Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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739 : २९-२७ ]
२९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः 735) परिधावति रोविति' पूत्कुरुते पतति स्खलति त्यजते वसनम् ।
व्ययते इलथते लभते न सुखं गुरुशोकपिशाचवशो मनुजः ॥ २४ ॥ 736) क्व जयः क्य तपः क्व सुखं क्व शमः क्व यमः क्व वमः क्व समाविविधिः ।
व धनं क्व बलं व गृहं क्व गुणो बत शोकवशस्य नरस्य भवेत् ॥ २५ ॥ 737) त तिनं मतिन गतिनं रतिनं यतिम नतिर्न नुतिनं रुचिः।
पुषस्य मतस्य हि शोकवशं व्यपयाति सुखं सकलं सहसा ॥ २६ ॥ 738) बवासि मो ज्यत्र भवे शरीरिणामनेकपा दुःखमसामायतम् ।
इहैव कृत्वा बहुवुःख पद्धति स सेव्यते शोफरिपुः कथं सुधैः ॥ २७ ॥ 739) पूर्वोपाजितपापपाकवशतः शोकः समुत्पद्यते
धर्मात्सर्वसुखाकराजिममसान्नश्परययं सत्त्वतः ।
परिधावति, रोदिति, पूस्कुरते, पतति, स्खलति, वसनं त्यजते, व्यथते, श्लयते, सुखं न लभते ॥ २४ ॥ शोकवंशस्य मरस्य जयः क्य, तपः क्व, सुखं क्व, शमः क्व, यमः क्व, दमः क्व, समाधिविधिः क्य, धनं क्य, वलं क्व, गृहं क्य, मुणः क्व भवेत् बत ।। २५ ॥ शोकवां गतस्य पुषस्य धूप्तिः न, मतिः न, गतिः न, रतिः न, पतिः न, नतिः न, नुतिः न, कधिः न । हि [ तस्य ] सकलं सुखं सहसा ध्यपयाति ॥ २६ ।। इहैव बहुदुःखपति कृत्वा यः अन्यत्र भवे शरीरिणाम् असह्यम् आयतम् अनेकया दुःखं ववाति सः शोकरिपुः कथं सेभ्यते ॥ २७ ॥ शोक: पूर्वोपार्जिसपापपाक्वशतः समुत्पद्यते । अयं तत्त्वतः सर्वसुखाकरात् जिनमतात् धर्मात् नश्यति । इति विज्ञाय संसारस्थितिवेदिभिः बुधजनैः भवोरिहः समस्तदुःससक
शोकरूप पिशाचके अधीन होकर दौड़ता है, रोता है, चिल्लाता है-आक्रन्दन करता है, पड़ता है, इधरउधर गिरता है, वस्त्रको छोड़ देता है, पीडाको प्राप्त होता है और शिथिल पड़ जाता है। इस प्रकारसे उसे जरा भी सुख प्राप्त नहीं होता-वह अतिशय दुखी होता है ।। २४ ॥ शोकके वशीभूत हुए मनुष्यके जय कहाँ, तप कहाँ, सुम्स कहा, शान्ति कहाँ, संयम कहाँ, दम कहाँ, ध्यान कहाँ, धन कहाँ, बल कहाँ, गृह कहाँ, और गुण कहाँ हो सकता है ? अर्थात् शोकसे व्याकुल हुए मनुष्यको जय [ जप ], तप व सुख-शान्ति आदि कभी नहीं प्राप्त होती, यह खेदकी बात है ॥ २५ ॥ जो पुरुष शोकके वशीभूत हुआ है उसको न धैर्य रहसा है, न बुद्धि रहती है, न गसि रहती है, न प्रेम रहता है, न विश्रान्ति रहती है, न नम्रता रहती है, न स्तुति रहती है और न रुचि रहती है । उसका सब कुछ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥ जो शोकल्प शत्रु इस लोकमें ही प्राणियोंको बहुत दुःखोंकी परिपाटीको करके परभवमें भी अनेक प्रकारके असह्य दीर्घ दुखको देता है उसकी आराधना विद्वान् मनुष्य कैसे करते हैं ? अर्थात् विद्वान् मनुष्योंको इस लोक और परलोकमें भी दुख देनेवाले उस शोकके वशमें होना उचित नहीं है ॥ २७ || शोक पूर्वोपार्जित पाप कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है और यह वास्तवमें जिन देवको अभिमत व समस्त सुखोंको खानिस्वरूप धर्मसे नष्ट होता है, ऐसा जान करके संसार स्वरूपके ज्ञाता विद्वान् मनुष्य समस्त दुखों रूप बहुत-सी जड़ोंसे सहित व संसाररूप पृथिवीके ऊपर
१स रोदति । २ स त्यजति । ३ स
. लभते। ४ स जपः । ५ स on.. नरस्य । ६ स on. न गसिर । ७ स