Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ 359 : १४-१७
सुभाषितसंदोहः 354) कि सुखवुःखनिमित्तं मनुलो ऽयं खिग्रते' गतमनस्कः।
परिणमति विधिविनिर्मितमसुभाना कि वितर्कण ॥१२॥ 355) दिशि विदिशि विषति शिखरिणि संयति गहने बनेऽपि यातानाम् ।
पोजयति विषिरभीष्टं जन्मवतामभिमुखीभूतः ॥१३॥ 356) "यदनीतिमतां लक्ष्मीयंद'पम्यनिषेविण व कल्यत्वम् ।
अनुमीयते विधातुः स्वेच्छाचारित्वमेतेन ॥१४॥ 357) जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्सटगों ऽपि रत्नमुपयाति ।
पुण्यविपाकान्मयों मत्वेति विमुच्यता खेवः ॥ १५॥ 358) सुखमसुखं च विषत्ते जीवानां यत्र तत्र जातानाम् ।
कर्मव पुरा चरितं कस्तनोति वारयितुम् ॥१६॥ 359)ोपे बात्र समबे धरणीधरमस्तके दिशामन्ते।
यात कूपे ऽपि विषी रतं योजयति जन्मवताम् ॥ १७ ॥
विरहे कुसुमम् अपि वनादपि निष्ठुरं भवति ॥ ११॥ गतममस्क: बयं मनुजः सुखदुःखमिमित्तं किं खिद्यते । असुभानां विधिविनिमित्रं परिणति । वितण किम् ॥ १२ ॥ विशि विदिशि वियति शिखरिणि संयसि गहने व पि यातानां जन्मपताम् अभिमुखीभूतः विषिः अमीष्टं योजयति ।। १३ ।। यत् अनीतिमतां लक्ष्मीः, यत् व अपमिषेविणां कल्यस्वम्, एनेन विधातुः स्वेच्छाकारित्वम् अनुमोयते ॥ १४ ॥ पुण्यविपाकात् कश्चित् मयः बलविंगत अपि रत्नं न उपयाति । कश्चित तटगः अपि रलम् उपयाति । इति मस्या खेदः विमुच्यताम् ।। १५॥ पुरा चरितं कर्म एव यत्र तत्र जाताना जीवाना सुखम् असुखं च विपत्ते । तत् वारयितुं कः शक्नोति ॥ १६ ॥ विधिः द्वीपे व अत्र समुद्रे घरणीपरमस्तके दिशाम् बन्ने
पुरुषका भाग्योदय होता है तो वञपात भी फूल बन जाता है। और भाग्यके अभावमें फूल भी वजसे कठोर हो जाता है ॥ ११ ॥ यह मनुष्य अन्य मनस्क होकर सुख दुःखके लिये व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है अर्थात् विपत्ति और संपत्तिमें यह मनुष्य व्यर्थ ही चिन्ता करता है कि ऐसा कैसे हो गया; क्योंकि प्राणियोंको जो कुछ सुख दुःख होता है वह सब दैवके द्वारा किया होता है। उसमें तर्क वितर्क करना बेकार है ॥ १२ ॥ जिस समय प्राणियोंका देव उनके अनुकूल होता है उस समय वे दिशा, विदिशा, आकाश, पर्वत अथवा गहन वनमें कहा भी चले जायें, देव उनके इच्छित मनोरथ पूरे करता है ॥ १३ ॥ लोकमें देखा जाता है कि जो अन्याय करते हैं उनके पास लक्ष्मी माती है और जो अपथ्यका सेवन करते हैं वे रोगी न होकर नीरोग रहते हैं। इससे अनुमान होता है कि विधाता बझा स्वेच्छाचारी है उसके मनमें जो बाता है सो कर डालता है ॥ १४ ।। कोई मनुष्य तो समुद्रमें गोता लगाने पर भी रत्न नहीं पाता और कोई समुद्रके तट पर रहकर भी पा जाता है। यह सब जीवोंके पाप-पुण्यका खेल है। ऐसा मानकर मनुष्यको खेद नहीं करना चाहिये कि क्यों दूसरे सुखी है
और वह दुःखी है ॥ १५ ।। संसारमें सर्वत्र उत्पन्न हुए जीवोंको उनके द्वारा पूर्व जन्ममें किया गया पुण्य-पाप ही सुख अथवा दुःख देता है । उसे रोकना शक्य नहीं है ।। १६ ॥ प्राणियोंको उनका भाग्य द्वोपमें, समुद्रमें, पर्वतके शिखर पर, दिशाभोंके अन्तमें और कूपमें भी गिरे रत्नको मिला देता है ॥ १७ ॥ इस संसारमें पुण्य
स om. ऽयं । २ स खिधते, विद्यते । ३ स असुभुजां । ४ स जातानां । ५ स यदि नीति । ६ स यदि पथ्य । ७ सom, कश्चित् ८ स कस्तं छ° वारयतुं । ९ स पातं । १० स जोजयति ।