Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 205
________________ १९" 103 : २८-१४] २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः 700) मदमदनकषायप्रीतिभूत्यादिभूतं वितयमवितयं च प्राणिवर्गोपतापि । श्रवणकटु विमुच्य स्वापरेम्यो हितं यद वचनमवितथं तत्कण्यते तथ्यबोधैः ॥ ११॥ 701) वहति झटिति लोभो लाभतो वर्धमान स्तुणचयमिव वह्नियः सुखं देहभाजाम् । व्रत्तगुणशमशीलध्वंसिनस्तस्य नाश प्रणिपदत" मुमुक्षोः साधवः साधु' शौचम् ॥ १२ ॥ 702) विषयविरतियुक्ति जिताक्षस्य साघो निखिलतनुमतां यद्रक्षणं स्यात् त्रिधापि । तनुभयमनवचं संयम धर्णयन्ते मननरविमरोषध्यस्तमोत्रान्धकाराः॥१३॥ 703) गलितनिखिलसंगो ऽनङ्गसंगे" ऽप्रवीणो" विमलमननपूतं कर्मनि शनाय । चरति चरितमय संयतो यन्मुमुक्षुमयितस्कृतमान्या"स्तत्तपो वर्णयन्ति ॥ १४ ॥ उनुभनवचोभिः वक्रता न याति, तस्य साधोः ऋजुमानं गतमलं वदन्ति ।। १० । मदनमदकषायप्रीतिभूल्यादिभूतं प्राणिवर्गोपतापि, श्रवणकटु, वितथम् अवितथं च वचनं विमुच्य स्वापरेभ्यो हितं यद्वचनं तत् तत्त्वयोधं. अवितयं कथ्यते ।। ११ ॥ वर्धमानः बह्निः तृणधयम् इव लाभतो वर्धमानः यः लोभः देहभाजां सुख झटिति दहति । [ भोः ] साघवः व्रतगुणशमशोलध्वंसिनः तस्य नाशं मुमुक्षो साघु शोचं प्रणिगदत ।। १२ ।। मननरविमरीचिध्वस्तमोहान्धकाराः जिताक्षस्प सापोः या विषयविरतियुक्तिः, निखिलतनुमतां त्रिपा यत् रक्षणमपि तत् उभयम् अनवचं संयम वर्णयन्तं ॥ १३ ।। गलितनिखिलसंगः अनङ्गभङ्मप्रवीणः मुमुक्षुः संयत: कर्मनिनाशनाय विमलमनसि पूतम् अभ्यं यत् परितं परति मथितसुकृतमान्धाः तत् तपः चाहे सत्य भी हो; किन्तु यदि वह प्राणि समूहके लिये संतापजनक एवं कर्ण कटु है तो उसको छोड़कर जो वचन अपने लिये व अन्य प्राणियों के लिये हितकारक है उसको तत्त्वके जानकार सत्य वचन बतलाते हैं ।।११।। जिस प्रकार तृण समूहको पाकर अग्नि वृद्धिंगत होती है, उसी प्रकार जो लोभ इष्ट वस्तुओंके लाभसे वृद्धिगत होकर प्राणियोंके सुखको शीघ्र भस्म कर देता है; हे सज्जनो ! उस व्रत, गुण, सम और शीलके नाशक लोभके अभावको मुमुक्षुका निर्मल शौच कहा जाता है ॥ १२॥ जितेन्द्रिय साधु जो पांचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरक्त होता है तथा मन, बचन और कायसे समस्त प्राणियोंकी रक्षा करता है; इसे ज्ञानरूप सूर्यको किरणोंसे मोहरूप अन्धकारको नष्ट कर देनेवाले सर्वज्ञ देव दो प्रकारका ( इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम ) निर्दोष संयम वतलाते हैं ॥ १३ ॥ समस्त परिग्रहसे ममत्वको छोड़कर कामकी वासनाको नष्ट कर देनेवाला जो मुमुक्षु साधु अपने निर्मल मन में पूजाके योग्य पवित्र आचरणको करता है उसे पुण्यविषयक अविवेकको नष्ट कर देनेवाले गणधरादि तप बतलाते हैं। अभिप्राय यह है कि इच्छाओंको रोककर जो अनशन आदि रूप पवित्र अनुष्ठान १ स स्वापदेभ्यो । २ स धौधौ । ३ स यत्सुखं। ४ स नाशः । ५ स"गदति । ६ स ताशीयम् । ७ स यौजिता । ८स भक्षण। ९स मनिय संघमं वर्णयन्ति । १. सकारः । ११स संगा, संग। १२ स प्रवीणों । १३ त मनसिपूर्त 1१४ समागास्ताया, माद्यतत्तपा, मांद्यस्त°, माद्या ।

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