Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 236
________________ [ 844:३१-८३ २२२ सुभाषितसंदोहः 841) एकादश गुणानेवं धत्ते यः क्रमतो गरः । मामरश्रियं भुक्त्वा यात्यसौ मोक्षमक्षयम् ॥ ८३ ॥ ४.5) वधो रोधो ऽनपानस्य गुरुभारातिरोहणम् । बन्धच्छेदों मला. पन प्रथमवतगोचराः॥८४ । 86) कूटलेखक्रिया मिथ्यावेशनं न्यासलोपनम् । ___ पैशुन्य मन्त्रभेदश्च द्वितीयव्रतगा मलाः ॥ ८५ ॥ 847) स्तेनानीतसमादानं स्नानामनुयोजनम् । विरुखे ऽतिकमो राज्ये फूटमानादिकल्पनम् ।। ८६ ॥ 848) कृत्रिमव्यवहारश्च तृतीयव्रतसंभवाः । अतिचारा जिनः पञ्च गविता धुतकर्मभिः ॥ ८७ ।। 849) अनङ्गसेवनं तीनमन्मथाभिनिवेशनम् । गमनं पुंश्चलोनार्योः स्वीकृरोत ररूपयोः ॥ ८८ ।। अक्षयं मोक्ष याति ॥ ८३ ॥ वधः, अन्नपानस्य रोधः; गुरुभागतिरोहणं, दन्धच्छेदी इमे पञ्च मलाः प्रथमवतगोचराः ॥८॥ कटलेखक्रिया. मिथ्यादेशन, न्यासलोपनं. पैशम्य मन्त्रभेदः च [इमे 1 मलाः द्वितीयवतगाः भवन्ति ।। ८५ ॥ स्तेनातोत. समादानं, स्तेनानामनुयोजन, विरुवं राज्ये अतिक्रमः, कूटमानादिकल्पन, कृषिमम्यवहारः च घुतकर्मभिः जिनः तृतीयवतसंभाः पञ्च अतिचाराः कदिताः ॥ ८६-८७ ॥ अनङ्गसेवनं, तीव्रमम्मवाभिनिवेशनं, स्वीकृतेतररूपयोः पुस्पलीनायों: आदि ) और देवोंकी लक्ष्मीको भोग करके अविनश्वर मोक्षको प्राप्त होता है ।। ८३ ॥ वध ( लकड़ी या चावुक आदिसे मारना ), आहार-पानीका रोक देना, न्याय्य बोझसे अधिक बोझा लादना, रस्सी आदिसे बांधना और नासिका आदिका छेदना; ये पांच प्रथम अहिंसाणुव्रत सम्बन्धी दोष हैं-इनसे वह अहिंसाणुव्रत मलिन होता है ।। ८४ ॥ कूटलेखक्रिया ( दूसरेने जो बात नहीं कही है या जो कार्य नहीं किया है उसने वैसा कहा था या वैसा किया था, इस प्रकार किसीको प्रेरणासे लिखना), मिथ्या उपदेश ( स्वर्ग-मोक्षकी साधनभूत क्रियायोंमें अन्य जीवोंको विपरीततासे प्रवर्ताना अथवा धोखा देना ), न्यासलोप { किसीके अपनी रखी हुई धरोहरके विषयमें भूलसे कम मांगनेपर तदनुसार कम देना--पुरा न देना), पैशून्य (स्त्री-पुरुषोंके द्वारा एकान्तमें की गई क्रियाओंको प्रकट करना ) और मन्त्रभेद { प्रकरणवश अथवा मुखके आकार आदिको देखते हुए दूसरेके अभिप्रायको जानकर इा आदिके कारण उसे प्रगट करना ); ये पांच अतिचार द्वितीय व्रत ( सत्यागुवत ) को मलिन करनेवाले हैं ।। ८५ ॥ चोरीसे लाई गई वस्तुओं ( सुवर्ण व चांदी आदि )का ग्रहण करना, चोरोंको चोरी कर्ममें प्रवृत्त करना, विरुद्ध राज्यातिक्रम अर्थात् विपरीत राज्यमें अल्प मूल्यमें प्राप्त होनेवाली वस्तुओंको लेना । तात्पर्य यह कि न्यायमार्गसे च्युत होकर वस्तुओं का क्रय-विक्रय करना, नापने व तौलनेके उपकरणोंको हीन व अधिक रखना और कृत्रिम व्यवहार अर्थात् बहुमूल्य वस्तुमें अल्प मूल्यवालो वस्तुको ( जैसे सुवर्णमें ताँबा आदि ) मिलाकर बेचना अथवा बहुमूल्य वस्तुके स्थानमें अल्पमूल्य वस्तुको ( जैसे सुवर्णके स्थानमें पीतल ) घोखा देकर बेचना; ये पांच अतिचार कर्मोको नष्ट कर देनेवाले वीसराम देवने अचौर्याणुव्रतमें सम्भव होनेवाल कहे हैं ॥ ८६-८७ ॥ कामसेवनके अंगभूत योनि और १ मव्ययं । २ स °छेदो, छेदैः । ३ स मलापं च । ४ स "ति कमो । ५ स गमने । ६ स स्वोकृतेतारू ।

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