसौख्यम् । जारि हन्तुकामा सवनमदभिदस्त्यक्तनिःशेषसंगास्तज्जैनेशं तपो ये विदधति यतयस्ते मनो नः पुनन्तु ॥ ३० ॥ 909 ) जोया जीवा वितत्त्वप्रकटनपटवो ध्वस्त कन्दपंदर्भा
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निधू तक्रोधयोधा मुदि मदितमदा हृद्यविद्यानवद्याः । ये तप्यन्ते नपेक्षं जिनगविततपो मुक्तये मुक्तसंगास्ते मुक्ति मुक्तबाधाममितगतिगुणाः साधवो नो विशन्तु ॥ ३१ ॥
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[ 906 : ३२-२८
विभेति ॥ २७ ॥ जिनोगतं तपः शरीरिणः यत्फलं सर्वथा विदधाति तत्फलं न बान्धवाः, म स्वजनाः, म वल्लभाः न भृश्यवर्गाः, न सुहृदः, न च अङ्गजाः वितरन्ति ॥ २८ ॥ यतः अङ्गी अमरयुवतिभिः श्राजिते स्वर्गवासे अरोगान् भोगान् भुक्त्वा मयवासे अपि शशिविशदयशोरा शिशुबलीकृताशः अनर्थ्यान् भोगान् भुक्त्वा अन्ते विषुषजननुताम् अनन्तसौख्य मुक्तिकान्तां याति तत् धुतकलिमल जैनेन्द्र तपः नः अलं मङ्गलं तनोतु ।। २९ ।। उद्यचः शिखी व मत् दुःखक्षोणीहायं भवनं दहति यत् पूतं धूतबाधं परमं शाश्वतं मुक्तिसौख्यं वित्तरति तत् जैनेशं तपः ये जन्यारि हन्तुकामाः मदनमदभिदः त्यक्त निःशेपसंगाः यतयः विदधति, ते न मनः पुनन्तु ॥ ३० ॥ जीवाजीवादित्तत्त्वप्रकटनपटवः ध्वस्तकन्दर्पमः
दूसरोंके द्वारा किये जानेवाले तिरस्कार, धनसे हीन जीवन तथा अनेक जन्मों में प्राप्त हुए दुःखोंके विस्तार से नहीं डरता है वह तपसे डरता है । अभिप्राय यह है कि जिसे इष्टानिष्टके वियोग संयोगादिकी चिन्ता नहीं वही तपसे विमुख रहता है, किन्तु जो उनसे भयभीत है वह विषयतृष्णाको छोड़कर तपका आचरण करता है || २७ ॥ तप प्राणियों के लिये जिस जिनकथित फलको करता है उसको किसी प्रकारसे न बन्धुजन देते हैं, न कुटुम्बीजन देते हैं, न स्त्री देती है, न सेवक समूह देते हैं, न मित्र देते हैं और न पुत्र भी देते हैं ।। २८ । जिस तपके प्रभाव से प्राणी देवांगनाओंसे सुशोभित स्वर्गमें रोगसे रहित भोगोंको भोगता है तथा जिसके प्रभावसे बड़ चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिके समूहसे दिशाओं को धवलित करता हुआ मनुष्य लोकमें भी अमूल्य भोगोंको भोगता है और फिर अन्तमें गण्डित जनोंसे प्रशंसित व अनन्त सुखको देनेवाली मुक्तिमणिको प्राप्त करता है वह पापरूप मलको धो डालनेवाला निर्मल जैन तप हमारा अतिशय कल्याण करे ।। २९ । जो जैन तप ज्वालायुक्त, अग्निके समान दुःखोंरूप वृक्षोंसे व्याप्त संसाररूप वनको जला डालता है तथा जो बाधारहित निर्दोष अविनश्वर एवं उत्कृष्ट मोक्ष सुखको देता है उस तपकी समस्त परिग्रहको छोड़कर काम के अभिमानको नष्ट करनेवाले जो मुनि शरीररूप शत्रुको नष्ट करनेकी इच्छासे धारण करते हैं वे हमारे मनको पवित्र करें ॥ ३० ॥। जोव-अजीव आदि तत्त्वोंके प्रगट करनेमें निपुण, कामके मदको नष्ट करनेवाले, क्रोधरूप सुभटके
१ सयांगजाः | २. 28 | ३ चर । ४ स तपोभुक्तये ।