Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 198
________________ १८४ सुभाषितसंदोहः [669 : २२७-६ 669) बदन्ति ये वचनमनिन्वितं बुधरपोडकं सकलशरीरधारिणाम् । मनोहरं रहितकषायवूषणं भवन्तु ते मम गुरवो 'विमुक्तये ॥६॥ 670) न लाति यः स्थितपसिताविकं धनं पुराफरक्षिति'धरकाननाविषु। त्रिधा तृणप्रमुखमवत्तमुत्तमो नमामि तं जननविनाशिनं गुरुम् ॥ ७ ॥ 671) त्रिधा स्त्रियः स्वसृजननीसुतासमा विलोक्य ये कपनविलोकनादितः । पराङमुखाः शमितकषायशत्रवो यजामि तान्विषयविनाशिनो गुरुन् ॥ ८॥ 672) परिग्रह विविधमपि विधापि ये न गृहसे तनुममताविजिताः । विनिर्मलस्थिरशिवसौख्यकाङ्क्षिणो भवन्तु ते मम गुरवो भवच्छिवः ॥९॥ 673) विजन्तुके दिनकररश्मिभासिते वजन्ति ये पथि दिवसे युगेक्षणाः । स्वकार्यतः सकलशरीरधारिणां क्यालयो बति सुखानि से गिनाम् ॥१०॥ जननदुरन्तदुःखतः विभीरवः निर्मलां दया विदति तान् जनकसमान गुरून सदा भजामि ॥ ५॥ ये सकलशरीरधारिणाम अपीडकं बुधः अनिन्दितं रहितकषायदूषणं मनोहरं वचनं वदन्ति ते गुरषः मम विमुक्तये भवन्तु ।। ६॥ उत्तमो या पुराकरक्षितिधरकाननादिषु स्थितपतितादिकम् अदत्तं तृणप्रमुखं धनं न लाति तं जननविनाशिनं गुरुं विधा नमामि ॥ ७ ॥ ये स्वसृजननीसुतासमाः विधा स्त्रियः विलोक्य कयनविलोकनादितः पराङ्मुखाः शर्मितकषायशत्रवः तान् विषयविनाशिनः गुरुन् यजामि ।। ८ ॥ तनुममताविवर्जिताः विनिर्मलस्थिरशिवसौख्यकाक्षिणः ये द्विविधम् अपि परिग्रहं त्रिधापि न गृह्णते ते गुरवः मम भवच्छिदः भवन्तु ॥ ९ ॥ सफलशरीरधारिणां दयालवः ये युगेक्षणाः दिवसे विजन्तुके दिनकररश्मिभासिते पथि स्वकार्यतः व्रजन्ति ते अङ्गिनां सुखानि ददति ॥ १० ॥ ये दिगम्बराः श्रुतोदितं मधुरं अपैशुनं स्वपरहितावह गृहिजन कर निर्मल दयाको करते हैं, अर्थात् अहिंसा महाप्रप्तका परिपालन करते हैं उन पिताके समान गुरुओंकी में निरन्तर भक्ति करता हूँ ॥ ५॥ जो विद्वानोंके द्वारा अनिन्दित-उनके द्वारा प्रशंसनीय, समस्त प्राणियों के लिये सुखकर, मनोहर और कषायरूप दूषणसे रहित वचनको बोलते हैं वे सत्यमहाव्रतके धारी गुरु मेरे लिये मुक्तिके कारण होवें ॥ ६ ॥ जो उत्तम गुरु नगर, खानि, पर्वत और वन आदिमें स्थित अथवा गिरे हुए आदि तृणप्रभृति धनको बिना दिये मन, वचन एवं कायसे नहीं ग्रहण करता है; जन्म-मरणरूप संसारका विनाश करनेवाले उस अचौर्यमहावतके धारक गुरुके लिये मैं नमस्कार करता हूँ॥७॥ जो गुरु तोन प्रकारको (युवत्ति, वृद्धा एवं बाला ) स्त्रियोंको बह्नि, माता और पुत्रीके समान मानकर उनके साथ सम्भाषण एवं अवलोकन मादिसे विमुख रहते हुए कषायरूप शत्रुको शान्त करते हैं; विषयभोगोंके विनाशक उन ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारी गुरुओंको मैं पूजा करता हूँ॥८॥ शरीरमें भी ममत्वबुद्धि न रखनेवाले जो गुरु बाह्य व अभ्यन्तर दोनों ही प्रकारके परिग्रहको मन, वचन व कायसे नहीं ग्रहण करते हैं तथा जो निर्मल एवं शाश्वतिक मोक्षसुखकी अभिलाषा करते हैं वे अपरिग्रहमहाव्रतके परिपालक गुरु मेरे संसारका नाश करनेवाले हो ॥ ९॥ जो गुरु सूर्यको किरणोंसे प्रकाशित निर्जन्तु मार्गमें स्वकार्यवश--चर्या आदिके निमित्त-दिनमें युगप्रमाण ( चार हाथ ) देखकर गमन करते हैं; समस्त प्राणियोंके ऊपर दया करनेवाले वे ईर्यासमितिका पालन करनेवाले गुरु जीवोंको सुस देते हैं ॥ १० ॥ जो नग्न दिगम्बर गुरु मधुर ( मिष्ट ), दुष्टता व परनिन्दासे रहित, आगमसे अविरुद्ध, स्त्र व १ स on. वि । २ स जः । ३ स "क्षति° । ४ स सुतादयो। ५ स विलोक्यते, जे for ये । ६ स कथमविलोकनाहितः । स ययामि। ८ स ताननाशिनो। ९ स परिपह"द्विविधं त्रिघापि ये न गृह्यते व तनुमता वि । १० स भाषिते।

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