Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ ३२. द्वादशविधतपश्चरणषट्त्रिंशत् ] . 879) प्रणम्य सर्वतमनन्तमोपवरं जिनेन्द्रचन्द्रं धुत'कर्मवन्धनम् ।
विनाश्यते येन तुरन्तसंसृतिस्तदुच्यते मोहतमोपहं तपः ॥१॥ 880) विनिर्मलानन्तसुखेककारणं दुरन्तदुःखानलवारिवागमम् ।
द्विषा तपो ऽभ्यन्तरबागभेदतो ववन्ति षोढा पुनरेकशी जिनाः ॥ २ ॥ 381) करोति साधुनिरपेक्षमानसो विमुक्तये मन्मथशत्रुशान्तये।
तवास्मशक्त्याननं तपस्यता विधीयते येन मनःकपिर्वशः ॥३॥ 882) शमाय रागस्य वशाय चेतसो जयाय निवातमसो बलीयसः ।
श्रुताप्तये संयमसामनाय च तपो विषसे मित भोजनं मुनिः ॥ ४ ॥ धुतकर्मबन्धनं सर्वशम् अनन्तम् ईपवरं जिनेन्द्रचन्द्रं प्रणम्य येन दुरन्तसंसृतिः विनाश्यते तत् मोहतमोपहं तपः उच्यते ॥ १ ॥ जिना: विनिर्मलानन्तसुखककारणं दुरन्तदुःखामलवारिवागमम् अभ्यन्तरगाह्मभेदसः द्विषा तपः वदन्ति । पुनः एकशः षोडा वदन्ति ॥ २॥ निरपेक्षमानसः साधुः मन्मपशत्रुशान्तये विमुक्तये तत् अनशनं तपः करोति । आरमशक्त्या तपस्यता येन मनःकपिः दशः विधीयते ।। ३॥ मुनिः रागस्य शमाय, चेतसः वशाय, वलीयसः निद्रातमसो जयाथ __ सर्वज्ञ, अनन्त, ईश्वर और कर्मबन्धसे रहित जिनेन्द्ररूप चन्द्रको प्रणाम करके जिस तुपके द्वारा दुविनाश संसार नष्ट किया जाता है तथा जो मोहरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाला है उस तपकी प्ररूपणा की जाती है॥१॥ जो तप निर्मल अनन्त सुखका प्रधान कारण होकर दुविनाश दुखरूप अग्निको शान्त करनेके लिये मेघोंके आगमनके समान है जसे जिनदेव बाह्य एवं अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका बतलाते हैं । इनमें भी प्रत्येक के छह छह भेद हैं ।। २ ॥ जिस अनुष्ठित अनशन तपके द्वारा मनरूप मर्कट वशमें किया जाता है उसको मुनि मनमें किसी प्रकारके सांसारिक फलकी अपेक्षा न रखकर कामरूप शत्रुको शान्त करके मोक्षप्राप्तिके लिये अपनी शक्तिके अनुसार करते हैं ॥ ३ ॥ विशेषार्थ-इच्छाओंके रोकनेका नाम तप है। वह दो प्रकारका है बाह्य तप और अभ्यन्तर तप। जिस तपका प्रभाव बाह्य शरीर एवं इन्द्रियोंके ऊपर पड़ता है तथा जो बाह्यमें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है वह बाह्य तप कहा जाता है। उसके छह मेद हैं-अनशन, मितभोजन { ऊनोदर ), वृत्तिपरिसंस्थान, रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्तशय्याशन । इनमें अन्न-पानादि चार प्रकारके आहारके परित्यागको अनशन तप कहा जाता है । जिसप्रकार बंदर इधर उधर वृक्षादिके ऊपर दौड़ता हुआ कभी स्थिर नहीं रहता है उसी प्रकार मनुष्यका मन भी विषयोंमें निरन्तर दौड़ता हुआ कभी स्थिर नहीं रहता है । उसको प्रकृत अनशन तपके द्वारा स्थिर किया जाता है। कारण यह है कि भोजनके द्वारा ही इन्द्रियाँ एवं मन उद्धतताको प्राप्त होते हैं । अतएव उक्त भोजनके परित्यागसे वे स्वभावतः शान्त रहते हैं। इनकी शान्तिसे प्रबल काम ( विषयवांछा ) भी स्वयं शान्त हो जाता है । इस प्रकारसे साधु अपनी शक्तिके अनुसार उक्त अनशन तपको करता हुआ कामको शान्त करके अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त कर लेता है ।। ३ ।। मुनि राग-द्वेषको शान्त करनेके लिये, मनको वशमें करनेके लिये, अतिशय बलवान् निद्रारूप अन्य..
१ स "दुत°, "द्रुत । २ स विनाशते । ३ स तमः । ४ स 'कारिणे । ५ स तपोभ्यन्तर । ६ स तपस्पतो, तपस्यते । ७ स वशम् । ८ स मिति ।