Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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855 : ३१-२४]
३१. श्रावकधर्मकयनसप्तदशोत्तरं शतम् 850) अन्यदीयविवाहस्य विधानं जिनपुंगवैः ।
अतिचारा मताः पञ्च चतुर्थव्रतसंभवाः ।। ८९ ।। 151) हिरण्यस्वर्षयोर्वास्तुक्षेत्रयोधनधान्ययोः ।
कुप्यस्य दासदास्योश्च प्रमाणे ऽतिकमाभिधाः ॥९॥ 852) अतिचारा जिनैः प्रोक्ताः पञ्चामी पञ्चमे व्रते।
वजनीयाः प्रयत्लेन व्रतरमाविचक्षणः ॥२१॥ 853) क्षेत्रस्य वर्धनं तिरंगाधो व्यतिलहुन्नम् ।
स्मृत्यन्तरविषिः पञ्च मता विग्विरतेमलाः ॥१२॥ 854) आनीतिः पुदग लक्षेपः" प्रेष्य'लोकानुयोजनम् ।
शब्दरूपानुपातौ च स्युर्वेशविरतेमलाः ॥१३॥ 855) असमीक्षक्रिया भोगोपभोगानर्थकारिता।
बहुसंबन्धभाषित्व कौफुज्यं मदनार्तता" ॥१४॥ गमनम्, अन्यदीयविवाहस्प विधानं, जिनपुंगवैः चतुर्थवतपञ्चकस्य पञ्च अतिचाराः मताः ॥ ८८-८९ ॥ पञ्चमे यते हिरण्यस्वर्णयोः, बास्तुक्षेत्रयोः, पनघान्मयोः, कुष्यस्य दासदास्योः च प्रमाणे अतिक्रमाभिषाः पञ्च अतिचाराः जिन: प्रोक्ताः । . वतरक्षाविचक्षणः ते प्रयत्नेन वर्जनीयाः ॥ ९०-९१ ।। क्षेत्रस्य वर्धनं, तिर्यगृषिो म्यतिलङ्घनं, स्मृत्यन्तरविधिः दिग्विरते: पञ्च मलाः मताः ॥ ९२ ।। आनीतिः, पुद्गलक्षेपः, प्रेष्यलोकानुयोजनं च शब्दरूपानुपाती देशविरतेमलाः स्युः ॥१३॥ समस्तयस्तुविस्तार दिभिः जिनपुङ्गवैः असमीक्ष्य क्रिया, भोगोपभोगानकारिता, बहसंबन्धभाषित्वं, कोत्तुच्य, मदनातं ता, मेहनके सिवाय अन्य अंगोंसे कोड़ा करना, विषय भोगकी अतिशय लालसा रखना, स्वीकृत (विवाहित) अथवा अस्वीकृत (अविवाहित वेश्या अथवा विधवा आदि) व्याभिचारिणी स्त्रियों के यहां जाना ये दो तथा दुसरोंका विवाह करना; ये पांच जिनेन्द्र देवके द्वारा ब्रह्मर्याणुव्रतमें सम्भव होनेवाले अतिचार माने गये हैं ।। ८८-८९ ।। चांदी और सोनेके प्रमाणका उल्लंघन करना, घर और खेतके प्रमाणका उल्लंघन करना, धन (गाय; भंस व धोड़ा आदि) और धान्य (गेहूँ, जौ व चावल आदि) के प्रमाणका उल्लंघन करना, कुप्य (सुवर्ण व चांदोके अतिरिक्त कांसा पीतल आदि तथा साधारण व रेशमी वस्त्रादि) के प्रमाणका उल्लंघन करना तथा दास और दासीके प्रमाणका उल्लंघन करना; ये पांच जिन भगवान्के द्वारा पांचवें परिग्रहपरिमाणवतके अतिचार कहे गये हैं। व्रतके पालनमें निपुण पुरुषोंको इनका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिये ॥ ९०-९१ ॥ की हुई मर्यादाका बढ़ा लेना, तिरछी सीमाका उल्लंघन करना, पर्वतादिके कार चढ़ते हुए ऊर्व दिशाको मर्यादाका उल्लंघन करना, कुएं व खान बादिमें जाकर अघोदिशा संबंधी मर्यादाका उल्लंघन करना तथा की हुई मर्यादाको भूल जाना, ये पांच दिग्वतके अतिचार माने गये हैं ॥९२ ॥ स्वयंको हुई मर्यादाके भीतर स्थित रहकर मर्यादाके बाहरको वस्तुको मंगानेके लिये दूसरेको आशा देना, कंकड़ आदिको फेंककर मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिके ध्यानको खींचना, मर्यावाके बाहर कार्य कराने के लिये किसी अन्यको नियुक्त करना; खांसने आदिके शब्दसे मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिके ध्यानको खोंचना, अपने आकारको दिखाकर उसका ध्यान खींचना, ये पांच देशवत्तके अतिचार हैं ।। ९३ ॥ असमीक्षक्रिया अर्थात् प्रयोजनका विचार न करके अधिकता
१ स तिक्रमाद्दिया, °मिधा, °विघा, प्रमाणेति क्रमाद्विधा । २ स orn. 9। ३ स आनीति, अनीतिपु० । ४ स पुद्गलः । ५ स °क्षेपाः । ६ स प्रेक्ष्य लोका° ७ स on. 93 | ८ स "क्रियाभो । १ स संवन्धनाक्षित्वं । १० स कौत्कुच्यं । ११ स मदनार्द्रता ।