Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 232
________________ २१८ सुभाषितसंदोहः [819:३१-५८ 819) प्रतिपहोचवेनाप्रिक्षालन पूजनं नतिः । त्रिशुद्धिरन्नशुद्धिश्च पुण्याय नवषा विधिः ॥१८॥ 820) 'सामायिकाविभेवेन शिक्षा प्रतमुदीरितम् । चतुति गृहस्थेन राणीयं हितैषिणा ॥ ५९॥ 82}) द्वादशाणुवतान्येवं कषितानि जिनेश्वरः। गृहस्थैः पालनीयानि भवदुः जिहासुभिः ॥ ६ ॥ 822) स्वकीयं जीवितं प्रात्या त्यक्त्या सर्वा मनःशिसिम् । बन्धनापृच्छ्म निःशेषांस्त्यक्त्वा बेहाविमच्छनाम् ॥ ६१ ॥ 823) माझमम्यन्तरं संग मुक्स्वा सर्व विषानतः। विषायालोचना शुदा हृदि न्यस्य नमस्कृतिम् ॥ ६२ ॥ गुणाः ध्रियन्ते ।। ५७ । प्रतिग्रहोम्मदेशानिक्षालन, पूजनं नतिः, त्रिशुद्धिः च अनशुद्धिः इति नवधा विधिः पुष्पाय भवति ॥ ५८ ॥ सामायिकादिभेदेन इति चतुर्षा उदोरितं शिक्षाव्रतं हितैषिणा गृहस्थेन रक्षणीयम् ।। ५९ ॥ एवं जिनेश्वरः कषितानि द्वादश अणुप्रतानि भवदुःख जिहाभिः गृहस्थः पालनीयानि ।। ६० ॥ स्वकीय जीवितं ज्ञात्वा, सर्वां मनःस्पिति त्यक्त्वा निःशेषान् बन्धून् आपच्छ्य देहादिमूर्छनां त्यक्त्वा सर्व बाह्यम् अभ्यन्तरे संग विधानतः मुक्त्वा शुद्धाम् आलोचनां गृहस्य दान देता है वह अभीष्ट फलको प्राप्त करता है, इस प्रकारका दाताको विश्वास होना चाहिये । प्रमोद-दाताको दान देते समय अतिशय हर्ष होना चाहिये । उसे यह समझना चाहिये कि आज मेरा गृह साधुके आहार लेनेसे पवित्र हुआ है, यह सुयोग महान् पुण्यके उदयसे ही प्राप्त होता है । सत्त्व-धन थोड़ा-सा भी हो, तो भी सात्त्विक दाता भक्तिवश ऐसा महान् दान देता है जिसे देखकर बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुष भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। विज्ञान-दाताको द्रव्य (देय वस्तु), क्षेत्र काल, भाव, दानविधि एवं पात्र आदिका यथार्थ ज्ञान होना चाहिये। क्योंकि इसके बिना वह दान देनेके योग्य नहीं होता है। क्षमा-कलुषताके कारणके रहते हुए भी श्रेष्ठ दाता कभी क्रोधादिको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय भी वह क्षमाको ही धारण करता है। मक्ति-भक्तियुक्त दाता सत्पात्रके गुणोंमें अनुराग रखता है, वह आलस्यको छोड़कर स्वयं ही पात्रको आहारादि प्रदान करके उसकी सेवा-शुश्रूषा करता है । निर्लोभता-निर्लोभ दाता ऐहिक और पारलौकिक लामकी अपेक्षा न करके कमी दानके फलस्वरूप सांसारिक सुखको याचना नहीं करता है। प्रतिग्रह- मुनिको देखकर 'नमोस्तु, तिष्ठत' इस प्रकार तीन बार कहकर स्वीकार करना, मुनिको घरके भीतर ले जाकर निर्दोष ऊँचे बासमपर बैठाना, पादप्रक्षालन, गन्ध-अक्षतादिके द्वारा पूजा करना, पंचांग प्रणाम करना, मनकी शुद्धि, वचनको शुद्धि, कायकी शुद्धि और भोजनकी शुद्धि; यह नो प्रकारको विधि पुष्पके लिये होती है ॥ ५८॥ सामायिक आदिके भेदसे जो यह चार प्रकारका शिक्षावत कहा गया है उसको कल्याणाभिलाषी श्रावकको रक्षा करना चाहिये ॥ ५९॥ उपयुक्त प्रकारसे जिनेन्द्र देवने जो बारह अणुवत बतलाये हैं उनका संसारदुखको नष्ट करनेकी इच्छा करनेवाले गृहस्थोंको पालन करना चाहिये ॥६० ॥ अन्तमें उत्तम श्रावक अपने जीवितको जान करके–परणकालको निकटताका निश्चय करके--समस्त मनोविकल्पको छोड़ देते हैं और सब कुटुम्बी एवं संबन्धी जनोंको पूछ करके शरीर आदि सब ही बाह्य वस्तुबोंमें निर्ममत्व हो जाते १स पतिग्रहोच । २ स क्षालन । ३ स ODI, 58। ४ स सामायक°। ५ स शिख्या', शिष्या। ६ स संग द्विधा मुच्य विधानत ।

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