Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ सुभाषितसंदोहः 717) स्वकरापितवाम'कपोलतलो विगते च मृते च तनोति शुचम् । भुवि यः सबने दहनेन हते खनतोह स कूपमपास्तमतिः ॥६॥ 718) यवि रक्षणमन्यजनस्य भवेद् यवि को मिकरोति बुधः स्तवनम् । यदि किचन सौख्यमय स्वतनोर्यवि कश्चन' तस्य गुणो भवति ॥७॥ 719) यवि वागमनं कुरुते ऽत्र मृतः सगुणं भुवि 'शोचनमस्य तदा । विगुणं विमना बहु शोधति यो विगु स वा लमते मनुजः ॥८॥ 720) पथि पान्थगणस्य यया बातो भवति स्थितिरस्थितिरेव तरो। जननायनि जीवगणस्य तथा जननं मरणं च सदैव कुले ॥ ९॥ 721) बहुवेशसमागतपान्धगणः ० "प्लवमेकमिवैति नबोतरणे। बहुवेशसमागतजन्तुगणः कुलमेति पुनः स्वकृतन भवे ।।१०।। 722) हरिणस्य यथा भ्रमतो गहने शरणं न हरेः पतितस्य मुखे। समसिमुखे पतिसस्य तमा शरणं बत कोऽपि न बेहवतः ॥११॥ बुधः स्तुति न करोति ।। ५ ॥ इह भुवि अपास्तमतिः स्वकरापितवाममपोलतलः यः विगते व मृते च शुवं तनोति सः सदने दहनन हृते कूपं खनति ॥ ६॥ यदि अन्यजनस्य रक्षणं भवेत्, मदि कोपि बुधः स्तवने करोति, पदि स्वतनोः किचन सौक्यं भवेत् ], अप यदि तस्य कश्चन गुणो भवति, यदि वा मृतः अत्र आगमनं कुरुते, तदा अस्य शोचनं भुवि सगुणम् । यः विमना: मनुजः विगुणंबर शोचति सः विगुणां दशा लभते ।। ७-८ ॥ यथा पषि व्रजतः पान्यगणस्य तरौ स्थितिः अस्थितिः एव भवति । तया जननाश्वनि जीवगणस्य कुले जननं मरणं च सदैव ॥ ९ ॥ बहुदेशसमागतवान्यगणः नदोतरणे एक प्लवम् एव भवे बहुदेशसमागतजन्तुगणः पुनः स्वकृतेन कुलम् एति ॥ १० ॥ यथा गहने भ्रमतः हरेः मुखे पतिवस्य हरिणस्य शरणं न तपा समवतिमुखे पतितस्य देहवतः कोऽपि शरणं न बत ॥ ११ ॥ वनमध्यगताग्निसमः अकक्षणः समवति इष्टका वियोग अथवा मरण हो जानेपर अपने हाथके ऊपर कपोलको रखकर शोक करता है वह उस मूखं मनुष्यके समान है जो कि अग्निके द्वारा घरके भस्म कर देनेपर उसके बुझानेके लिये यहाँ कुएंको खोदता है ॥ ६ ॥ शोक करनेसे यदि अन्य जनको रक्षा होती है, विद्वान् मनुष्य उसकी प्रशंसा करता है, अपने शरीरको कुछ सुख प्राप्त होता है, उसको कुछ लाभ होता है, अथवा यदि मृत मनुष्यका फिरसे यहाँ आगमन होता है तो फिर लोकमें इसका शोक करना सफल हो सकता है। परन्तु वैसा होता नहीं है। अतएव जो मनुष्य विमनस्क होकर व्यर्थमें बहुत शोक करता है वह गुणहीन अवस्थाको प्राप्त होता है ॥७-८! जिसप्रकार मार्गमें गमन करता हुआ पथिक समूह किसी वृक्षके नीचे स्थित होता है और फिर वहाँसे गमन करता है उसी प्रकार संसारमार्गमें परिभ्रमण करनेवाले प्राणिसमूहका कुटुम्बमें सदा ही जन्म और मरण हुआ करता है ॥९॥ जिस प्रकार अनेक देशोंसे आये हुए पथिकोंका समूह किसी नदीको पार करने के लिये एक नौकाका आश्रय लेता है उसी प्रकार अनेक देशोंसे आये हुए प्राणियोंका समूह अपने पुण्य-पापके अनुसार एक कुलका आश्रय लेता है ॥ १० ॥ जिस प्रकार वनमें घूमते हुए हिरणके सिंहके मुखमें पड़ जानेपर कोई उसको रक्षा नहीं कर सकता है खेद है कि उसी प्रकार यमराजके मुखमें गये हुए प्राणोकी भी कोई रक्षा नहीं कर सकता है ।। ११ ।। १स वास for वाम । २ स बुधस्त। ३ स कश्चिन् । ४ स च for । ५ स स्वगुणं । ६ स तु विशोचन ।। ७ स शोधति यः । ८ स विगुणा रा दशा, सदशा, दृशा। ९ स स्थिरतेव । १० स गणा। ११ स लवमेकमिवत्य । १२ स 'तरणेः । १३ स सुक्रतेन, शुकृतेन । . .

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267