Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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678 : २७–१५ ]
२७. गुरुस्वरूपनिरूपणषड्विंशतिः 674) दिगंबरा मधुरमपैशुनं वचः श्रुतोवितं स्वपरहितावह मितम् ।
अवन्ति ये गृहिजनजल्पनोजिमतं भवारितः शरणमितो ऽस्मि तान् गुरून् ॥ ११ ॥ 675) स्वतो मनोवचनशरीरनिमितं समाशयाः कटुकरसाविकेषु ये।
न भुञ्जते परमसुखैषिणो ऽशनं मुनीश्वराः मम गुरको भवन्तु ते ॥१२॥ 676) शनैः पुराः विकृतिपुरःसरस्य ये विमोक्षणप्रहणविधी वितन्वते ।
कृपासरा जगति 'समस्तदेहिनां पुनन्ति ते जननजराविपर्ययाम् ॥ १३ ।। 677) सविस्तरे धरणितले ऽविरोधके ऽनिरोक्षिते परजनताविनाकते।।
___ त्यजन्ति ये तनुमलमणिजिते पतोहवरा मम गुरुखो भवन्तु ते॥१४॥ 678) मनःकरी विषयवनाभिलायुको" नियम्य य: "शमयमखलवृतम् ।
पशीकृतो मन निशिताशेः सदा तपोषना मम गुरषो भवन्तु ते ॥ १५ ॥ कल्पनोज्झितं मितं वचः बुवन्ति तान् गुरुन् भवारितः शरणम् इतः अस्मि ॥ ११ ॥ कटुकरसादिकेषु समाशयाः परमसुखैषिणः ये मुनीश्वराः स्वतः मनोपचनशरीरनिर्मितम् अशनं म भुञ्जते ते मम पुरकः भवन्तु ॥ १२ ॥ ये विकृतिपुरःसरस्प शनैः पुराः विमोक्षणग्रहणविधीन वितम्बते, जगति समस्तदेहिना पापराः ते अमनजराविपर्ययान् पुनन्ति ॥ १३ ॥ ये यतीश्वराः सविस्तरे अविरोधके निरीभिते परजनताविनाकृते अविजिते घरणित तनुमलं त्यजन्ति, ते मम गुरवः भवन्तु ॥ १४ ॥ यैः विषयवनाभिलाषुकः मनःकरी शमयमपालः दृढ नियम्य मननशिताः वशीकृतः ते तपोधनाः सदा मम गुरवो भवन्तु ।। १५ ॥ ये जिनवचनेषु समुद्यताः मौनिनः निष्करं कटुकं अबद्यवदनम् अनर्थम् अप्रियं वदनं न पर दोनोंके लिये हितकारक, परिमित और गृहस्य अनके भाषणसे रहित-आरम्भ व परिग्रहके सम्बन्धसे रहित-ऐसे वचनको बोलते हैं; मैं संसाररूप शत्रुसे भयभीत होकर उन भाषासमितिके परिपालक गुरुभोंकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ ॥ ११॥ उत्कृष्ट सुख ( मोक्षसुख ) की अभिलाषासे कटुक व मधुर आदि रसोंमें समान अभिप्राय रखनेवाले ( राग-द्वेषसे रहित ) जो मुनीन्द्र अपने आप मन, वचन, कायसे तैयार किये गये भोजनको नहीं ग्रहण करते हैं-भिक्षावृत्तिसे श्रावकके घर जाकर आगमोक्त विधिसे आहारको ग्रहण करते हैंएषणासमितिके धारी मुनीन्द्र मेरे गुरु होवें मेरे लिये मोक्षमार्गदर्शक होवें ॥ १२ ॥ संसारमें सब प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखनेवाले जो गुरु निकटमें स्थित विकारस्वरूप राख, मिट्टी व कमण्डलु बादिको धीरेसे छोड़ने और ग्रहण करनेरूप कार्योको करते हैं वे आदान निक्षेप समितिके धारक गुरु जीवोंके जन्म, जरा और मिथ्याबुद्धिको नष्ट करें ॥ १३ ॥ जो मुनीश्वर विस्तृत, विरोधसे रहित ( जहाँपर किसीको विरोध नहीं है ), मले प्रकार देखे शोधे गये, अन्य जनके संचारसे रहित और निर्जन्तु पृथिवीतलपर शरीरके मल (विष्ठा, मूत्र व कफ भादि) को छोड़ते हैं वे प्रतिष्ठापन समितिके परिपालक मुनीश्वर मेरे गुरु होवें ॥ १४॥ जिन तपस्वियोंने विषरूप वनमें परिभ्रमणको इच्छा रखनेवाले मनरूप हाबीको राम और संयमरूप सांकलोंके द्वारा दृढ़तापूर्वक नियंत्रित करके ज्ञान-ध्यानरूप तीक्ष्ण अंकुशोंके द्वारा वशमें कर लिया है वे तपरूप धनके धारक साधु सदा मेरे गुरु होवें ॥ १५ ।। जिन वचनोंमें उद्यत जो साधु कठोर; श्रवणकटु, पापवर्धक, निरर्थक और
१स श्रुता । २स शरणमत्र च्छिदोदतः । ३ स शमाश्रिया, समाश्रयाः, शमाश्रयाः । ४ स ते for ये। ५स विधि1 ६स समस्ति दे० । ७स विरोधके । ८स निरीक्ष्यते। एसजनता विमाकृतं । १० सज्जिता 1११स लापको, वनानि लापुको । १२ स शममय । १३ स मननि ।
सु. सं. २४