Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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757 : ३०-१८
३०. शोधनिरूपणद्वाविंशति 754) मेरूपमान मधुपद्रमसेवितान्तर
चेज्जायते वियति कामनन्तपत्रम् । कायस्य जातु जलतो मलपूरितस्य
शुद्धिस्तवा भवति निन्धमलोडवस्य ॥ १५ ॥ 755) कि भाषितेत बहुना न जलन शुद्धि
जन्मान्तरेण भवतीति विचिन्त्य सन्तः। प्रेषा विमुच्य जलधौतकृताभिमानं
कुर्वन्तु बोधसलिलेन शुचिस्वमत्र ॥ १६ ॥ 756) दुष्टाष्टकर्ममलशुद्धिविधा समय
निःशेषलोकभवतापविघातवसे । सज्ज्ञानवर्शनचरित्रजले विशाले
शौचं विवध्वमपविध्य जलाभिषेकम् ॥ १७ ॥ 757) निःशेष पापमल बाषनवक्षमयं
ज्ञानोबकं विनयशीलतटद्वयावयम् । चारित्रवोचिनिधय मुर्वितामलवं
मिथ्यात्यमोनविकलं करुणादिगाधम् ।। १८॥ कषितम् । इदं जन्त्विन्द्रियालम् । हे सन्तः, यत् जलं देहशुद्धिमपि कर्नु नो अलं, तत्पापकर्म कथं विनिहन्ति ।। १४ ।। वियति मल्पमानमधुपवजसेवितान्तम् अनन्तपत्रं कन्जं जायते चेत् तदा मलपरितस्य निन्दमलोद्भवस्य कायस्य जलतो जातु झुद्धिः भवति ॥ १५ ॥ बहुना भाषितेन किम् । जलेन जम्मान्तरेण शुद्धिः न भवति इति विचिन्स्य सम्तः श्रेधा जलधौतकृताभिमान विमुच्य अत्र बोषसलिलेन शुचित्वं कुर्वन्तु ॥ १६ ॥ जलाभिषेकम् अपविम्य दुष्टाष्टकर्ममसद्धिविधी समर्षे निःशेषलोकभवतापविघातदक्षे विशाले सज्ज्ञानदर्शनचरित्रजले शौचं विदध्वम् ।। १७ ॥ निःशेषपापमलबाघनदक्षाम् अयं विनय
नहीं कर सकता है ।। १४ ॥ यदि आकाशमें अनन्त पत्रोंसे संयुक्त और मेरुके बराबर भ्रमरोंके समूह सेवित कमल उत्पन्न हो सकता है तो कदाचित् निन्द्य मलसे उत्पन्न और उस मलसे परिपूर्ण शरीरकी शुद्धिकलसे हो सकती है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार आकाशमें कमलका उत्पन्न होना असम्भव है उसी प्रकार अलसे शरीरका शुद्ध होना भी असम्भव है ॥ १५ ॥ बहुत कहने से क्या लाभ है ? जलसे शरीरकी शुद्धि जन्मान्तरमै भी नहीं हो सकती है, ऐसा विचार करके सज्जन मनुष्य यहाँ मन, वचन और कायसे जलस्नानसे होनेवाली शुद्धिके अभिमानको छोड़कर ज्ञानरूप जलसे यात्मशुद्धिको करें ॥ १६ ॥ जो विस्तृत सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यचारित्रल्प नल दुष्ट आठ कमरूप मसकी शुद्धिके करनेमें समर्थ और समस्त प्राणियोंके संसाररूप संतापके नष्ट करनेमें निपुण है उसमें शुद्धिको करो और जलसे अभिषेकको छोड़ो ॥ १७ ॥ जो जिनवचन ( जिनागम ) रूप तीर्थ समस्त पापरूप मलको बाधा पहुँचानेमें-उसे नष्ट करने में समर्थ है, पूजाके योग्य है, ज्ञानरूप जलसे परिपूर्ण है, विनय व शोल रूप दो सटोंसे सहित है, चारित्ररूप लहरोंसे व्याप्त है, हर्षरूप
१स पमान । २ °सेवितांते । ३ स भवभीति वि । ४ स "मपि विष्य । ५ स निशोष । ६स निचर्यमु। सकरुणाद्यगांध, करणा°, करुणाय ।