Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 201
________________ 689 : २७-२६ ] २७. गुरुस्वरूपनिरूपणषड् विशतिः 635) सुखासुखस्वपरवियोगयोगि 'साप्रियाप्रियव्यपगत जोधिताविभिः । भवन्ति ये 'सममनसस्तपोधना भवन्तु ते सम गुरवो भवच्छिदः ॥ २२ ॥ 686) जिनोदिते वचसि रता वितम्यते तपांसि ये कलिलकल मुक्तये । विवेचकाः स्वपरमषश्यतत्त्वतो हरन्तु ते मम दुरितं मुमुक्षवः ॥ २३ ॥ 687) अवन्ति ये जनकसम्मा मुनिश्वराश्चतुविधं गणमनवद्यवृत्तयः । स्वदेहवलितमवाष्टकारयो भवन्ति ते मम गुरवो भवान्तकाः ॥ २४ ॥ 688) वदन्ति मे जिनपतिभाषितं वृषं वृषेश्वराः सकलशरीरिणां हितम् । भवान्पितस्तरणमनर्थं मानं नयन्ति ते शिवपदमाश्रितं जनम् ॥ २५ ॥ 689 ) तनूभूतां नियमतपोक्तानि ये दयान्विता वर्षात समस्तलक्ष्ये । चतुविधे" विनयपरा' गणे सदा वहन्ति ते दुरितवनानि साधवः ॥ २६ ॥ इति गुरुस्वरूपनिरूपण 'षविशति ॥ २७ ॥ .१८७ गुरवः गम भवच्छिदः भवन्तुः ॥ २२ ॥ जिनोदिते वचसि रताः ये कलिलकलमुक्तये वपांसि वितन्वते । स्वपरमवदय [ मतस्य ] तत्त्वतः ये विवेचकाः ते मुमुक्षवः मम दुरितं हरन्तु ।। २३ ।। अनवद्यवृत्तयः ये मुनीश्वराः चतुविषं मणं जनकसमाः अवन्ति । स्वदेवत् दलितमदाष्टकारयः ते गुरवः मम भवान्तकाः भवन्तु ॥ २४ ॥ ये वृषेश्वराः सकलशरीरिणां हितं भवाब्धितः तरणम्, अनर्थनाशनं निपतिभाषितं वृषं वदन्ति ते आश्रितं जनं शिवपदं नयन्ति ।। २५ ।। दयान्विताः ये समस्तलब्धये तनूभूतां नियमतपोव्रतानि ददति, चतुविधे गणे सदा विनयपराः ते साधवः दुरितवनानि दहन्ति ।। २६ ।। इति गुरुस्वरूपनिरूपणषविशतिः ॥ २७ ॥ और जीवन इनमें समबुद्धि रहते हैं- --न सुख आदिमें हर्षको प्राप्त होते हैं और न दुख आदिमें विषादको प्राप्त होते हैं - वे तपरूप धनको धारण करनेवाले गुरु मेरे संसारका नाश करनेवाले होवें ॥ २२ ॥ जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये वचन में – जिनागम में – अनुरागको प्राप्त होकर पापरूप मैलको नष्ट करनेके लिये तपोंको करते हैं तथा प्रयोजनीभूत स्व-पर तत्त्वका [ मतका ] यथार्थ विवेचन करते हैं ये मुमुक्षु गुरु मेरे पापको नष्ट करें || २३ || निष्पाप आचरण करनेवाले जो मुनीन्द्र चार प्रकारके गणकी - अनगार, यति, मुनि और ऋषि अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका संघकी—विताके समान रक्षा करते हैं तथा जिन्होंने अपने शरीरके समान आठ मदरूप शत्रुओं को नष्ट कर दिया है वे गुरु मेरे ससारका अन्त करनेवाले होवें ॥ २४ ॥ जो जिन देवके द्वारा प्ररूपित धमं समस्त प्राणियोंका हित करनेवाला है, उन्हें संसाररूप समुद्र से पार उतारता है, तथा अनर्थको नष्ट करता है उस धर्मका जो धर्मेश्वर गुरु व्याख्यान करते हैं वे शरणमें आये हुए जनको मोक्षपदमें ले जाते हैं ।। २५ ॥ जा दयालु होकर प्राणियों की समस्त अभीष्टका प्राप्ति के लिये (मुक्त लाभार्थ ) नियम, तप और व्रतको प्रदान करते हैं तथा जो अनगार, यति, मुनि और ऋषिरूप चार प्रकारके संघकी विनय करने में सदा तत्पर रहते हैं वे साघु पापरूप वनों को भस्म करते है || २६ ॥ इस प्रकार छब्बीस श्लोकोंमें गुरुका निरूपण किया । १ स योगिनो; वियोग वियोगता, योगिता त्रिमा २ स राम । ३ वंदति के । ४ स लक्ष्यः । ५ स "विधा, विवेदि । ६ स परागणे । ७ स निरूपणम् ।

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