Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 212
________________ १९८ माल सुभाषितसंबोहः [ 729 : २९-१८ 729) अनुशोचनमस्तविचारमना विगतस्य मृतस्प च यः कुरुते। स गते सलिले तनुतं वरणं भुजगस्य गतस्य गति' भिपति ॥१८॥ 730) सुरवस्म समुधिहतं कुरते सिकतोस्करपीडनमातनुते । श्रममात्मगतं न विचिन्त्य नरो भुवि शोचति यो मृतमस्तमतिः ॥ १९ ॥ 731) त्यजति स्वयमेव शुचं प्रवरः सुवचःश्रवणेन च मध्यमनाः । निखिलाङ्ग विनाशकशोकहतो मरणं समुपैति जघन्यजनः ॥२०॥ 732) स्वयमेव विनश्यति शोककसिर्जनस्थितिमविदो गुणिनः । नयनोस्थ जलेन च मध्यषियो मरणेन जघन्यमतेभविमः ॥२१॥ 733) विनिहन्ति शिरो वपुरातमना बहु रोदिति दीनवचः कुशलः । कुरुते मरणार्थमनेकविधि पुरशोकसमाकुलधीरवरः ॥ २२॥ 734) बहुरोक्नताम्रतराक्षियुगः परिक्षशिरोरुहभीमतनुः। कुरुते सकलस्य जनस्प शुचा पुरषो भयमत्र पिशाचसमः ।। २३ ॥ न भवेत्, तदा अत्र पुरुषस्य शुचा सफला ।।१७।। अस्तविचारमनाः यः विगतस्य मृतस्य च अनुशोचनं कुरुते, सः सलिले गते वरणं तनुते, गतम्य भुजगस्प गति तिपति ॥ १८ ॥ भुवि अस्तमतिः यः नरः आत्मगतं श्रमं न विचिन्त्य शोचति, उ सुरवत्म मुष्टिहतं कुरुते, सिकतोत्करपीडनम् आतनुते ॥ १९ ॥ प्रपरः स्वयमेव शुच त्यजति । मञ्यमनाः च सुवचःश्रवणेन । निखिलाङ्गविनाशकयोकहतः जषम्पजनः मरणं समुपैति ॥ २० ॥ जननस्थितिभट्विदः गुणिनः शोककलि: स्वयमेव विनश्यति । मध्यषियः नयनोरथजलेन । जघन्यमतेः भविनः व मरणेन ।। २१॥ पुरुशोकसमाकुलषीः अवरः आर्तमनाः शिरः वपुः [ च ] विनिहन्ति, दोनवचः कुशलः बहु रोदिति, मरणार्थम् अनेकविधि कुरुते ॥ २२॥ शुचा बहुरोदनताम्रतरासिमुगः परिक्षशिरोरुहभीमतनुः पिशाचसमः पुरुषः अत्र सकलस्य जनस्य भयं कुरुते ॥ २३ ॥ गुरुशोकपिशाचवशः मनुवः अथवा मरण होनेपर शोक करता है वह उस मूर्खके समान है जो कि पानीके निकल जानेपर पुलको बांधत्ता है अथवा सर्पके चले जानेपर उसकी गतिको (लकीरको) पीटता है ॥ १८५] लोकमें जो दुर्बुद्धि मनुष्य मरणको प्राप्त हुए प्राणीके लिये शोक करता है वह अपने परिश्रमका विचार न करके मानो आकाशको मुठ्ठियोसे आहत करता है अथवा [ तेलके निमित्त ] बालुके समूहको पीड़ित करता है ॥ १९ !! उत्तम मनुष्य शोकका परित्याग स्वयं ही करता है, मध्यम मनुष्य दूसरेके उपदेशसे शोकको छोड़ता है, परन्तु हीन मनुष्य समस्त शरीरको नष्ट (पीड़ित) करनेवाले उस शोकसे आहत होकर मरणको प्राप्त होता है ॥ २०॥ जो गुणवान् उत्तम मनुष्य उत्पत्ति, स्थिति और व्ययको जानता है उसका शोकरूप सुभट स्वयं ही नष्ट हो जाता है, मध्यम बुद्धि मनुष्यका वह शोक नेत्रोंसे उत्पन्न जलसे-कुछ रुदन करनेके पश्चात् नष्ट होता है, तथा हीन बुद्धि मनुष्यका शोक मरणसे नष्ट होता है-वह शोकसे पीड़ित होकर मरणको ही प्राप्त हो जाता है ॥ २१ ॥ होन मनुष्य महान शोकसे व्याकुल होकर मनमें खेदको प्राप्त होता हुआ शिरको आहत करता है. दोन वचनमें कुशल होकरकरुणाजनक विलाप करके बहुत रोता है, तथा मरनेके लिये अनेक प्रकारका प्रयल करता है ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यके दोनों नेत्र शोकके कारण बहुत रोनेसे अतिशय लाल हो रहे हैं तथा बाल रूखे व शरीर भयानक है वह यहाँ पिशाचके समान दिखता हुआ सब प्राणियोंके लिये भयको उत्पन्न करता है ॥ २३ ॥ मनुष्य महान १ स गतिः, गतिर, मही । २ स सुमुष्टि । ३ त प्रचुरः । ४ स "लाड्वि । ५ स 'नोत्य, सुजनोथ, जननोथ, वलेन tor जलेन । ६ स 'वचा, बनाः, 'यो । ७ स पुर। ८ स पोररवः, oru. १/४ चरण ।

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