Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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695 : २८-६ 1
२८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः 693) सततविषयसेवाविह्वलोभूतचित्तः
शिवसुखफलदात्री' प्राण्यहिंसा विहाय । श्रयति पशुवादि यो नरो धर्ममनः
प्रपिति विषमुग्रं सोऽमृतं वे अविहाय ॥४॥ 694) पशुवधपरयोषिन्मग्रमांसादिसेवा'
वितरति यदि धर्म सर्वकल्याणमूलम् । निगवत" मतिमम्तो जायते फेन पुंसां
विविधजनन सावधभूनिम्दनीया ॥५॥ 695) विचलति गिरिराजो जायते शीतको ऽग्नि
स्तरति पयसि कोल: स्याच्छवी तीव्रतेजाः । उपयति विक्षि भानुः पश्चिमापी कराषित
न तु भवति कदाचिजीवधातेन धर्मः ॥६॥ विविधमवति ॥ ३ ॥ सततविषयसेवाविह्वलीभूतचितः यः अशः नरः प्राण्यहिसां विहाय पगुफ्षावि धर्म श्रयति सः वं अमृतं विहाय उग्रं विषं प्रपिबति ॥४॥ पशुवषपरयोषिन्मधमांसाविसेवा यदि सर्पकल्पागमूल धर्म वितरति [ तहि ] हे मतिमन्तः पुंसां विविधजननदुःखा निन्दनीया वभ्रमूः केन जायते निगदत ॥ ५ ॥ कदापि गिरिराज विषाति, मग्निः शीतल: जायते, पयसि शैलः तरति, शशी तीव्रतेजाः स्यात्, भानुः पश्चिमायां दिशि उदयति । तु जीवपातेन कदाचित् वर्गः अथवा आवश्यकताके अनुसार कोई मनुष्य गायका और कोई भैंस आदिका दूध लेते हैं उस प्रकार कितने ही विवेकी मुमुक्षु जीव यदि जैन धर्मको धारण करते हैं तो दूसरे कितने ही मनुष्य अज्ञानसासे अन्य धर्मका भी आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि संसारमें धर्म नामते अनेक पंथभेदके प्रचलित रहने पर भी बुद्धिमान मनुष्यको परीक्षा करके उस धर्मको स्वीकार करना चाहिये जो वास्तविक सुखका कारण हो ॥ ३ ॥ जिस मनुष्यका चित्त निरन्तर विषय भोगोंके सेवनसे विफलताको प्राप्त हुआ है, इसीलिये जो मोक्ष सुखकी देनेवाली जीवोंकी अहिंसा ( जीवदया ) को छोड़कर जीवबध आदि रूप कल्पित धर्मका माश्रय लेता है वह अज्ञानी निश्चयसे अमृतको छोड़कर तीव्र विषको पीता है ।। ४ ।। विशेषार्थ-जो प्राणियोंको यथार्थ सुखमें धारण कराता है वह धर्म कहलाता है । ऐसा धर्म जीव दया व सम्यग्दर्शन आदि ही हो सकता है। जो अज्ञानी मनुष्य पशुबधको धर्म समझ उसमें प्रवृत्त होते हैं उस मुर्ख ममुष्पके समान अपना माहित करते हैं जो कि प्राप्त अमृतको छोड़कर अज्ञानतासे विषको पीता है। पशुओंकी हिंसा, परस्त्री विषयक अनुराग एवं मद्य-मांस आदिका सेवन यदि समस्त कल्याणके कारणभूत धर्मको देता है-इम निम्ध क्रियाओंसे यदि धर्म व सुख हो सकता है तो बुद्धिमान मनुष्य यह बतलायें कि जीवोंके लिये अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली निन्द्य नरक भूमि किस कार्यसे प्राप्त होती है । अभिप्राय यह है कि पशुहिंसनादि कार्य कभी सुखप्रद नहीं हो सकते हैं, अतः उनको धर्म समझना उचित नहीं है ।। ५ ।। कदाचित मेरु पर्वत अपने स्थानसे विचलित हो जाय, अग्नि शीतल हो जाय, पर्वत जलके ऊपर तैरने लग जाय, चन्द्रमा सन्साप जनक हो जाय; और सूर्य कदाचित् पश्चिम दिशामें उदित हो जाय, किन्तु जीवहिंसासे धर्म कभी भी सम्भव नहीं हो सकता है ।। ६ ।। जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है वह यदि एक
१ स दात्री, दात । २ स °वधादि । ३ स om. वै। ४ स सर्वा । ५ स निगदित । ६ स जनित दुःखाश्वभ्र ७स विचरति ।