Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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३१. श्रावकधर्मकयन सप्तदशोत्तरं शतम्
४२३१-६८ 1
824 ) जिनेश्वरक्रमा भोजभूरिभक्ति' भरानतैः 1
सल्लेखना विधातव्या मृत्युतो नरसत्तमैः ॥ ६३ ॥ 825) दुर्लभं सर्वदुःखानां नाशकं बुधपूजितम् ।
सम्यक्त्वं रलवद्धार्यं संसारान्तं विवासुभिः ॥ ६४ ॥ 826) षद्रव्याणि पदार्थाश्च नव 'तत्वादिभवतः ।
जायते श्रद्दधज्जीवः सम्यग्दृष्टिनं संशयः ॥ ६५ ॥ 827) अतीतेऽनन्तश: काले ओवेन भ्रमता" भवे ।
कानि दुःखानि नाप्तानि विना जैनेन्द्रशासनम् ॥ ६६ ॥ 828) निर्द्वन्यं निर्मलं पूतं यं जैनेन्द्रशासनम् ।
मोक्षवति कर्तव्या मतिस्तेन विचक्षणः ॥ ६७ ॥ 829 ) ज्योतिर्भावन भौमेषु षट्स्वषः श्वभ्रभूमिषु ।
जायते स्त्रीषु सद्दृष्टिनं मिया द्वादशाङ्गिषु ॥ ६८ ॥
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विधाय हृदि नमस्कृति न्यस्य जिनेश्वरक्रमाम्भोजभूरिभक्ति भरानतः नरसत्तमैः मृत्युतः सल्लेखना विधातव्या ॥ ६१-६३ ॥ संसारान्तम् इयासुभिः रत्नवत् दुर्लभं सर्वदुःखानां नाशकं बुधपूजितं सम्यक्त्वं धार्यम् ।। ६४ ।। षड् द्रव्याणि पदार्थान् व नवतत्त्वादिभेदतः षचत् जीवः सम्यग्दृष्टिः जायते । न संशयः ॥ ६५ ॥ अनन्तशः अतीते काले भवे भ्रमता जीवन जैनेन्द्रशासन दिन कानि दुःखानि न काप्तानि ॥ ६६ ॥ तेन विचक्षणः निर्ग्रन्यं निर्मलं पूतं तथ्यं जैनेन्द्रशासनं मोक्षव इति मतिः कर्तव्या ॥ ६७ ॥ सद्दृष्टिः ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्सु बधः श्वभ्रभूमिषु स्त्रीषु मिथ्या द्वादशानिषु न
है । इस प्रकार वे बाह्य एवं अभ्यन्तर सब परिग्रहको छोड़कर विधिपूर्वक शुद्ध आलोचनाको करते हुए जिनेन्द्रके चरणकमलों में अतिशय भक्ति प्रगट करते हैं तथा नम्रतापूर्वक उन्हें अन्तःकरणसे नमस्कार करते हैं। इस विधिसे वे मृत्युसे सल्लेखनाको स्वीकार करते हैं- आवश्यक कर्तव्य समझ करके वे आगमोक्त विधिसे समाधिमरणको अंगीकार करते हैं ।। ६१-६३ ।। जो श्रावक संसारको नष्ट करना चाहते हैं वे उस निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करें जो कि रत्नके समान दुर्लभ, समस्त दुःखों का नाशक और विद्वानोंसे पूजित है । ६४ ।। जो जीव छह द्रव्य, नो पदार्थ और जीवाजीवादिके भेदसे सात तत्व आदिका श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है; इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ६५ ॥ यह जीव अनन्त अतीत कालसे संसारमें परिभ्रमण करता रहा है। उसने वहां जैनधर्मके बिना कौन से दुख नहीं प्राप्त किये हैं ? अर्थात् उसने वहीं सब प्रकारके दुःखोंको सहा है ॥ ६६ ॥ इसलिये तत्त्वज्ञ जनोंको यह विचार करना चाहिये कि परिग्रहसे रहित, निर्मल, पवित्र एवं यथार्थ जिनेन्द्रकथित धर्म ही मोक्षका मार्ग है- अन्य सब संसारपरिभ्रमणके ही कारण हैं ॥ ६७ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव ज्योतिषी, भवनवासी व व्यन्तर देवों में नीचे की शर्कराप्रभादि छह नरकभूमियों में, स्त्रियोंमें तथा मिथ्यात्वसे
लुषित इन वारह प्रकारके प्राणियों में भी नहीं उत्पन्न होता है—१ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त २ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, ३ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, ४ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त ५ दोइन्द्रिय पर्याप्त ६ दोइन्द्रिय अपर्याप्त, ७] तो इन्द्रिय पर्याप्त ८ तीनइन्द्रिय अपर्याप्त, ९ चारइन्द्रिय पर्याप्त १० चारइन्द्रिय अपर्याप्त, ११ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और १२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त ॥ ६८ ॥ जो जीव एक क्षणके लिये भी सम्यग्दर्शनको
१ स भक्त । २ स "वष्या मृत्युतो । ६ स "पूजकं ४ स नयसत्त्वा तत्वानि । ५ स भ्रमतो । ६ स तथ्यं पूतं । ७ स भवनभोमे ।
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