Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१८६ सुभाषितसंवोहः
[679 : २७-१६ 679) न निष्ठुर कटुक भवद्यवर्धनं वदन्ति ये वचनमनर्यमप्रियम् ।
समुद्यता जिनवचनेषु मौनिनो गुणगुरुन् प्रणमत तान् गुरुन् सदा ॥ १६ ।। 680) न कुर्वते कलिलवियाकक्रियाः सवोद्यताः शमयमसंयमादिषु ।
रता न ये निखिलजनक्रियाबिधो भवन्तु ते मम हरये कृतास्पवाः ॥ १७ ।। 681) शरीरिणामसुखशतस्य कारणं तपोदयाशमगुणशोलमाशनम् । __जयन्ति ये धृतिबकासो ऽक्षरिणं भवन्तु ते यतिवृषभा मुदे मम ॥ १८ ॥ 682) वृष चिसं व्रतमियमरनेकधा विनिमलस्थिरसुखहेतुमुत्तमम् ।
विषन्वतो' सटिति कषायवैरिणो विनाशकानमालषियः स्तुवे गुरुन् ॥ १९॥ 683) विनिजिता हरिहरपलिजादयो विभिन्नता युवतिकटाक्षतोमरैः ।
मनोभुवा परमबलेन येन तं विभिन्दतो नमत गुरून् शमेषुभिः ।। २० ॥ 684) न रागिणः वचन न रोषबूषिता न मोहिनो भवभय भवनोयताः।
गृहीतसन्मननवरित्रदृष्टयो भवन्तु मे मनसि मुवे तपोधनाः ॥ २१ ॥ वदन्ति, गुणः गुरुन् तान् गुरुन् सवा प्रणमत ॥ १६ ॥ शमयमसंयमादिषु सवा उद्यताः, निखिलजनक्रियाविधौ न रताः, मे कलिलवर्षकक्रियाः न कुर्वते, ते मम हृदये कृतास्पदाः भवन्तु ।। १७ ॥ ये शरीरिणाम् असुखशतस्य कारणं, तपोदयाशमगुणपकिनाशमम् अक्षवैरिणं तिबलतः जयन्ति ते पतिवृषभाः मम मुवे मवन्तु ।। १८॥ प्रतनियमः बनेकधा चितं विनिर्मलस्थिरसुखहेतुम् उत्तम वृषं टिति विघुन्वतः कषायवैरिणः विनाशकान् अमलपियः गुरुम् स्तुबे ॥ १९॥ युवतिकटाक्षठोमरैः विभिन्दता मेन मनोभुवा परमबलेन हरिहरवह्निजादयः विनिर्जिताः तं शमेषुभिः विभिन्वतः गुरून नमत ॥२०॥ [2 ] क्वचन रागिणः न, रोषदूषिताः न, मोहिनः न, भवभयभेदनोधताः गृहीतसन्मननचरित्रदृष्टयः [ ते तपोधनाः मे मनसि मुदे भवन्तु ॥ २१ ॥ ये तपोषनाः सुखासुखस्वपरवियोगयोगिताप्रियाप्रियव्यपगतजीवितादिभिः सममनसः भवन्ति ते
अप्रिय वचनको नहीं बोलते हैं; तथा प्रतिकूलताके होनेपर जो मौनका अवलम्बन करते हैं उन गुणोंमें महान् गुरुओंको सदा नमस्कार करना चाहिये ॥ १६ ॥ जो मुनि शम, यम और संयम आदिमें निरन्तर उद्यत रहकर पापके बढ़ानेवाले कार्योंको नहीं करते हैं तथा जो समस्त जनसाधारणकी संसारवर्धक क्रियाओंसे विरत रहते हैं वे मेरे हृदय में निवास करें ।। १७ ।। जो इन्द्रियरूप शत्रु प्राणियों के लिये सैकड़ों दुःखोंका कारण है; तप, दया, दम; गुण व शीलको नष्ट करनेवाला है उसके ऊपर जो श्रेष्ठ मुनि धेर्यके बलसे विजय प्राप्त करते हैं वे मेरे लिये आनन्दके कारण होवें ॥ १८ ॥ जो कषायल्प शत्रु प्रत व नियमोंके द्वारा अनेक प्रकारसे संचित तथा निमल व स्थिर सुखके कारणभूत उत्तम धर्मको शीघ्र हो नष्ट कर देता है उसका विनाश करनेवाले निर्मलबुद्धि गुरुओंकी में स्तुति करता हूँ ॥ १९॥ जिस अतिशय बलवान् कामदेवने युवतियोंके कटाक्षरूप बाणोंके द्वारा भेदकर विष्णु, शिव और कात्तिकेय आदिको जीत लिया है उस सुभट कामदेवको भी शमरूप बाणोंसे विद्ध करनेवाले गुरुओंको नमस्कार करना चाहिये ॥२०॥ सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले जो तपस्वी संसारभयके नष्ट करने में उद्यत होकर न किन्हीं इष्ट पदार्थोंमें राग करते हैं, न अनिष्ट पदार्थोंमें द्वेष करते हैं, और न कहीं पर मोहको भी प्राप्त होते हैं वे तपस्वी मेरे मन में आनन्दके लिये होवे ॥ २१ ॥ जो तपस्वी सुख और दुख, स्व और पर, वियोग और संयोग, इष्ट और अनिष्ट तथा विनाश
१स कटुमनव' । २ स विषद्ध न । ३ स विभुन्वते, वितन्वते । ४ स विभिन्दिता, विभिदिती। ५ स भये ।
६ स नुदे।