Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 238
________________ ૨૪ सुभाषितसंदोहः 856) पञ्चैते ऽनयँबण्डस्य विरतेः कथिता मलाः । समस्त वस्तुविस्ता' रवेदिभिजिनपुंगवः ॥ ९५ ॥ 857) अस्थिरस्यामृत योगदुष्क्रियानादरा मलाः । सामायिक व्रतस्यैते मताः पञ्च जिनेश्वरेः ॥ ९६ ॥ 858) अदृष्टा माजितोत्सर्गादान "संस्तारक' क्रियाः । अस्मृत्वानावरी पञ्च प्रोषधस्य मलाः मताः ।। ९७ ॥ 859 ) सचित्त मिश्र संबद्धदुः 'पक्याभिषवाशिताः । भोगोपभोगसंख्याया मलाः पञ्च निषेविताः ॥ ९८ ॥ 860) सचित्ताच्छादनक्षेपकालातिक्रममत्सराः । सहान्यव्यपवेशेन वाने पञ्च मला मताः ॥ ९९ ॥१ 861} पञ्चत्वजीविताशंसे " मित्ररागसुखाग्रहः । निवानं चेति निर्दिष्टं संन्यासे मलपञ्चकम् ॥ १०० ॥ [ 856 : ३१-१५ अनर्थदण्डस्य विरतेः एवं पञ्च मला कविताः । ९४-९५ ।। जिनेश्वरे अस्थिरत्वास्मृत योगदुष्क्रियानादराः एते पञ्च सामायिकव्रतस्य मलाः मताः । ९६ ।। प्रोषषस्य दृष्टामाजितोत्सर्गादानसंस्तारकक्रियाः अस्मृत्वानादरी पञ्च मला मताः ॥ ९७ ॥ भोगोपभोगसंख्यायाः सचित्तमिश्रसंयदुः पचवाभिषवाशिताः पञ्च मलाः निवेदिताः ॥ ९८ ॥ दामे अम्यव्यपदेशेन सह सचित्ताच्छाद निक्षेपकाला विक्रममत्सराः पञ्च मला मताः ॥ ९९ ॥ संन्यासे पञ्चत्वजीविताशंसे मित्ररागसुखाग्रहः च से कार्य करना, जितने अर्थसे भोग और उपभोगका कार्य चलता है उससे अधिक अर्थको रखना, बहुत और असम्बद्ध भाषण करना, कौत्कुच्य ( शरीर की कुचेष्टा करना ) और मदनातंता ( कामपीडा ) अर्थात रागके वश होकर हास्यसे परिपूर्ण अशिष्ट वचन बोलना; ये पाँच समस्त वस्तुनोंके विस्तारको जाननेवाले जिनेन्द्र देवके द्वारा अनर्थदण्डव्रत अतिचार कहे गये हैं ।। ९४-९५ ।। अस्थिरत्वास्मृत ( स्मृत्यनुपस्थान ) अर्थात् सामायिकमें एकाग्रताका न रहना; योगदुष्क्रिया अर्थात् मन, वचन एवं काय इन तीन योगोंका सामद्यमें प्रवृत्त होना, और अनादर ( उत्साह न रखना) जिनेन्द्रके द्वारा ये पाँच सामायिक व्रतके अतिचार माने गये हैं ।। ९६ ॥ अदृष्टाप्रमात्रितोत्सर्ग अर्थात् बिना देखी और विना शोधी हुई भूमिके ऊपर मल-मूत्रादि करना, बिना देखे और बिना शोधे पूजाके उपकरणों व वस्त्र आदिको ग्रहण करना, बिना देखे और बिना शोघे विस्तर आदिका बिछाना, अस्मरण और अनादर ये पाँच प्रोषधके अतिचार माने गये हैं । ९७ ॥ सचित्त ( ओबोंसे प्रतिष्ठित वनस्पति आदि ) भोजन, सचित्तसे मिला हुआ भोजन, सचितसे सम्बद्ध भोजन, ठीकसे नहीं पका हुआ भोजन और अभिषव अर्थात् गरिष्ठ भोजन; ये पाँच भोगोपभोगपरिमाण व्रतके अतिचार कहे गये हैं ।। ९८ ॥ सचिन्त पद्मपत्रादिसे आच्छादित आहारको देना, सचित्त पत्ते आदिमें रखे हुए आहारको देना, आहारके कालका उल्लंघन करके आहार देना, दूसरे दाता श्रावकके गुणोंको न सहना - उससे ईर्ष्या रखना और परव्यपदेश अर्थात् स्वयं आहारदान न करके दूसरेके लिये देय वस्तु ( आहार ) को देते हुए उसे आहार देनेके लिये कहना; ये पांच दान ( अतिथिसंविभाग ) के अतिचार माने गये हैं । ९९ ॥ व्याविसे अतिशय पीड़ित होकर मरनेको १ स सामाथिका दिभेदांपत्र वंदिभि° । २ स अस्थिरत्वं । ३ स स्मृतं । ४ स अदृष्ट, अदृष्ट्व । ५ स ० दानं° । ६ स "संस्तरक:°, "संस्तरक" । ७स क्रियाम्, ° क्रिया । ८ स सच्चित" । ९ स " संबंध, वासिताः, दुष्पक्वात्रिषवासिता । १० स om. 99 ११ स शंसो, संशे, संशे ।

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