Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[२९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः ]
712) पुरुषस्य विनश्यति पेन सुखं वपुरेति कृशस्वमुपैश्यबलम् ।
मृतिमिच्छति मूति शोकवस्स्यजतैतमतस्त्रिविधेन बुधाः ॥ १॥ 713) वितनोति वचः करणं विमना विनोति करो चरणौ च भृशम् ।
रमते न गृहे न धने न जने पुश्यः कुरते न किमत्र शुधा ॥२॥ 714) उवितः समयः श्रयते ऽस्तमयं कृतकं सकलं लभते विलयम् ।
सकलानि फलानि पतन्ति तरोः सकला जलधि समुपैति नदी ॥३॥ 175) सकलं सरसं शुषिमेति यथा सकल: पुरषो मृतिमेति तथा।
मनसेति विचिन्त्य सुषो न शुचं विदधाति मनागपि तत्त्वरचिः ॥ ४ ॥ 716) स्वजनो ऽन्यजनः कुरुती म सुखं न धनं न वृषो विषयो' न भवेत् ।
विभतेः स्वहितस्य शुचा भविनः स्तुतिमस्य न कोऽपि करोति बुधः ॥५॥
येन पुरुषस्य सुखं विनश्यति, वपुः कृशत्वम् एति, अबलम् उपैति । शोकवशः मृतिम् इच्छति, मछति । अतः हे बुधाः एतं त्रिविधैन त्यजत ॥ १ ॥ विमनाः पुरुषः करुणं वचः वितनोति । करो चरणी च भृशं विधुनोति । गृहे न रमते, वनेन (रमते), जने च न (रमते)। अत्र पुरुषः शुचा कि न कुरुते ॥ २ ॥ उदितः समयः अस्तमयं श्यते। तरोः सकलानि फलानि पतन्ति । सकला नदी जलाध समुपैति । सकलं कृतकं विलयं लभते ॥ ३ ।। यथा सकलं सरसं शुपिमेति, तथा सकलः पुरुषः मतिमेति । इति मनसा विचिन्त्य तत्त्वचिः बुधः मनाक् अपि शुच न विदधाति ।। ४ ।। शुवा स्वहितस्प विमतेः भविनः स्वजनः अन्यजनः सुखं न कुरुते । न धनं (सुखं कुरुते) । अस्य वृषः न, विषयः [च ] न मवेत् । कोऽपि
चूंकि शोकके वशमें होनेसे पुरुषका सुख नष्ट हो जाता है, शरीर निर्बलताको प्राप्त होकर कृश होने लगता है, वह मरनेकी इच्छा करता है, तथा मूछित हो जाता है, इसीलिये पण्डित जन उस शोकका मन, वचन और कायसे परित्याग करें ॥१॥ पुरुष यहाँ शोकसे क्या नहीं करता है ? सब कुछ करता है-यह विमनस्क होकर करुणापूर्ण वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको अतिशय कम्पित करता है-उन्हें इधर-उधर पटकता है। तथा उक्त शोकके कारण उसे न धरमें अच्छा लगता है, न वनमें अच्छा लगता है, और न मनुष्योंके बोचमें भी अच्छा लगता है ।। २ ।। उदयको प्राप्त हुआ समय (दिवस) नाशको प्राप्त होता है, उत्पन्न हुए सब फल वृक्षसे नीचे गिरते हैं, तथा समस्त नदियां समुद्र में विलीन होती हैं। ठीक है-कृत्रिम सब ही पदार्थ नाशको प्राप्त होते हैं । ऐसी अवस्थामें उनके नष्ट होनेपर बुद्धिमान् मनुष्यको शोक करना उचित नहीं है, यह उसका अभिप्राय है ।। ३ ।। जिस प्रकार सब आई पदार्य शुष्कताको प्राप्त होते हैं-सूख जाया करते हैं-उसी प्रकार पुरुष मृत्युको प्राप्त होता है, इस प्रकार मनसे विचार करके तत्त्वश्रद्धानी विद्वान् मनुष्य जरा भी शोक नहीं करता है ॥ ४ ॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य शोकसे अभिभूत होता है उसे कुटुम्बी और अन्य जन सुखी नहीं कर सकते हैं, धनसे भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता, वह न तो धर्ममें अनुराग करता है और न विषयमें भी अनुराग करता है, तथा उसकी कोई भी बुद्धिमान मनुष्य प्रशंसा नहीं करता है ।। ५ ॥ लोकमें जो बुद्धिहीन मनुष्य किसो
१स पतिं बलं । २ स "मृष्ठति । ३ स गृहं । ४ स कृतकः सकलो । ५ स सुखमेति । ६ स वृपं विषयं ।