Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 225
________________ २११ 787 : ३१-२६ ] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोसरं शतम् 782) कि सुखं लभते मत्यः सेवमानः परस्त्रियम् । केवलं कर्म बजाति श्वनभूम्यादिकारणम् ॥ २१ ॥ 783) वर्च:सवनवा स्पा जल्पने जघने सथा। निक्षिपन्ति मलं निन्ध निन्दनीया जनाः सदा ।। २२ ॥ 784) मधमांसाविसक्तस्य या विषाय विडम्धनम् । नीचस्यापि मुखं न्यस्ते रोना व्यस्य लोमतः ।। २३ ॥ 785) तां पेक्ष्या सेवमानस्य मम्मपाकुलचेतसः । तन्मुखं चुम्बतः पुंसः कर्य तस्याप्यणुवतम् ॥ २४ ॥ 786) तो ऽसौ पयरमणो चतुर्षवतपालिना। यावज्जीवं परित्याज्या जातनिघणमानसा ॥ २५ ॥ 787) सप्रस्वघराधान्य'धेनुभूत्यादिवस्तुनः । या" गृहोतिः प्रमाणेन पाम तवणुवतम् ॥ २६ ॥ - कथं विश्वास अयते ।। २० ।। परस्त्रियं सेवमानः मर्त्यः सुखं लभते किम् । मेवलं विभूम्यादिकारणं कम बध्नाति ॥ २१॥ वर्गः सदनवत यस्याः अल्पने तथा जपने निन्दनीयाः जनाः सदा निम्नं मलं निक्षिपन्ति ।। २२ ।। दीना या विडम्बनं विधाय मद्यमांसादिसक्तस्य नीचस्य अपि मुखं व्यस्म लोभतः निस्ते ।।२३।। तां वेश्या सेवमानस्य, तन्मुखं चुम्यतः, मन्मथाकुलचेतसः तस्य पुंसः अपि कथम् अगुवतम् ।।२४।। ततः चतुर्थनतपालिना असो जातनिघृणमानसा पण्परमणी पावज्जीवं परित्याग्या । २५॥ सप्रस्वर्णपराधान्यधेनुभृत्यादिवस्तुनः प्रमाणेन या गृहोतिः तत् पञ्चमम् अणुव्रतम् ॥२६॥ श्रावकैः दिवानिश वर्धमानः दावाअपने पतिको छोड़कर निर्लज्जतापूर्वक दूसरे पुरुषके पास जातो है उस अपनी स्त्रीके विषयमें अन्य पुरुष ( उसका पत्ति } कैसे विश्वास कर सकता है ? नहीं कर सकता है ॥ २० ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि बो स्त्री अपने पतिको छोड़कर दूसरे जनके पास जाती है और उसके प्रति अनुराग प्रगट करतो है उसके ऊपर दूसरे जनको कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जो अपने विवाहित पतिको छोड़कर अन्य मनुष्यके पास जाती है वह समयानुसार उसको भो छोड़कर किसो तीसरेसे भी अनुराग कर सकती है। अतएव विवेकी जनको परस्त्रीसे दूर रहकर अपने ब्रह्मचर्याणुव्रतको सुरक्षित रखना चाहिये ॥ २० ॥ परस्त्रीको भोगनेवाला मनुष्य इसमें क्या सुख पाता है ? कुछ भी नहीं। वह केवल नरकादि दुर्गतिके कारणभूत कर्मको ही बांधता है ॥ २१ ॥ जिस वेश्याके मुख और जघनमें नीच मनुष्य पुरीषालय (पाखाना ) के समान निरन्तर घृणित मलका क्षेपण करते हैं, तथा जो घनके लोभसे दीनताको प्राप्त होती हुई धोखा देकर मद्य व मांस बादिमें आसक्त रहनेवाले नीच पुरुषके भो मुखको चूमती है; उस वेश्याका जो मनुष्य कामसे व्याकुलचित्त होकर सेवन करता है और उसके मुखको चूमता है उसका अणुवत कैसे सुक्षित रह सकता है ? नहीं रह सकता है ।। २२-२४ ।। इसीलिये ब्रहाचर्याणुव्रतका पालन करनेवाले श्रावकको उस कठोर हृदयवाली वेश्याका जीवन पर्यन्तके लिये परित्याग करना चाहिये ॥ २५ ॥ घर, सुवर्ण, भूमि, धान्य, गाय और सेवक आदि वस्तुओंका जो प्रमाण निर्धारणपूर्वक ग्रहण किया जाता है; उसे परिग्रहप्रमाण नामका पांचवां अणुमत समझना १ सदनवतस्या, °सदनं यस्यापि, वत्तस्या । २ स निवाः । ३ स om. verse 24th । ४ स जाति° । ५ स "मानसाः । ६ स पान्या । ७ सयो महीत ।

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